–मसीहुज़्ज़मा अंसारी
हिंदुस्तान की मशहूर प्लेबैक सिंगर अनुराधा पौडवाल इन दिनों अज़ान पर दिये अपने बयान को लेकर चर्चा में हैं.एक टीवी इंटरव्यू के दौरान अनुराधा पौडवाल ने कहा, “जिस तरह भारत में लाउडस्पीकर पर अज़ान होती है, उस तरह मैंने कहीं नहीं देखा. मैंने दुनिया में कई जगहों का दौरा किया है. मैंने भारत के अलावा ऐसा नहीं देखा है. मैं किसी धर्म के ख़िलाफ नहीं हूं, लेकिन यहां इसे जबरन बढ़ावा दिया जा रहा है.”
अनुराधा पौडवाल ने आगे कहा कि, “मस्जिदों में लाउडस्पीकर पर अज़ान होती है, जिसकी वजह से बाकी लोग भी स्पीकर चलाते हैं. मिडिल ईस्ट में तो लाउडस्पीकर पर अज़ान बैन है.”
अपने विवादित बयान में अनुराधा ने आगे कहा, “अगर देश में लोग लाउडस्पीकर पर यूं ही अज़ान देते रहेंगे तो लोग हनुमान चालीसा भी ऐसे ही चलाएंगे. इससे क्या फायदा होगा, विवाद बढ़ता जाएगा बस, ऐसा होना बेहद दुखद है.”
साल 2017 में सोनू निगम ने भी ट्वीट कर लाउडस्पीकर पर अज़ान को लेकर आपत्ति जताई थी. सोनू निगम ने ट्वीट कर कहा था, “मैं मुस्लिम नहीं हूं. फिर भी मुझे अज़ान की वजह से सुबह उठना पड़ता है. भारत में जबरन धर्म का थोपा जाना कब बंद होगा?” सोनू निगम के इस ट्वीट पर काफी हंगामा हुआ था.
हाल ही में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के प्रमुख राज ठाकरे ने भी अज़ान को लेकर एक विवादित बयान दिया है.
अचानक देश में अज़ान को क्यों मुद्दा बनाया जाने लगा?
पिछले कुछ सालों में अज़ान को मुद्दा बनाए जाने का मामला बढ़ा है. हिंदुत्ववादी नेताओं से लेकर बॉलीवुड प्लेबैक सिंगरों ने अज़ान पर आपत्ति जताई है. हर बार इसे लेकर अलग तर्क गढ़े गए हैं. कभी तेज़ आवाज़ कहकर आपत्ती की गई है तो कभी 10 बजे के बाद शोर होने का हवाला दिया गया है.
हालिया मामले में सिंगर अनुराधा ने 10 बजे के बाद होने वाले शोर का ज़िक्र करते हुए अज़ान का विरोध किया है. उनके इस बयान से किसी को भी कोई आपत्ति नहीं होनी चहिए. हालांकि जानकारी के लिए यहां यह बताना ज़रूरी है कि रात 10 बजे के बाद कोई अज़ान नहीं होती है. उनकी टिप्पणी तथ्यात्मक रूप से ग़लत है. उनका यह बयान जल्दबाज़ी में दिया गया है जो अप्रत्यक्ष रूप से किसी पार्टी या विचारधारा विशेष को लाभ पहुंचाता हुआ प्रतीत होता है.
दिक्कत अज़ान से या ध्वनि प्रदूषण से ?
अगर इस मामले को दूसरे तरह से देखा जाए तो अज़ान पर आपत्ति के अन्य कारण भी हो सकते हैं. एक तो यह कि वाकई अज़ान से इनको दिक्कत हो रही होगी या अज़ान की तेज़ आवाज़ उनके कार्यों में बाधा डाल रही होगी. हालांकि इसपर भी बहुत से सवाल खड़े हो सकते हैं कि क्या तेज़ आवाज़ से समस्या है या फिर केवल अज़ान से?
अगर समस्या शोर से है तो समाज में शोर के सैंकड़ों कारण मोजूद हैं जिन पर चर्चा होनी चाहिए मगर इसके लिए अज़ान को निशाना बनाना कितना सही है?
यदि तेज़ आवाज़ से किसी भी आम नागरिक को कोई दिक्कत है तो इस मुद्दे को किसी धर्म विशेष के फ्रेम में न देखते हुए समाज के एक बड़े मुद्दे के रूप में देखा जाना चहिए और इसपर खुले मन से विमर्श होना चहिए. समाज में शोर बहुत से चीज़ों का है और ध्वनि प्रदूषण के ढ़ेरों कारण हैं. चाहे शोर रात 10 बजे के बाद का हो या फिर सुबह से शाम तक का.
एक सभ्य समाज में देर रात में शोर करना और दूसरों को परेशान करना कभी भी जाएज़ और उचित नहीं ठहराया जा सकता. इसके लिए जो भी क़ानून हैं उसका सख़्ती से पालन होना चाहिए. लेकिन इसके लिए अज़ान और हनुमान चालिसा का बाइनरी बनाना किसी गंभीर विषय पर विमर्श को निम्न स्तर पर ले जाने के समान है.
भारतीय समाज अपनी छोटी-छोटी ख़ुशियों व उत्सव को ज़बरदस्ती समाज के दूसरे लोगों पर थोपने का आदी है. चाहे बर्थडे हो, शादी ब्याह हो, भजन हो, उर्स हो, या कोई धार्मिक या राजनीतिक अनुष्ठान हो. इस प्रकार के कार्यक्रम में आयोजकों की ज़्यादा ऊर्जा लोगों को ज़बरदस्ती सुनाने या दिखाने में ख़र्च होती है. इसका असर मुसलमानों पर भी है क्योंकि मुसलमान भी इसी भारतीय समाज का हिस्सा हैं.
लेकिन जब कोई मुद्दा पूरे समाज की समस्या हो तो उस मुद्दे को केवल एक ख़ास धर्म के मानने वालों को निशाना बनाकर विमर्श किया जाना असंवैधानिक है.
किसी भी कार्यक्रम में ज़रूरत से ज़्यादा शोर करना सही नहीं है, चाहे वह कोई धार्मिक कार्यक्रम हो, राजनीतिक कार्यक्रम हो, निजी कार्यक्रम हो या त्योहार के समय किए जाने वाला गैर ज़रूरी शोर हो.
कितना तार्किक है अज़ान के लिए मुस्लिम देशों का उदाहरण देना?
वर्तमान में किसी समस्या को मुसलमानों से जोड़ते हुए अरब देशों का उदाहरण देने का नया प्रचलन शुरू हुआ है. चाहे तीन तलाक़ हो, अज़ान का मुद्दा हो या अन्य कोई मुद्दा. हालांकि इन दोनों समाज में तुलना करने का कोई औचित्य नहीं है. भारत विभिन्नता से परिपूर्ण एक लोकतांत्रिक समाज है और अधिकतर अरब देश में राजशाही है. दोनों समाज का तानाबाना भी बिल्कुल अलग है. ऐसे में भारतीय मुसलमानों के किसी भी मुद्दे को अरब देशों से जोड़कर देखना और अपनी सुविधानुसार हल तलाशना एक अहमकाना क़दम है.
अरब देशों से तुलना करने पर भारत में माइक पर अज़ान देना और भी ज़रूरी हो जाता है
यदि भारतीय मुसलमानों की अरब देशों से तुलना करने का मन किसी ने बना ही लिया है और तर्क गढ़ कर भारत में माइक पर अज़ान बैन करने की बात करता है तो उसका यही तर्क साबित करता है कि भारत में माइक पर अज़ान देना क्यों ज़रूरी है.
भारत का बहुसंख्यक समाज मुस्लिम नहीं है. भारत का सामाजिक ताना बाना मुसलमानों के धार्मिक प्रथाओं या नियमों के अनुसार बिल्कुल भी नहीं है. स्कूल, ऑफिस और बाज़ार का समय मुसलमानों के निर्धारित धार्मिक आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं हैं. किसी ऑफिस में 500 स्टाफ में 10 मुसलमान हैं, किसी स्कूल में 60 बच्चों के बैच में 6 मुसलमान हैं, किसी बाज़ार में 100 दुकानों में 6 मुस्लिम दुकानदार हैं, ऐसे में उनके नमाज़ अदा करने के लिए या रमज़ान के महीने में अफ्तार का सही समय जानने के लिए अज़ान ही एक माध्यम है. यह अज़ान माइक से (निर्धारित मानक ध्वनि के अनुसार) ही होनी चाहिए तभी सही समय पर इफ्तार या नमाज़ हो सकेगी.
अरब देशों में यदि माइक पर अज़ान नहीं होती है (जैसा कि दावा किया जा रहा है) तो यह भारत में लागू करने के लिये उपयुक्त उदाहरण नहीं है क्योंकि वहां मुस्लिम बहुसंख्यक हैं और वहाँ का सामाजिक ताना बाना मुस्लिम/इस्लामिक व्यवस्था के अनुसार है.
अरब देशों में यह व्यवस्था है कि जब इस्लामिक गतिविधियों का समय होता है तो अन्य सभी सरकारी कार्य रोक दिए जाते हैं. उस दौरान कार्य करने वाले अन्य धर्म के लोगों को भी ब्रेक दिया जाता है.बहुसंख्यक समाज को अज़ान का सम्बंध यहां की मिट्टी से जोड़कर देखना चाहिए
अज़ान भारत में आज से शुरू नहीं हुई है, या माइक से अज़ान देने का प्रचलन अभी का नहीं है बल्कि इसमें कई शताब्दियों का अतीत है. वर्तमान में यदि कोई समस्या है तो उसको आधार बनाकर भारत के अतीत के इस आध्यात्मिक स्वर को धूमिल नहीं किया जा सकता. अज़ान यहां की आबो’हवा में रची बसी है. ‘माइक’ और ‘शोर’ को आधार बनाकर अज़ान के स्वर को बंद नहीं किया जाना चाहिए और हमें इस बात का पूरा यक़ीन है कि यहां की लोकतांत्रिक सामाजिक संरचना ऐसा होने भी नहीं देगी.