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बिहार चुनाव: दंगों का समीकरण

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना: बिहार में दंगे कोई नई बात नहीं है. यहां दंगों का समाजशास्त्र बेहद ही दिलचस्प है. न जाने क्यों यहां यह समाजशास्त्र दलितों व मुसलमानों के इर्द-गिर्द घूमने लगा है. समाज के यही दो तबके ऐसे हैं, जो हर दंगे की चपेट में आ जाते हैं.

आंकड़े इस बात के गवाह हैं. इतिहास इस पर मुहर लगाता है. बिहार में दंगों की संख्या में हुआ इज़ाफ़ा एक सुनियोजित साज़िश की ओर इशारा करता है. चुनाव में ये साज़िश और भी गहरी हो जाती है.

हाल में ही अंग्रेज़ी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक जनवरी 2010 से अगले साढ़े तीन साल तक (जब बीजेपी नीतिश कुमार सरकार में साथ रही) साम्प्रदायिक तनाव या दंगों के मामलों की संख्या सिर्फ 226 रही. लेकिन जैसे ही जून 2013 में नीतिश कुमार ने बीजेपी के साथ रिश्ता तोड़ा, साम्प्रदायिक मामलों की संख्या में काफी इज़ाफ़ा हो गया. आंकड़े बताते हैं कि जून 2013 से जून 2015 ये मामले बढ़कर 667 हो गए. और ज़्यादातर मामले उन इलाक़ों में हुए जहां दलित व मुस्लिम वोटरों की संख्या अधिक है.

TwoCircles.net ने बिहार में बढ़ते साम्प्रदायिक दंगों की संख्या के समाजशास्त्र को समझने के लिए कई जानकारों से बात की तो एक नतीजा स्पष्ट तौर पर सामने आया कि इन मामलों के पीछे के कारण भले ही समाजिक हो, पर मक़सद राजनीतिक ही था.

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से बिहार के दंगों पर शोध करने वाली रिसर्च स्कॉलर ग़ौसिया परवीन का मानना है कि बिहार में होने वाले ज़्यादातर दंगों के पीछे कारण राजनीतिक ही रहे हैं. नेता व राजनीतिक पार्टियां अपने फ़ायदे व पावर के लिए समाज में जो आर्थिक रूप से कमज़ोर व अशिक्षित है, उनके निजी जीवन के छोटे-छोटे मामलों में ‘धर्म’ का तड़का लगाकर उनकी भावनाओं को अपने पक्ष में करने की भरपूर कोशिश करते हैं. दुर्भाग्य की बात यह रही है कि वो अपने इस मक़सद में हमेशा कामयाब भी रहे हैं.

पटना के सामाजिक कार्यकर्ता अरशद अजमल का कहना है कि दंगाईयों को अब समझ में आ चुका है कि भागलपुर जैसे बड़े दंगे बिहार में करा पाना काफ़ी मुश्किल है तो उन्होंने आम लोगों के जीवन में होने वाले छोटे-छोटे झगड़ों व मामलों को धार्मिक रूप देकर लोगों में नफ़रत का माहौल बनाकर ध्रुवीकरण की कोशिश में लगातार लगे हुए हैं. सोचने की बात है कि त्योहार तो होंगे ही… कांवड़ तो निकलेगा ही… लड़के-लड़कियां तो प्यार करेंगे ही… लेकिन इससे भी नीचे जाकर नाली को लेकर, सड़क को लेकर मोटर बाईक से लगे ठोकर को लेकर यहां यहां साम्प्रदायिक तनाव फैलाने की कोशिश हो रही है.

उर्दू अख़बार ‘इंक़लाब’ पटना एडिटर अहमद जावेद बताते हैं कि पहले बिहार के लोगों में बहुत क़ुर्बत थी पर अब दूरियां काफ़ी बढ़ गई हैं, ‘पहले हम लोग अपने दोस्तों को मज़ाक़ में ऐसी-ऐसी बातें कह जाते थे, जिन्हें अब कहने के लिए सोचना पड़ेगा.’ अहमद जावेद के मुताबिक़ ज़्यादातर दंगों की बुनियाद सामाजिक होती हैं, लेकिन इसको बढ़ावा सियासी फ़ायदे के लिए किया जाता है.

भागलपुर के दंगों पर पीएचडी कर चुके दिल्ली विश्वविद्यालय के सोशल वर्क डिपार्टमेंट के हेड प्रो. मनोज झा का कहना है, ‘ये भाजपा की कार्यशैली है कि जब वे सत्ता में रहते हैं तो अपने दंगा-भड़काउ तत्व को थोड़ा नियंत्रण में रखते हैं कि चलो जब बाहर होंगे तो इनसे काम लेंगे. जब सत्ता के हिस्सेदार रहते हुए कम पावरफुल होते हैं तो शांत दंगा फैलाते हैं. अफ़वाह जैसी चीजों का सहारा लेते हैं. लेकिन जैसे ही वो सत्ता से बाहर होते हैं तो घोर अशांति से अफ़वाह को दंगों में तब्दील कर देते हैं.’

प्रो. मनोज झा आगे बताते हैं, ‘हालांकि सरकार में रहकर ये लोगों के बीच दूरी बनाने का काम करते हैं और जब सरकार से बाहर होते हैं तो ये सुनिश्चित करने का काम करते हैं कि लोग एक-दूसरे को काटे-मारे.’

प्रो. मनोज झा के मुताबिक भाजपा ने गुजरात के बाद बिहार को एक प्रयोगशाला के रूप में डेवलप करने की कोशिश की थी, जिसमें वो अब तक सफल नहीं हो पाए हैं.

ख़ैर, बिहार में दंगे और राजनीतिक फ़सल की बीच सीधा-सा रिश्ता है. भाजपा इस बीज की खिलाड़ी बनकर उभरी है. सबूत अदालत के पन्नों से लेकर स्थानीय लोगों के ज़ुबान तक दर्ज है. हालांकि भाजपा से जुड़े नेता बिहार में बढ़ते साम्प्रदायिक मामलों के लिए बिहार सरकार को ही दोषी मानती है. अपने रेडियो विज्ञापनों के ज़रिए बिहार में भय व दंगा मुक्त सरकार देने का वादा भी कर रही है.

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