Home India News कैराना की आर्यापुरी में छिपा है पलायन का असल दर्द

कैराना की आर्यापुरी में छिपा है पलायन का असल दर्द

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

कैराना(उत्तर प्रदेश):पलायन की असली त्रासदी मुज़फ़्फ़रनगर दंगों में छिपी हुई है. इन दंगों के ज़ख़्म अभी भी ताज़ा हैं. कैराना की आर्यापुरी पंचायत के पास बसी मुनव्वर हसन कॉलोनी इसका जीता जागता उदाहरण है.

इस कॉलोनी की ख़ासियत यह है कि यहां 2013 के मुज़फ़्फ़रनगर दंगों से विस्थापित हुए तक़रीबन 250 से अधिक परिवार बेहद बुरे हालातों में ज़िन्दगी काटने पर मजबूर हैं. दंगों के दौरान इनके घरों को उजाड़ दिया गया था. सरकार ने इनकी रिहाइश के सिर्फ़ वायदे भर किए मगर ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि ज़मीन पर अब तक हुआ कुछ भी नहीं है.

दरअसल इस कालोनी में दो तरह के घर हैं. एक तरफ़ कुछ घर ईंटों के बने हैं. जिनकी संख्या लगभग 133 है, जिन्हें एक सामाजिक संगठन ने बनवाया है. इसके अलावा यहां झुग्गी-झोपड़ियां हैं. यहां के लोगों के मुताबिक़ इन झुग्गियों में रहने वाले लोगों को आज तक कोई मुआवजा नहीं मिला है.

Kairana Riot Victims Camp

शमीना और फ़िरदौस मुज़फ़्फ़रनगर ज़िला के बुढ़ाना के पास एक गांव में रहती थीं. इस गांव में अब भी उनका घर मौजूद है, लेकिन 2013 दंगों के बाद आज तक अपने घर को लौटकर वो वापस नहीं गईं और पिछले तीन सालों से वे कैराना के इसी कैम्प में रहकर अपना गुज़र बसर कर रही हैं.

शमीना बताती हैं, ‘अपने खानदान के पांच लोगों को खोने के बाद अब हम में इतनी हिम्मत नहीं बची है कि वापस अपने गांव जा सकें.’ वहीं फिरदौस का कहना है, ‘हमारे घर में तो उसी समय आग लगा दी गयी थी. बस हम किसी तरह से बचकर यहां आने में कामयाब रहे. अब घर लौटने की ख्वाहिश सीने में दफ़न हो चुकी है. कम से कम इन झुग्गियों में अब कोई डर तो नहीं है.’

Kairana Riot Victims Camp

45 साला विधवा सैय्यदा बताती हैं, ‘अब मेरा मर्द नहीं है. दंगे में सब कुछ बर्बाद हो गया है.’ वो बताती हैं कि उनकी पांच लड़कियां हैं, जिनमें से चार की शादी उन्होंने कर दी है.

शेर अली व साबिर बताते हैं कि दंगे ने उनका सब कुछ छीन लिया. शामली में अपना घर था. बावजूद इसके आज तक अपने घर नहीं गए. उन्होंने अपने लोगों को अपने आंखों के सामने मरते देखा है. यह बोलते ही उनके आंखों से आंसू छलक जाते हैं और फिर आगे बात करने से दोनों ही मना कर देते हैं.

Kairana Riot Victims Camp

35 साल की फ़ातिमा बताती हैं कि यहां हम अपनी खुशी से नहीं रह रहे हैं, बल्कि यहां रहना हमारी मजबूरी है. वो बताती हैं कि यहां सुविधा के नाम पर कुछ भी नहीं है. न बिजली है और न ही पानी. आगे हैंडपम्प है, उसी के पानी से इस पूरे कैम्प का काम चलता है. उन्हें इस बात का भी अफ़सोस है कि कुछ परिवारों को एक संस्था की ओर से कच्चे मकान ज़रूर मिले हैं, लेकिन उन्हें तो इस चिलचिलाती धूप में ही रहना पड़ता है.

लेकिन आयशा का कहना है, ‘गर्मी में तो फिर भी हम गुज़ारा कर लेते हैं, लेकिन बरसात का मौसम हमारे लिए जहन्नुम बन जाता है. ज़मीन में पैर रखना हमारे लिए मुश्किल हो जाता है.’

40 साल के इमरान का कहना है, ‘सरकार ने हमें कुछ नहीं दिया. हम तो यूं ही वीरान हैं. हमारे छोटे-छोटे मासूम बच्चे तड़प जाते हैं. इस कैम्प के अधिकतर बच्चें इन दिनों बीमार ही हैं, लेकिन कोई पूछने वाला नहीं है.’ इमरान बताते हैं कि जिन बच्चों की पढ़ाई छूट गई वो आज तक स्कूल का मुंह नहीं देख सके हैं. हां, कुछ बच्चे पास के मस्जिद में पढ़ने ज़रूर जाते हैं.

Kairana Riot Victims Camp

सच तो यही है कि इस कैम्प में रह रहे इनके बच्चों के पास न तो खाने के लिए रोटी है, न ही कोई रोज़गार, बच्चों के पढ़ाई-लिखाई की तो यहां बात ही भूल जाइये. ये परिवार दंगों के तीन साल बाद भी स्वास्थ्य सुविधाओं से महरूम है. हद तो यह है कि इस कैम्प में एक भी शौचालय नहीं है. यहां रहने वाले सभी को खुले में ही शौच के लिए जाना पड़ता है.

हैरानी की बात है कि किसी को भी यह सुध ही नहीं है कि आज ये किस हालत में हैं. और सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि आख़िर इस पलायन पर कोई अपना मुंह खोलने को तैयार क्यों नहीं है.

Kairana Riot Victims Camp

रमज़ान के इस महीने में इन परिवारों का और भी बुरा हाल है. खुले आसमान के नीचे तपती दोपहरी में कुछ परिवार रोज़ा के फ़ज़ीलतों से महरूम है, तो वहीं ज़्यादातर परिवारों के साथ रोज़ा रखने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं है. इनके बच्चे कड़ी धूप में बिलबिलाते हैं. पर कोई भी राजनीतिक पार्टी आज इनके साथ खड़ी नहीं है. पलायन का असल दर्द तो यही है.

तक़रीबन 60 साल के अलताफ़ कहते हैं, ‘अल्लाह भी हमारा अजब इम्तिहान ले रहा है. बेहतर होता कि हमें भी किसी ने दंगे में मार दिया होता. रमज़ान का महीना चल रहा है. इस चिलचिलाती धूप में हम सब परिवार के लोग रोज़ा रखते हैं. लेकिन हमारे पास न तो इफ़्तार की सही इंतज़ाम है और न ही सहरी का. बस अल्लाह ही मालिक है. कभी-कभी अल्लाह के फरिश्ते यहां आकर हम सबके बीच कुछ बांट जाते हैं.’

Kairana Riot Victims Camp

70 साल की अनवरी बताती हैं, ‘मेरे लड़के हैं. वो बेचारे काम के लिए जाते हैं. लेकिन आजकल तो शहर में उनको काम भी नहीं मिलता. रमज़ान के इस महीने में रोज़ा रखना काफी मुश्किल है. न पीने का पानी है और न ही खाने को कोई बेहतर खाना. लेकिन फिर भी रोज़ा रहती हूं. रोज़ा नहीं रखने का क्या फायदा. ख्वाहमख्वाह गुनाह होगा और खाने को अनाज भी नहीं मिलेगा. जब दिन भर भूखे ही रहना है तो रोज़ा रखना ही बेहतर है.’

40 साल की सलमा से ईद के तैयारियों के बारे में पूछने पर वह रो पड़ती हैं. फिर अपने आंसुओं को पोंछते हुए कहती हैं, ‘गरीबों के यहां ईद नहीं होती.’

मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के बाद जो कुछ हुआ, कैराना का ये कैम्प उसका बेहद ही दर्दनाक उदाहरण है.

कैराना से पलायन के शोर के बीच एक बार फिर से इनकी कहानियां ज़िन्दा हो गई हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि पलायन के नाम पर राजनीतिक नफ़ा-नुक़सान के बारे में सोचने वाले लोग पलायन के असली शिकारों पर भी ध्यान देंगे और इन्हें इनका खोया हक़ फिर से वापस दिलाएंगे.