Home India News मुज़फ़्फ़रनगर दंगा : संगीत सिंह सोम के मामले में तथ्यों को छिपा...

मुज़फ़्फ़रनगर दंगा : संगीत सिंह सोम के मामले में तथ्यों को छिपा रही है पुलिस

TwoCircles.net Staff Reporter

पिछले दिनों मुज़फ़्फ़रनगर साम्प्रदायिक हिंसा की चौथी बरसी पर रिहाई मंच द्वारा जारी एक रिपोर्ट ‘सरकार दोषियों के साथ क्यों खड़ी है?’ में आरोप लगाया है कि उत्तर प्रदेश पुलिस संगीत सिंह सोम के मामले में तथ्यों को छिपा रही है. साथ ही इस रिपोर्ट में यह भी आरोप है कि इस मामले में पुलिस व सरकार न्यायालय को गुमराह करने का काम कर रही है. यह रिपोर्ट मानवाधिकार कार्यकर्ता एडवोकेट असद हयात, रिहाई मंच के महासचिव राजीव यादव व प्रवक्ता शाहनवाज़ आलम ने तैयार की है.

स्पष्ट रहे कि पुलिस द्वारा सचिन और गौरव की हत्या से संबंधित झूठी वीडियो फिल्म के बावत मुक़दमा अपराध संख्या -1118/2013 दर्ज किया गया था. जिसके संबंध में फेसबुक कंपनी से ज़रूरी रिकार्ड मंगाया जाना था, जिसका कार्यालय अमेरिका में है. इन सबूतों को मंगाए जाने के लिए माननीय सीजीएम न्यायालय मुज़फ़्फ़रनगर ने एक पत्र अमरीकन क़ानून और जस्टिस विभाग/मंत्रालय को लिखा कि वह ज़रूरी साक्ष्य उपलब्ध कराए. यह पत्र ज़िला अधिकारियों और राज्य सरकार के अनुमोदन पर केन्द्र सरकार द्वारा भेजा जाना था.

‘सरकार दोषियों के साथ क्यों खड़ी है?’ नामक इस रिपोर्ट में कहा गया है कि संगीत सिंह सोम पर रासुका लगी थी, परन्तु सरकार द्वारा एडवाइजरी बोर्ड को इस बारे में जानकारी नहीं दी गई कि सबूतों को अमेरिका से मंगाया जा रहा है. इसी कारण एडवाइजरी बोर्ड द्वारा रासुका हटा दी गई. इतना ही नहीं, ज़मानत के प्रार्थना-पत्र की सुनवाई के दौरान ये तथ्य भी न्यायालय को नहीं बताए गए और भड़काऊ भाषणों की वीडियो रिकॉर्डिंग भी न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत नहीं की गयी. विवेचक को भी वीडियो रिकॉर्डिंग नहीं सौंपी गई और इस कारण भड़काऊ भाषण देने वाले संगीत सिंह सोम और दूसरे विधायकों को ज़मानत मिल गई.

इस रिपोर्ट में दंगा पीड़ितों और गवाहों को दंगा अभियुक्तों द्वारा धमकाए जाने की भी बात कही गई है. रिपोर्ट के मुताबिक़ दंगे के अभियुक्तों, जाट चौधरियों, भाजपा और किसान नेताओं ने अनेकों बार अनेक स्थानों पर पंचायतें कीं और उनमें महिलाओं को भी शामिल किया. इन पंचायतों में शस्त्र-प्रदर्शन हुआ और कहा गया कि अगर किसी भी व्यक्ति को पुलिस ने गिरफ्तार किया तो परिणाम अच्छे नहीं होंगे.

समाचारपत्रों में इसका विवरण सचित्र प्रकाशित हुआ. गिरफ्तारी के लिए गई पुलिस टीम पर भी हमले हुए. इससे दंगा पीड़ितों और उनके गवाहों में भय पैदा हुआ. टेलीफोन पर अभियुक्तों द्वारा उन्हें धमकाया गया और गवाही बदलने और पक्ष में शपथ-पत्र देने के लिए कहा गया. इस वार्तालाप की ऑडियो रिकार्डिंग विवेचना सेल को सौंपी गयी है. पुलिस द्वारा गवाहों और पीड़ितों को सुरक्षा नहीं दी जा रही है.

इस रिपोर्ट में कई उदाहरण भी पेश किए गए हैं. यह रिपोर्ट बताती है कि 2 मामलों में परिवारजनों ने कोर्ट के बाहर एक अख़बार को बयान दिया कि उनको अभियुक्त पक्ष द्वारा मामले वापस न लेने की सूरत में जान से मारने की धमकी दी जा रही है. एक मामले में मृतक के पिता ने कहा कि अगर उनके परिवार को सुरक्षा दी गई तो वे फैसले के खिलाफ़ अपील करेंगे. 21 जनवरी को बलात्कार के मामले में हुई रिहाई के बाद पीड़िता के पति ने कोर्ट के बाहर बयान दिया कि उनको शुरू से ही जान से मारने की धमकी दी जा रही थी और इसके बारे में उन्होंने पुलिस को कई बार लिखा भी था. लेकिन लगभग 9 महीनों के बाद ही उनको सुरक्षा प्रदान की गई थी.

सच तो यह है कि आज भी मुसलमान परिवार अपने गाँव वापस लौटने को तैयार नहीं हैं. पीयूडीआर की 2013 की जांच के दौरान फुगाना और बिनौली थाना से जघन्य हत्याओं के 2 ऐसे मामले भी सामने आए थे, जहां परिवारजनों पर गाँव के सरपंचों ने मामले दर्ज न करने के लिए दबाव डाला था और जान से मारने की धमकी भी दी थी. डर और खुली छूट का जो माहौल उस समय था वह आज भी बरक़रार है. लोगों को सुरक्षित महसूस कराने में पुलिस और प्रशासन की पूर्ण नाकामयाबी क्या उनके साम्प्रदायिक चरित्र की ओर इशारा नहीं करती?

पुलिस द्वारा जान-बूझकर जांच में देरी क्यों?

पीयूडीआर ने अपनी जांच में कम से कम 5 ऐसे मामले सामने लाए थे, जिनमें जघन्य अपराध होने के बावजूद समय पर चार्जशीट दाखिल न किए जाने के कारण आरोपी बेल पर बाहर थे. प्राथिमिकी दर्ज करने में देरी के भी कई मामले सामने आए थे.

फुगाना थाने में बलात्कार के मामलों में शिकायत करने के 4 महीने बाद दबाव बनाने पर प्राथिमिकी दर्ज की गई थी और फिर यही देरी बाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में कुछ आरोपियों को बेल मिलने का कारण बन गई थी. अन्य गिरफ्तारियां भी सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद ही की गईं.

मोहम्मद आमिर खान (पिता रईस्सुद्दीन) – जिसकी लाश उसी के घर में पेड़ से टंगी हुई पाई गई थी, मामले में बार-बार शिकायत करने पर भी पुलिस ने पोस्टमॉर्टम नहीं करवाया. बाद में पुलिस ने मामला बंद करने के लिए कोर्ट में समापन रिपोर्ट दाखिल कर दी. क्या ये सभी उदाहरण आरोपियों के साथ पुलिस की सांठ-गाँठ की ओर इशारा नहीं करते?

न्यायालय क्यों कर रहे हैं पक्षपात?

यह निंदनीय है कि न्यालायाय सब कुछ देखने के बाद भी मूकदर्शक बने बैठे हैं. स्पष्ट है कि गवाह डर के कारण अपने बयानों से पलट रहे हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार कहा है कि न्यायालय साक्ष्य दर्ज करने का केवल एक ‘टेप रिकॉर्डर’ नहीं है. न्यायालयों को मुक़दमों के दौरान एक सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए. किसी मुक़दमे का उद्देश्य है सच को जानना और न्याय करना और जहां न्यायालय को लगे की अभियोजन पक्ष आरोपियों के साथ मिला हुआ है, वहाँ तो न्यायालय की ज़िम्मेदारी और भी गंभीर हो जाती है (जाहिरा हबिबुल्लाह शेख और अन्य बनाम गुजरात राज्य, 12 अप्रैल 2004).

ऐसे में क्या न्यायालयों को नहीं चाहिए कि वे गवाहों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के आदेश दें और मुक़दमों को उनके उचित निष्कर्ष तक पहुंचाएं? ऐसा न किये जाने से न्यायालयों का रवैय्या केवल पक्षपातपूर्ण ही प्रतीत होता है.