सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net
नई दिल्ली- इसके पहले आप अनिर्बन भट्टाचार्य से हमारी बातचीत पढ़ चुके हैं. उसी कड़ी में आज हम आपको उमर ख़ालिद का इंटरव्यू पढाएंगे. जिस वक़्त जेएनयू में विवाद हुआ, ठीक उसी समय दिल्ली पुलिस ने यह आरोप लगाना शुरू कर दिया कि उमर ख़ालिद के जैश-ए-मोहम्मद से सम्बन्ध हैं, वह तीन बार पाकिस्तान गया हुआ है और वह खाड़ी देशों के साथ लगातार संपर्क में है. उमर ख़ालिद ने जेएनयू लौटने के बाद इन सभी क़यासों पर विराम लगा दिया. आज पूरे मुद्दे के प्रकाश में जेएनयू प्रशासन उमर ख़ालिद, अनिर्बन और कन्हैया को निकालने की तैयारी में है. उसके पहले पढ़िए उमर खालिद से यह ख़ास बातचीत –
TCN: कमोबेश मेरा ये प्रश्न तो वही है कि पूरे आन्दोलन का रिज़ल्ट क्या मिल रहा है आपको?
उमर: देखिए ऐसा नहीं है कि सब यहीं से शुरू हुआ. पहले जाधवपुर यूनिवर्सिटी में हुआ, फिर एफटीआईआई में हुआ, उसके बाद फेलोशिप को लेकर हुआ, फिर हैदराबाद में, फिर जेएनयू में और फिर दोबारा से हैदराबाद में हुआ, जो अभी तक चल रहा है. इस पूरे घटनाक्रम को मिलाकर देखें तो संस्थानों पर सरकार निर्दयी ढंग से लगातार हमले कर रही है. ये हमले पुराने हैं. ऐसा नहीं है कि इस सरकार के आने के बाद ही शुरू हुए हैं लेकिन इस सरकार के आने के बाद ये हमले ज्यादा तेज़ और आक्रामक हो गए हैं. शिक्षा का निजीकरण हो रहा है. शिक्षा का निजीकरण भी आक्रामक तरीके से हो रहा है तो शिक्षा का भगवाकरण भी उतनी ही आक्रामकता से किया जा रहा है. समाज के पिछड़े तबकों से आने वाले लोगों को शिक्षा से बेदखल करने का प्रयास किया जा रहा है. यूनिवर्सिटीज़ में भगवा प्रमुखों की नियुक्ति हो रही है. लेकिन इस लगातार हो रहे हमलों से एक बात निकलकर आई है कि यदि ये हमले लगातार हैं तो उन हमलों का प्रतिरोध भी लगातार हो रहा है. इन्होने हरेक आंदोलन के साथ यह कोशिश की है कि एक आन्दोलन को किसी दूसरे हमले से दबा दिया जाए. FTII के वक्त फेलोशिप हटाने का मुद्दा उठा. फिर वह अभी तक चल ही रहा था कि रोहित वेमुला और हैदराबाद विश्वविद्यालय पर हमला हुआ. उससे ध्यान खींचने के लिए वे जेएनयू पर आए. हर मुद्दे और हर आन्दोलन के लिए solidarity बनी हुई है. इसलिए जब भी कोई नया मुद्दा उठता पिछले मुद्दे से उठी आवाज़ हमें अगले आन्दोलन में ताकत देती थी. वे यह समझ नहीं पाए. तो एक तरह से इस लगातार चल रहे आन्दोलन के बीच एक बहुत बड़ा स्टूडेंट मूवमेंट उभरकर आया है, जो आने वाले दिनों में उम्मीद की किरण की तरह लग रहा है. और सिर्फ जेएनयू से ही नहीं, तमाम विश्वविद्यालयों से चीज़ें आ रही हैं.
TCN: इसका मतलब बातें फ़ैल रही हैं. लेकिन दलित मुद्दे या फेलोशिप की बात हो, तो क्या उससे कुल मिलाकर अभिव्यक्ति की आज़ादी पीछे तो नहीं छूट जा रही है?
उमर: देखिए जो अचीवमेंट है, अभिव्यक्ति की आज़ादी उसमें निहित है. वह उसका एक अंग है. इस पूरे आन्दोलन के बीच यदि हमें अभिव्यक्ति की आज़ादी पर ख़तरा दिखाई भी देता है तो यह ख़तरा दूसरी ओर से उठ रहा है. वो चाहते ही नहीं हैं कि लोगों के बीच मतभेद हों और लोग उसपर बात करें. जेएनयू पर जो हमला हुआ, उसका बहुत से लोगों ने विरोध किया है. कार्यक्रम के आयोजन में 10 लोग थे. वे कार्यक्रम की रूपरेखा से सहमत थे या नहीं थे, ये अलग मुद्दा है. लेकिन सभी इस बात पर ज़रूर सहमत थे कि छात्रों और छात्रों के संगठन को अपना ओपिनियन रखने का अधिकार है. तो अभिव्यक्ति की आज़ादी को ख़तरा तो है लेकिन एक एजेंडे के तौर पर वह पीछे नहीं छूट रही है. आन्दोलन संस्थानों के निजीकरण, उनके भगवाकरण, दलित और पिछड़े वर्ग के उत्पीड़न और फेलोशिप जैसे मुद्दों पर केन्द्रित है और उसके लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी सबसे बड़ा साथ निभाने वाला फैक्टर है.
TCN: तो क्या स्टूडेंट मूवमेंट के वहीँ का वहीँ रह जाने का खतरा नहीं है?
उमर: हाँ, यह तो सीमा है ही. यदि हमने बड़ी समस्याओं को एड्रेस नहीं किया या ऐसी समस्याओं की ओर ध्यान नहीं दिया जो कैम्पसों के बाहर हैं, तो ये छात्र आंदोलन महज़ एक छात्र आन्दोलन ही रह जाएगा. यह उसका डेड एंड होगा. हमले सिर्फ संस्थानों पर नहीं हो रहे हैं, वे समाज के हर तबके पर हो रहे हैं. बस्तर के आदिवासी हों या मध्य प्रदेश के मानवाधिकार कार्यकर्ता और व्हिसलब्लोवर हों, सब पर हमले तो हो रहे हैं. सोनी सोरी पर भी तो हमला हुआ है अभी. समाज के अलग-अलग आंदोलनों से जुड़कर छात्र आन्दोलन को आगे बढ़ना होगा.
TCN: आप कह रहे हैं कि छात्र आन्दोलन होना है और उसे इस तरीके से चलना होगा. लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि हैदराबाद और पुणे छोड़ दें तो छात्र आंदोलन हिन्दीभाषी क्षेत्र के बाहर बेहद कम जा रहा है? जम्मू-कश्मीर और नॉर्थ-ईस्ट की बड़ी आवाजें तो वहां के बाहर ही सुनाई देती हैं, लेकिन वहाँ ‘छात्र आन्दोलन’ का एक व्यापक स्वरुप अनुपस्थित है.
उमर: हाँ, यह बड़ा सवाल है. जम्मू-कश्मीर और नॉर्थ-ईस्ट का तो मुद्दा ही अलग है. वहां आर्मी का राज चलता है. उन इलाकों में विश्वविद्यालय छावनी में तब्दील हो गए हैं. कश्मीर यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स यूनियन कई सालों से प्रतिबंधित है, लेकिन प्रतिबंधित होने के बावजूद वे बहस में हैं. अपने पक्ष रखते हैं. कुछ सालों पहले प्रणब मुखर्जी वहां गए थे तो प्रतिबंधित होने के बावजूद उन्होंने विरोध भी किया था. लेकिन ये बात है कि बहुत सारे विश्वविद्यालयों में अभी भी छात्र राजनीति बंद है लेकिन ऐसा नहीं है कि युवा इसमें हिस्सा नहीं ले रहे हैं. वे यूनिवर्सिटी में होने वाली राजनीति में हिस्सा नहीं ले पा रहे हैं तो उस पूरे डिस्कोर्स में अपनी हिस्सेदारी निभा रहे हैं. लेकिन आपके प्रश्न का जवाब देते हुए कहूं तो 1991 के बाद से देश में ध्रुव बनना थोड़ा मजबूत हुआ है और अब वह दिख भी रहा है. तो मेनलाइन इंडिया में स्टूडेंट पॉलिटिक्स को ख़त्म करने का संगठित प्रयास शुरू हो गया. जगह-जगह छात्रसंघ चुनावों को बैन कर दिया गया है. आपको दक्षिण भारत जाने की ज़रुरत नहीं है? यहां दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया में ही छात्रसंघ चुनाव नहीं होते हैं. बॉम्बे यूनिवर्सिटी में चुनाव बंद हैं. मेट्रो सिटीज़ के बहुत सारे कॉलेजों में भी इलेक्शन नहीं हो रहे हैं. छात्रसंघ को ख़त्म करने का एक संगठित प्रयास हुआ है इस देश में. उसका कारण यह है कि इस देश में विश्वविद्यालयों और शिक्षा के प्रति सरकार का जो रवैया है, छात्रसंघ उनके खिलाफ खड़ा होता है. यूनियन शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ है. लेकिन पिछले दो सालों में और आख़िरी कुछ महीनों में ख़ासकर, आप ऐसी जगहों पर विरोध प्रदर्शन देख रहे हैं जहां पहले नहीं देखा जा रहा था. वहां भी कई सारे सवाल उठ रहे हैं. बीफ बैन के खिलाफ़, मेस में नॉनवेज खाने की इजाज़त को लेकर सवाल उठ रहे हैं, आईआईटी मद्रास में अम्बेडकर पेरियार सर्किल को प्रतिबंधित करने पर सवाल उठ रहे हैं और सरकार की जो विचारधारा है – जिसमें आरएसएस पूरी तरह से काबिज़ है – उसको लेकर बहुत सारे सवाल उठ रहे हैं. अब आईआईटी जैसे संस्थान, जिनका छात्र राजनीति से बेहद कम लेना-देना था, वहां पर अब बात हो रही है. ये एक आशाजनक परिणाम है.
TCN: छात्र राजनीति में मुस्लिम लगभग अनुपस्थित हैं. बीते समय में वे थोड़ा आगे आए हैं, लेकिन फिर भी ये उतना ही है कि कम है. क्या वजह है?
उमर: हाँ, ये सच है. इसके पीछे एक सबसे बड़ा कारण यही है कि उच्च शिक्षाक्षेत्र में पढ़ाई करने वाले छात्र ही कम हैं. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट है. आपको नौकरियों में, कॉलेजों में या बड़ी जगहों पर मुसलमान नहीं मिलेंगे. इस देश में आपको सबसे अधिक मुसलमान जेलों में मिलेंगे. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को देखें तो पता चलता है कि कुछ-कुछ इलाकों में वे तो दलित और आदिवासियों से भी पिछड़े हुए हैं. प्राइमरी और सेकंडरी शिक्षा में भी बहुत मुस्लिम नहीं दिखते हैं. और यही सरकार का एजेंडा भी है. पिछले 20-25 सालों में सरकार ने यह कोशिश की है कि समाज का जो पिछड़ा हिस्सा है, उसे शिक्षा से दूर रखा जाए. और यह सरकार उसे और आक्रामकता के साथ यह कर रही है. अब वे शिक्षा से बाहर रहेंगे, वे छात्र ही नहीं रहेंगे तो हम कैसे मान लें कि वे छात्र राजनीति में आएंगे. इसके अलावा लिंगदोह कमेटी की रिपोर्ट देखिए. उसमें भी पूरी प्रणाली के साथ इसे बताया गया है कि कैसे समाज के पिछड़े हिस्से को छात्र राजनीति से दूर रखा जाए. क्योंकि दलित छात्र, मुस्लिम और आदिवासी छात्र यदि छात्र राजनीति में आएंगे तो वे अपनी कम्यूनिटी के खिलाफ चल रही साजिशों और अभियोगों के बारे में बात करेंगे. और जिस तरीके से हमारे देश में ब्राह्मणवादी हिन्दूवादी फाशीवाद बढ़ रहा है, वह चाहता नहीं कि पिछड़ा तबका अपनी समस्याओं के बारे में बात करे, इसलिए उन सवालों को ही दबाया जा रहा है. ये सारी कलेक्टिव वजहें हैं, जिनसे अल्पसंख्यकों की ही नहीं, आदिवासियों और दलितों की अनुपस्थिति पर बहस को आगे बढ़ाया जा सकता है.
TCN: उन्हें आगे लाने के लिए क्या करना होगा?
उमर: पहले तो एजेंडे को सीमित होने से बचाना होगा. पिछले दिनों से कई आन्दोलन चल रहे हैं. सेव जेएनयू, स्टैंड विद जेएनयू….हमें पहले तो ये साफ़ करना होगा कि हम बस जेएनयू को बचाने की लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं. हमारी लड़ाई जेएनयू और अन्य सभी संस्थानों के जनवादीकरण की है. चाहे वह जनवादीकरण एडमिशन पॉलिसी में हो, या निजीकरण के खिलाफ हो, चाहे भगवाकरण के खिलाफ हो…इन सभी चीज़ों के लिए लड़कर हम उन सभी तबकों और उनके मुद्दों को ज्यादा मुखरता के साथ सामने ला सकेंगे. जेएनयू में हमारी लड़ाई पिछड़े तबके को साथ जोड़ने और उन्हें साथ लेकर चलने के लिए रही है, और यही वजह है कि यह तबका हमारे साथ खड़ा होता है. वह जुड़ेगा तो उन सभी सवालों पर बात होगी, जिन पर कभी बात नहीं हुई. पॉलिटिकल और संस्थानिक स्पेस को और ज्यादा लोकतांत्रिक और जनवादी बनाना ही इसका एकमात्र इलाज है.
TCN: इस समय सबसे ज्यादा संदिग्ध और अस्पष्ट समाजवादी विचारधारा है. वे यूपी और बिहार में सत्ता में हैं. योगेन्द्र यादव ने समाजवादी पार्टी के बारे में कहा भी था कि उन्हें समाजवादी कहना समाजवाद को गाली देना है. इस किस्म के सोशलिज्म से अल्पसंख्यकों को क्या खतरा है?
उमर: ऐतिहासिक रूप से देखें तो कम्यूनिज़्म और सोशलिज्म, इन दोनों शब्दों का हमेशा गलत इस्तेमाल हुआ है. हिटलर ने भी खुद को सोशलिस्ट ही कहा था. अब मुलायम सिंह यादव की सरकार हो या लालू प्रसाद यादव की सरकार हो, वे इन शब्दों का इस्तेमाल तो करती हैं. लेकिन उनकी राजनीति इन शब्दों से बेहद परे है. नीतिश कुमार ने अमीरदास आयोग को, जिसने रणवीर सेना के हत्यारों को दोषी ठहराया था, सरकार में होने के बावजूद लागू नहीं किया. अलबत्ता उन्होंने उसे भंग कर दिया. इसी तरह मुज़फ्फरनगर में जो हुआ, उस समय समाजवादी पार्टी सरकार में थी. भाजपा ने किया तो किया लेकिन समाजवादी पार्टी और लोकल प्रशासन का जो गठबंधन था, उसका रोल भी सामने आया. जब मैं जेल में था, उस समय ‘द हिन्दू’ में बहुत अच्छी स्टोरी आई थी. मैं उसे पढ़ रहा था. उसमें एक-दो ब्यूरोक्रेट्स का ज़िक्र था, जिसमें लिखा था कि उन्होंने कैसे संगीत सोम और दूसरे नेताओं को जाने दिया था. समाजवादी पार्टी नहीं चाहती है कि कोई ऐसा मुद्दा बने, जिसका लाभ बीजेपी उठाए. लेकिन ये राजनीतिक नहीं, इन्साफ का मुद्दा है. चुनाव के नंबर गेम में इंसाफ और हक की बात हमेशा दरकिनार की गयी है. इसके साथ जो भारतीय ‘लोकतंत्र’ है, जो अपनेआप को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहता है, तथाकथित आज़ादी के 60-70 साल बाद भी यहां राजनीति और चुनाव में इंसाफ़ का मुद्दा कोई जगह ही नहीं रखता है. और सिर्फ सोशलिस्ट पार्टियां क्यों? जो कम्यूनिस्ट पार्टियां हैं, चाहे वह सीपीआई या सीपीएम या जो कोई भी हों, उनका भी रवैया कोई अच्छा नहीं रहा है. ये हमारे देश की संसदीय राजनीति का लॉजिक है जहां ज़रूरी सवालों को दरकिनार किया जाता है. कांग्रेस खुद को सेकुलर बोलती है. उनका क्या ट्रैक-रिकॉर्ड है सेकुलरिज्म को लेकर, ये हम सब जानते हैं. लिब्रहान कमीशन रिपोर्ट इतने सालों तक पड़ी रही, कभी उसे लागू नहीं किया गया. बीजेपी तो खुलेआम और ऐलानिया तौर पर अल्पसंख्यकों के खिलाफ है, लेकिन उसी दृश्य में ऐसे घड़ियाली आंसू बहाने वाले लोग भी हैं. उन्हें भी बेनकाब करना होगा. जितने लोग संघर्ष से जुड़ रहे हैं, उन्हें लेकर संघर्ष की एक एकता विकसित करनी होगी और ऐसी ताकतों से सतर्क रहना होगा.
TCN: आपने अभी कहा तथाकथित आज़ादी. उसे थोड़ा समझाइये.
उमर: अगर आज़ादी के इतने सालों बाद भी आपके समाज का बड़ा हिस्सा अभी दो वक़्त की रोटी के लिए संघर्ष कर रहा है, यदि इस देश के विस्थापित आदिवासियों की संख्या कुछ देशों की कुल जनसंख्या से भी ज्यादा है, यदि अभी भी अल्पसंख्यकों को इस बात का डर है कि उन्हें कभी भी मार दिया जाएगा या आतंकवादी बताकर जेलों में डाल दिया जाएगा, जब हमारे खनिज संसाधन लूटकर विदेशों में बेचे जा रहे हैं, वारेन एंडरसन को जब पूरे सरकारी समर्थन के साथ बाहर भेज दिया जाता है तो आप कैसी sovereignty की बात कर रहे हैं. संविधान जिस चीज़ का वादा करता है, चाहे वह सेकुलरिज्म हो, लोकतंत्र हो, बराबरी हो या sovereignty हो, हमारा पूरा तंत्र उसी वादे और संस्तुति के खिलाफ़ खड़ा है. तो हम जब तक उसे पा नहीं लेते या संविधान की मूल भावना को लोकतांत्रिक तरीके से मान नहीं लेते तब तक हम अपने को आज़ाद लोकतंत्र नहीं कह सकते हैं.
TCN: मौजूदा मानव संसाधन विकास मंत्रालय(HRD) को आप कैसे देख रहे हैं?
उमर: मुझे तो लगता है कि HRD मिनिस्ट्री में कम काम होता है, संघ की शाखा में ज्यादा काम हो रहा है. रोहित वेमुला के केस में स्मृति ईरानी ने जो हस्तक्षेप किया था, फेलोशिप हटाने का निर्णय, अम्बेडकर पेरियार स्टडी सर्किल को बैन करने का निर्णय हो…इन सभी चीज़ों को देखिए. आपको साफ़ लगेगा कि संघ के कार्यालय में फैसले लिए जा रहे हैं. मिनिस्ट्री की स्वायत्तता कुछ भी नहीं है.
TCN: मौजूदा HRD मिनिस्टर को आप कैसे देखते हैं? समर्थ या असमर्थ?
उमर: मैं उन्हें असमर्थ नहीं कहूँगा. वे उस काम को करने के बिलकुल योग्य हैं, जो उन्हें करने के लिए कहा जा रहा है. और उनकी योग्यता से बहुत फर्क नहीं पड़ने वाला है. उनकी जो राजनीतिक विचारधारा है, हमें उसको समझना होगा और उससे सतर्क रहना होगा. ऐसा नहीं है कि आप इनको हटाकर मुरली मनोहर जोशी या संघ के किसी बेहद जानकार आदमी को ले आएं तो बहुत अच्छा होगा. उस एजेंडे से सावधान रहने की ज़रुरत है.
TCN: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पिछले कुछ दिनों में अपने सुर बदले हैं. वह देख पा रहे हैं?
उमर: देखिए उनके सुर अपनेआप तो नहीं बदले हैं. यह देखने की बात है कि जिस दौरान उनके सुर बदले रहे हैं, उस दौरान क्या-क्या हुआ? उनके हरेक हथकंडे का जवाब उनको दिया गया है और वह भी छात्रों द्वारा दिया गया है. सुर बदलने का मतलब यह तो कतई नहीं है कि उनका एजेंडा बदला है. इसका मतलब यही है कि वे ये समझ पा रहे हैं कि ये तरीका नहीं चलेगा. हो सकता है वे किसी और तरीके की तलाश में जाएं. उनको मौक़ा मिलेगा, वे फिर यही करेंगे. उनको वो मौक़ा देना नहीं है.
TCN: भारत माता का कॉन्सेप्ट क्या है?
उमर: देखिए मुझे नहीं पता कि इसका कॉन्सेप्ट क्या है? सच कहूं तो मैं ऐसे किसी कॉन्सेप्ट में विश्वास भी नहीं करता. इसकी एक स्त्रीवादी आलोचना भी है कि भारत को माता बोलने के पीछे किस तरह का पितृसत्तात्मक समाज काम कर रहा है? संघ कहता है कि आप संघ से मत जुड़िए, किसी भी धर्म को मानिए लेकिन आपको भारत माता को तो मानना होगा क्योंकि देश की बात है. ये कोई eternal concept नहीं है. इसे बाद में लाया गया है. ‘हिन्दू हिन्दी हिन्दुस्तान/ इससे ही भारत उत्थान’ के कॉन्सेप्ट के साथ ही भारत माता का कॉन्सेप्ट आया. भारत माता का कोई सेकुलर इमेज भी नहीं है, वह पूरा हिन्दुत्ववादी इमेज है. अब भारत की दलित महिलाओं और मुस्लिम और ईसाई महिलाओं को आप इस छवि के साथ कैसे juxtapose करेंगे. ‘भारत माता की जय’ बोलने पर जोर दिलाने का मतलब है कि संघ औरत को माँ, बहन, बेटी या पत्नी के ही रोल में देखता है. उस औरत का कोई स्वतंत्र स्वरुप नहीं है. यदि आप इन रोल में नहीं फिट बैठ रही हैं तो आपको एक चरित्रहीन महिला की तरह देखा जाता है.
TCN: मीडिया को आप कहां देख रहे हैं?
उमर: एक बात पिछले दिनों उभर कर आई. लोग बोल रहे हैं कि जेएनयू को बहुत मीडिया अटेंशन मिला, हैदराबाद विश्वविद्यालय को नहीं मिला. इस दौरान वे जेएनयू को अटेंशन देकर वे जेएनयू पर कोई एहसान नहीं कर रहे थे. असल में वह अटेंशन हमको बदनाम करने के लिए मिल रहा था. और मीडिया में ही मतभेद के चलते मीडिया के एक बड़े हिस्से ने उस दौरान जेएनयू का साथ दिया. लेकिन वे अपने एजेंडे की वजह से साथ आए थे नहीं तो जेएनयू में आजतक कितने सारे आंदोलन हुए, किसी ने कोई साथ नहीं दिया. लोकतंत्र के जो खम्भे हैं, वे पूरी तरह से लोकतान्त्रिक मूल्यों से खोखले हो चुके हैं क्योंकि हमारे देश में लोकतांत्रिक मूल्य आर्थिक समीकरणों से मापे जाते हैं. मीडिया भी उनमें से एक है. एक नयी स्थापना के अन्दर आपको यदि मीडिया हाउस चलाना है तो आपको बहुत सारे पैसे चाहिए और ये पैसे सिर्फ़ कॉर्पोरेट से आ सकते हैं, और वही कॉरपोरेट राजनीतिक पार्टियों को चन्दा देते हैं. इस पूरे समीकरण के अधीन मीडिया बड़ी कंपनियों, बड़े पूंजीपतियों के साथ है और साथ ही साथ वह एक तरह से सरकार को भी चला रही है. अब पूरे रहस्य को देखने पर पता चलता है कि मीडिया कहां है? अरुंधति रॉय ने एक बहुत अच्छी बात बोली थी कि जो सेंसर मध्यकाल में भी लागू नहीं हो सका था, वैसा सेंसरशिप मुक्त बाज़ार ने लागू कर दिया है. क्योंकि आपके पास इतना पैसा ही नहीं संभव है कि आप उन सारे सवालों पर बोले और सुने जा सकें. लोगों के जो बुनियादी सवाल हैं, मीडिया उन पर कभी फोकस नहीं करता. उसका फोकस बड़े मुद्दों पर ही होता है. अब मेक इन इंडिया के कार्यक्रम में आग लग जाती है, वह मीडिया की रूचि का विषय है. लेकिन उसी समय बुंदेलखंड और महाराष्ट्र में सूखे की वजह से लोगों की मौत हो रही है, यह मीडिया का विषय नहीं है. ऐसे समय में मीडिया का रोल क्या है, वह देखना चाहिए. अरुंधति रॉय और नॉम चोमस्की जैसे लोगों ने इस बारे में बहुत अच्छे से लिखा है और उसे पढ़ना चाहिए. सरकार की दमनकारी नीतियों के पक्ष में मीडिया लोगों में सहमति पैदा करता है. एक और उदाहरण दूंगा कि जब 10 फरवरी को मीडिया में जेएनयू मुद्दा उठा तो मीडिया चैनलों ने यह कहना शुरू कर दिया कि आप हम जैसे टैक्स-पेयर के पैसों से पढ़ रहे हैं, आपको हमारी वजह से सब्सिडी मिल रही है. अब गहराई से देखिए तो सब्सिडी सरकार ख़त्म कर रही है. फीस बढ़ रही है. हेल्थकेयर के दामों में भी बढ़ोतरी हुई है, फेलोशिप ख़त्म हो रही है. इससे होगा क्या? पहली चोट तो समाज के वंचित तबके पर पड़ेगी कि वह पढ़ाई और इन सुविधाओं का लाभ उठा ही नहीं पाएगा. फेलोशिप नहीं मिलेगी तो कोई कैसे शोध करेगा. इस चीज़ के खिलाफ जेएनयू खड़ा था. इस मौके पर उन्होंने एक तीर से दो निशाने मारने चाहे. पहला तो विचारधारा और छात्रों पर जो सीधी चोट थी, वह तो थी ही. साथ ही उन्होंने इस बात को फैलाना शुरू किया कि हमारे पैसों से पढने वाले लोग राष्ट्रविरोधी गतिविधियां कर रहे हैं. मीडिया ने इस बात को बहुत व्यापक तरीके से फैला दिया कि हाँ, जेएनयू में ये सब हो रहा है और उसका पैसा जनता दे रही है, तो उसका विरोध करो और बंद कर दो.