अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
राजस्थान के नोखा शहर में एक प्रतिभाशाली लड़की को तंत्र की अमानवीयता के चलते अपनी जान से हाथ धोना पड़ा. डेल्टा मेघवाल, इस लड़की की क़ाबिलियत का लोहा माना गया था. जिस कॉलेज में पढ़कर डेल्टा मेघवाल ज़िंदगी को लेकर एक सुनहरा ख्व़ाब बुन रही थी, वहीं उसके सारे सपने इस क़दर मारे गए कि उन्हें जीने वाली डेल्टा भी नहीं बची. आज़ाद देश में यह भी क्यों न एक तथ्य हो कि सपने जीने वाली ये लड़की दलित थी और शायद दलित होने का ही मूल्य चुका रही थी.
डेल्टा मेघवाल की कहानी एक आज़ाद देश और उससे जुड़े विचारों के प्रति खौफज़दा करती है और सोचने पर मजबूर करती है कि भारत जैसे आज़ाद लोकतंत्र में एक दलित लड़की समाज में कितने संघर्षों और प्रतिरोधों को झेलते हुए अपना मक़ाम बनाती है. डेल्टा मेघवाल इस अदम्य कोशिश की एक मिसाल थी.
राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने भी डेल्टा मेघवाल के प्रतिभा का लोहा माना था और उसकी बनाई पेन्टिंग उन्होंने अपने दफ्तर में लगाई थी. अब राजस्थान की वही मुख्यमंत्री डेल्टा के हत्यारों और दरिंदों के आगे बेबस व लाचार नज़र आ रही हैं. आलम यह है कि डेल्टा मेघवाल का यह मामला नोखा की गलियों से निकल कर राजनीति के गलियारों में पहुंच चुका है, लेकिन सरकार को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता दिख रहा है. यह विडम्बना ही है कि डेल्टा के मां-बाप अपनी बच्ची की मौत को एक साज़िश का हिस्सा बता रहे हैं, लेकिन प्रशासन इस पूरे मामले को रफ़ा-दफ़ा करने में पूरी शिद्दत से जुटा हुआ है.
क्या यह वक़्त दलित छात्रों के उत्पीड़न का एक सिलसिला बन चुका है? पहले रोहिथ वेमुला और अब डेल्टा मेघवाल? क्या डेल्टा मेघवाल की हालत वही होगी जो रोहिथ वेमुला की हुई? यानी दोनों ही सिर्फ़ राजनीति का झुनझुना बनकर रह जाएंगे और इंसाफ़ इनका मुंह चिढ़ाएगा? ये कुछ बड़े सवाल हैं.
डेल्टा मेघवाल की मौत पर राजनीति करने को लेकर सभी पक्ष बेकार हैं, उसे इंसाफ़ दिलाने की मुहिम छेड़ने का ख़्याल किसी को भी नहीं है. कड़वा सच तो यही है कि यह मुद्दा जितना गरमाएगा, तमाम राजनीतिक दल और सामाजिक संगठन बहती गंगा में हाथ धोने की उतनी ज्यादा कोशिश करेंगे. सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि डेल्टा की इस दर्दनाक कहानी का असर देश की तमाम दलित प्रतिभाओं पर किस रूप में पड़ेगा, जो अपनी आंखों में चमकदार आसमान की सपने बुनती रहती हैं.
दरअसल, डेल्टा मेघवाल के बहाने समाज में एक नयी बहस ने जन्म लिया है. हालांकि बहस बेहद ही पुरानी है मगर तेवर नया है. दलितों के साथ होने वाला अत्याचार आज का नहीं, सदियों पुराना है. लेकिन 21वीं शताब्दी में जब इन्हीं दलितों के वोट पर सरकारें बनती और बिगड़ती हैं, उनकी ये दुर्दशा हैरान करने वाली है. जहां रोहित वेमुला की मृत्यु ने दलित शिक्षा के क्षेत्र में विमर्श को जन्म दिया, वहीँ डेल्टा मेघवाल ने दलित प्रतिभा के क्षेत्र में. लेकिन विमर्श होने और उसके सफल होने के लिए एक दलित की मौत ही एक रास्ता है.
जिस कड़वे सच को सुनहरे वादों और आसमानी दावों की चाशनी की चादर तले दफ़न करके रखा जाता था, डेल्टा की मौत ने एकाएक उस चादर को उधेड़ कर रख दिया है. एक नंगा सच अब समाज की आंखों के सामने है…
‘नोखा’ सिर्फ़ राजस्थान में नहीं है. ‘नोखा’ इस मुल्क के हर ज़िले के हर क़स्बे के हर गांव में मौजूद है. हमारे घरों में मौजूद है. हमारे परिवार में मौजूद है. हमारी सोच में मौजूद है. ऐसा नहीं है कि हम इससे निजात नहीं पा सकते, दिक्कत इस बात की है कि हम इससे निजात पाना ही नहीं चाहते. बड़ी-बड़ी बौद्धिक बहसें और सेमिनार, एयरकंडीशन कमरों की दीवारों में क़ैद होकर रह जाते हैं. बड़ी-बड़ी योजनाएं व बड़े-बड़े कार्यक्रम सरकारी कागज़ों पर दम तोड़ देते हैं. बड़ी से बड़ी मुहिम का हश्र सिर्फ़ एनजीओ के नाम पर पैसा इकट्ठा करने और दलितों के ठेके पर मलाईदार विदेशी यात्रा करने तक सिमट कर रह जाता है.
सवाल यह है कि ज़मीन पर कौन जा रहा है? सवाल यह है कि इनके दर्द को कौन जी रहा है? यह दर्द पूंजीवाद और भूमंडलीकरण की चकाचौंध भरी दुनिया के पैरों तले रोज़ ही कुचला जा रहा है. अंतिम सांसे गिन रहा है, मगर इसकी सुनवाई करने की बात तो दूर, उसके बारे में सोचने की फुर्सत भी किसी को नहीं है. हमारे संवेदनहीन होने की गिरावट कितनी है? हम आत्महीनता के कितने गहरे गर्त में जाने का इंतज़ार कर रहे हैं? क्या विमर्श का स्वरुप किसी की मृत्यु के बगैर तय नहीं हो सकता? अम्बेडकर के जन्मदिन पर यह चिंतन सबसे बड़ा होना चाहिए कि कैसे उत्पीड़न के नाम पर कोई और रोहित वेमुला या डेल्टा मेघवाल शिकार न बने. तंत्र बेहद व्यापक स्तर पर सवर्णवादी और ब्राह्मणवादी होता जा रहा है. उसे रोकने पर किसी और को नहीं, हमें और आपको विचार करना होगा.
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