रोहित वेमुला के नाम मार डाले गए एक होनहार का ख़त

By ए मिरसाब, TwoCircles.net

देश में हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की मृत्यु के बाद एक शोक और आक्रोश का मिश्रित माहौल है. विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा निकाले जाने के बाद उससे पैदा हुई परिस्थितियों के चलते 26 साल एक रोहित को आत्मह्त्या करनी पड़ी.


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लेकिन यह कोई पहली घटना नहीं थी जिसमें शिक्षा और सामाजिकता के पिछड़े तबके से ताल्लुक रखने वाला कोई होनहार इस देश और युवाओं को छोड़कर चला गया. ऐसी घटनाओं में देश के अग्रणी समाज का नाहक दखल और उसके खौफ़नाक परिणाम मुख्य कारण होते हैं.

Rohith Vemula

पुणे के आईटी कंपनी में काम करने वाले मोहसिन सादिक़ शेख़ की ह्त्या भी ऐसी ही एक घटना थी. कट्टरपंथी हिन्दूवादी संगठनों द्वारा मोहसिन सादिक़ शेख़ की हत्या के बाद लगभग ऐसे ही फलसफे सामने आए जैसा रोहित वेमुला की (आत्म)ह्त्या के बाद.

2 जून 2014 को सोलापुर के 24 वर्षीय मोहसिन सादिक़ शेख़ को कट्टरपंथी संगठन हिन्दू राष्ट्र सेना ने उस वक़्त मार दिया गया जब वह रात नौ बजे मस्जिद से नमाज़ अता करने के बाद वापिस लेत रहा था. मोहसिन की ह्त्या के बारे में यह तथ्य प्रचलित हैं कि हिन्दू राष्ट्र सेना के सदस्यों ने मोहसिन के चेहरे पर दाढ़ी देखने के बाद उसे मारने का निर्णय लिया.

अब मोहसिन हम सबके बीच नहीं है. मोहसिन के पास यह मौक़ा भी नहीं था कि वह अपना अंतिम पत्र लिख सके. कि वह ये न लिख सका कि ‘आखिर में बस यह ख़त लिख पा रहा हूं.’ इसे एक बहाने के तरह लेते हुए मैंने जो कुछ लिखा है, वह ‘रोहित वेमुला के नाम मोहसिन सादिक़ शेख़ का ख़त’ है.

प्यारे रोहित,

मुझे ख़ासा गम है कि तुमने इस रास्ते को चुना. लेकिन मुझे कहीं न कहीं यह लगता है कि तुम अपनी मौत के बाद उस उपलब्धि के मिलने पर संतुष्ट हो, जो शायद तुम्हें जीते-जी न मिलती. तुम्हारे जाने के बाद समाज के सभी धर्मों और सभी वर्गों में भेदभाव और सत्तात्मक वर्णव्यवस्था के खिलाफ आन्दोलन हो रहे हैं.

मुझे भी विज्ञान, प्रकृति और तारों-ग्रहों-नक्षत्रों से प्यार था, ठीक तुम्हारी तरह. लेकिन मुझ पर मेरे परिवार की जिम्मेदारियां भी थीं. मैंने अपने सपनों को अपने परिवार से पीछे रखा. ऐसा परिवार, जिसमें तमाम रोगों से जूझता एक बाप, एक बूढ़ी मां और सपने देखने वाला एक छोटा भाई था. उनके जीवन में कुछ बेहतर हो सके, वे अच्छे से जी सकें, यही मेरे जीवन का लक्ष्य था. लेकिन सच कह रहा हूं कि मुझे नहीं पता था कि इस समाज में ऐसे लोग भी हैं जिनमें लोगों के लिए नफ़रत भरी है और उस नफ़रत के तहत वे मुझ जैसे लोगों का खून भी बहा सकते हैं.

इंसान के अस्तित्त्व के बारे में तुमने लिखा था कि वह गिरकर फौरी पहचान और संभावनाओं तक सिमटी रह गयी है. तुम्हारा यह लिखना 18 महीनों पहले ही सही साबित हो गया था जब मुझे कट्टरपंथियों ने सिर्फ़ एक दाढ़ी से खफ़ा होकर मार दिया था. पीटे जाने और जान से मार दिए जाने तक तो मुझे पता ही नहीं था कि मेरी गलती क्या थी?

इसे मेरा दुर्भाग्य ही कहेंगे कि मेरी मौत के बाद देश में कोई भी प्रदर्शन, धरना या अनशन नहीं हुए. बहसें भी ज्यादा नहीं हुईं. यदि यह सब हुआ होता तो शायद हैदराबाद विश्वविद्यालय में ऐसे माहौल न पनपे होते और तुम्हें भी खुद को ख़त्म कर देने की ज़रुरत नहीं पड़ी होती.

तुम्हें डर था कि आखिरी रास्ता तय करने के बाद लोग तुम्हें डरपोक और कायर कहेंगे. लेकिन मेरा भरोसा करना कि लोगों ने मुझे उस वक़्त बहादुर या निडर भी नहीं कहा था जब आस्था के लिए रखी गयी दाढ़ी के चलते मैं मार दिया गया.

तुमने एक ख़त लिखा. तुम्हारी मौत की बाद भी वह ख़त पूरे भूगोल में गूंज रहा है, उसके कई संस्करण लोग पढ़-सुन रहे हैं. लेकिन मरने से पहले मैं अपने परिवार को अपने एटीएम का पिन तक नहीं बता सका. यह भी नहीं कि मैंने किस-किससे पैसे उधार लिए हैं?

तुम्हारी मौत के पांच दिनों बाद जब प्रधानमंत्री ने तुम्हारी माँ के लिए सहानुभूति प्रकट की तो तुम्हारी घटना को एक भरमाने वाली तवज्जो मिली. लेकिन यह कचोटता है कि जब मेरी मौत हुई तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चुप थे. ऐसे चुप जैसे मेरी कोई मां ही न हो, ऐसे चुप जैसे मैं भारत का नागरिक ही न था.

ग़नीमत है कि तुम्हारे मरने के बाद आंध्र प्रदेश की सरकार ने तुम्हारी माँ और भाई को नौकरी देने का वादा किया है. लेकिन मेरे बाद चीज़ें उतनी अच्छी नहीं रहीं. मेरे बाद महाराष्ट्र सरकार पत्थर के बुत में तब्दील हो गयी. पृथ्वीराज चव्हाण द्वारा मेरे भाई को नौकरी देने का किया गया वादा भी नकार में तब्दील हो गया.

तुम्हारा ख़त पढ़ने के बाद मैं रो रहा हूं.

मुझे यह मौक़ा ही नहीं मिला कि मैं अपने परिवार से कह सकूं कि मेरे जाने के बाद सरकार से मिलने वाली किसी भी सहायता को स्वीकार मत करना और अपनी गरिमा बनाए रखना.

मेरा यह मानना है, बल्कि मैं ऐसी ख्वाहिश भी रखता हूं कि तुम्हारा त्याग हमारे समाज को एक चेतना से भरे. ऐसी चेतना, जिसके आगोश में कोई भी होनहार अपना जीवन न गँवाए. तुम्हें हमेशा विजेता की तरह देखा जाए न कि किसी शिकार की तरह.

मैं अपने मरने से पहले तो नहीं कर पाया लेकिन अब इस ख़त को पढने वाले लोगों से अपील करता हूं कि वे मेरे परिवार के साथ खड़े हों. वे मेरे परिवार की मदद करें ताकि रोजाना मेरी मौत का गम उन्हें अंधेरे की ओर न ले जाए.

मैं उनसे यह भी कहता हूं कि वे तुम्हारे व्यक्तित्व और तुम्हारे ख़त को सिर्फ किसी दोषी को सजा दिलवाने के लिए इस्तेमाल न करें. यह जनचेतना का आधार बने. यह एक उजाला बने जिसमें यह देखा जा सके कि मैं और तुम समाज के किसी दबाव या दमन के अंधेरे में नहीं मरे.

तुम्हारा,
मोहसिन सादिक़ शेख़

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