सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net @siddhantmt
कश्मीर में चल रही हालिया समस्याओं के बीच एक बात तो साफ़ हो गयी है कि कश्मीर और बाकी के भारत में एक बहुत बड़ा अंतर पसरा हुआ. बाक़ी का भारत, जो धीरे-धीरे राष्ट्रवादी होने के उन्माद में डूबता जा रहा है, कश्मीर को अपना मानता तो है, लेकिन कश्मीरी लोगों के प्रति शायद उसके ज़ेहन में उतना प्रेम नहीं है. प्रेम के उलट कहें तो कश्मीरी लोगों के प्रति उसके मन में द्वेष और गुस्सा भरा हुआ है.
एक लम्बे समय का इतिहास देखें तो यह बात कहना आसान हो जाता है कि कश्मीर भारत के लिए हमेशा से भूखंड रहा है, ज़मीन का महज़ एक टुकड़ा.
घाटी में 8 जुलाई को बुरहान वानी की सुरक्षा बलों के हाथों मौत हुई. ज़ाहिर है कि बुरहान हिजबुल का कमांडर था, जिसने महज़ 15 साल की उम्र में बन्दूक उठा ली थी. यह भी ज़ाहिर है कि बुरहान 22 साल की उम्र में मारा गया, वह भी तब जब उसके हाथ में बन्दूक नहीं थी. बुरहान ने कभी अपनी पहचान नहीं छिपायी. उसने कभी झूठे नामों का इस्तेमाल नहीं किया. चेहरे पर कपड़ा नहीं बांधा. वर्दी पहने हाथ में बंदूक लेकर वह सोशल मीडिया पर खुद की कट्टर अलगाववादी तस्वीर को शौक से साझा किया करता था. एक नौजवान लड़के को बन्दूक के साथ देखकर कश्मीर के नौजवान भी भौचक्के रह जाते थे. बुरहान वानी ने कश्मीर की आज़ादी के लिए जो रास्ता चुना था, उससे कश्मीर तो आज़ाद नहीं हो सका है लेकिन बुरहान वानी की मौत के बाद उठी अस्थिरता में कश्मीर के उन हिस्सों में भी आज़ादी के नारे लगने शुरू हो गए हैं, जो हमेशा से शांत थे.
चार दिनों से कश्मीर में जो कुछ भी घट रहा है, वह हमारी और आपकी कल्पना से भी बाहर है. हमारी और आपकी कल्पना में बिना मोबाइल कनेक्शन, बिना इंटरनेट, बिना टीवी, बिना अखबार और बिना खबरों के जीवन का चित्र शामिल नहीं है. हम घरों से बाहर निकल सकते हैं. पूजा कर सकते हैं, नमाज़ पढ़ सकते हैं. चौराहे से सब्जी-फल खरीद सकते हैं. दुकानों पर जाकर खाने-पीने की और रोज़ाना की ज़रूरी चीज़ें खरीद सकते हैं. हम और आप गुस्सा होकर मोबाइल कंपनी के कस्टमर केयर में फोन लगा सकते हैं, और एग्जीक्यूटिव से लड़ सकते हैं और उसे गालियां बक सकते हैं कि आपके पैसे बेवजह काट लिए गए, या आपका इन्टरनेट कुछ घंटों से नहीं चल रहा है. आज रविवार है. कल शनिवार था. कल बहुत सारे लोग अपने दोस्तों-परिवारों-प्रेमिकाओं के साथ घूमने गए होंगे. किस्म-किस्म के चेहरे बनाकर सेल्फी ले रहे होंगे. कुछ ने रेस्तरां में खाना खाया होगा. कुछ ने शराब पी होगी. कुछ वही सब आज करेंगे. अपने समाज के बारे में हमारी कल्पना यही है. हमारे और आपके लिए मुसीबत का सबसे बड़ा बयान यही है कि तीन दिनों से बारिश हो रही है और गली या कॉलोनी के मुहाने पर घुटने भर पानी लगा हुआ है. कपड़े नहीं सूख रहे हैं. बिजली की आपूर्ति बेहद कम है. या कुछ चीज़ें महंगी हो गयी हैं. रोज़ की ज़िन्दगी की मुसीबतों को गिनें तो हम यहीं तक सिमटे हुए हैं.
पूरे कश्मीर में पिछले हफ्ते भर में लगभग 50 लोग मर गए हैं. हज़ार से ऊपर लोग घायल हो गए हैं. हाँ, वही लोग हो सुरक्षाबलों पर पत्थर फेंक रहे थे. यह हमारे और आपके जजमेंट की सीमा है. क्यों न हो? हम पर कोई पत्थर चलाएगा तो चुप बैठने का क्या मतलब? पत्थर के जवाब में गोली तो चलाएंगे ही. भले ही आप इसे ‘स्वच्छता अभियान’ कह लीजिए. हमारी कल्पना में पत्थर चलाने के कारण नहीं शामिल हैं. हमारी कल्पना में पत्थर के जवाब में गोली चलाने वालों के कारनामे नहीं शामिल हैं. अव्वल तो हम जानते ही नहीं कि कश्मीर की असल समस्या क्या है? क्यों इतनी अस्थिरता है? लेकिन हम इतना जानते हैं और कहते हैं और वाट्सऐप पर लिखते फिरते हैं कि कश्मीरियों से बड़ा ह**ज़ादा कोई नहीं है. साले जिस देश का खाते हैं, जिस देश में रहते हैं, उसी को गाली देते हैं. यक़ीन कीजिए, हमारी कल्पना में पचास निर्दोष लोग नहीं शामिल हैं, जो एक हफ्ते में पुलिस और आर्मी की गोलियों से मार दिए गए हैं. यह भी यकीन कीजिए कि हम उन्हें निर्दोष क्यों कह रहे हैं? हम उन्हें आतंकवादी क्यों नहीं कह रहे हैं? हम क्यों नहीं बन्दूक के बजाय पत्थर चलाने वाले नागरिकों को ‘नागरिक’ क्यों नहीं कह रहे हैं? हमें यह कहने में क्यों आफ़त है कि वे हमारे देश के नागरिक हैं, जैसे हम हैं.
अफ्स्पा एक मुसीबत है. हमारी और आपकी कल्पना में अफ्स्पा शामिल नहीं है. यदि शामिल होता तो हम समझ पाते कि उत्तर-पूर्वी राज्यों के लोगों को बाकी के भारत में ‘चाइनीज़’ क्यों समझा जाता है और कश्मीरियों को बाकी के भारत में ‘पाकिस्तानी’ क्यों? लेकिन कम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकलकर और फेसबुक ट्विटर पर गालियां टिपटिपाती उंगलियों को आराम देकर हकीक़त पता करने का जिम्मा हम क्यों उठाएं? हम क्यों पार्टी पॉलिटिक्स से ऊपर उठें और ज़मीन की सचाई से सामना करें? नहीं करना हमें. ये हमारी कल्पना में शामिल नहीं है. ये हमारे प्रेजुडिस में भी शामिल नहीं है.
कश्मीर में केबल कनेक्शन बंद है. फोन बंद हैं. मोबाइल बंद है. इंटरनेट बंद है. ब्रॉडबैंड बंद है. अखबार बंद हैं. अखबार की छापेखाने बंद हैं. छापेखाने के कर्मचारी गिरफ्तारी में हैं. हमने और आपने अपने शहर में इन सभी चीज़ों के बंद होने के बारे में कभी नहीं सोचा. हम इसकी कल्पना ही नहीं कर सकते. कश्मीर में बंद हुआ, ठीक है. सब देशद्रोही हैं. अरे! कैसे देशद्रोही हैं साहब? सभी देशद्रोही हैं? रोज़ अखबार पढ़ने वाला और पढ़ाने वाला देशद्रोही कैसे है? मोबाइल चलाने वाला कैसे देशद्रोही है? इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाला कैसे देशद्रोही है? छापेखाने का फोरमैन कैसे देशद्रोही है? अपने अधिकारों की बात करने वाला कैसे देशद्रोही है? जान लीजिए, सरकार के खिलाफ बात करना कोई देशद्रोह नहीं है. हमने और आपने भी सरकार के खिलाफ़ बातें की हैं. हम क्यों नहीं देशद्रोही हुए? कश्मीरी कैसे हो गए? क्यों ज़ी न्यूज़ के सुधीर चौधरी, टाइम्स नाउ के अर्नम गोस्वामी और आज तक जैसे चैनल देशद्रोही नहीं है? वे भी तो देश के नागरिकों के खिलाफ बोलते हैं. संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ़ बोलते हैं. अव्वल तो वे अदालती फैसलों के खिलाफ बोलते हैं. उन्हें क्यों न देशद्रोहियों की कतार में खड़ा किया जाए, कम से कम वे जनाधिकारों की बात तो नहीं ही करते हैं, इतना तय है.
हमने पेलेट बंदूकों से होने वाले चेचक जैसे घाव नहीं देखे. हमने पेलेट बंदूकों से अपनी आंखें नहीं खोयीं. अव्वल तो हममें से कई ने बंदूकें ही नहीं देखीं. खुद पर तनी हुई सुर्ख बंदूकें.
कश्मीर की समस्या अपने वजूद में बहुत बड़ी है. विस्थापन की भी और हिंसा की भी. इतना बड़ा विस्थापन और इतनी बड़ी हिंसा हम लोगों ने नहीं देखी है. यह हमारी कल्पना में ही नहीं है. हमारे प्रदेश में कोई दंगा होता है तो हम उसे वाट्सऐप से और भड़काते हैं. उसे समझने की ज़रुरत हमारी कल्पना में नहीं है. कश्मीर को ज़मीन के टुकड़े की तरह देखना बंद करना होगा. जब हलक से ‘कश्मीर’ शब्द निकले तो वहां के नागरिक हमारे ज़ेहन में आने चाहिए. वही नागरिक जो ट्रॉलियों और रिक्शों पर हमारी गलियों में घूम-घूमकर कालीन और शॉल बेचा करते हैं. यदि हम अपनी कल्पना का विस्तार न कर सके तो यकीन मानिए, हम कश्मीर के तो क्या, अपने अधिकारों से बेहद जल्द वंचित हो जाएंगे.