आसिफ इकबाल
मुस्लिम जमातों और नेताओं की ओर से यह बात बहुत पहले से कही जाती रही है कि आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों की गिरफ्तारियों के आधार सही नहीं हैं. बड़ी संख्या में मुस्लिम युवा आतंकवाद के नाम पर गिरफ्त में हैं लेकिन उनमें से अधिकांश ऐसे है जो महज़ कयासों के आधार पर गिरफ्तार किए गए हैं. उनके खिलाफ सबूत और साक्ष्य की कमी पाई जाती है.
हमारे सामने हाल के ही उदाहरण मौजूद हैं. बाबरी मस्जिद ब्लास्ट मामले में आरोपी नसीरुद्दीन अहमद ने 23 साल जयपुर जेल में काटे और फिर उन्हें बरी कर दिया गया. मोहम्मद आमिर का भी कुछ ऐसा ही मामला है. 14 साल जेल में काटने के बाद उनके ऊपर लगे 19 में से 17 में उन्हें निर्दोष पाया गया. आमिर को दिल्ली, रोहतक, पानीपत और गाजियाबाद में करीब 10 महीनों के अंतर से अलग-अलग जगहों पर 20 कम नुकसान पहुंचाने वाले बम प्लांट करने के आरोप में जेल में रखा गया था.
केंद्र सरकार के कानून मंत्री सदानंद गौड़ा ने नरेंद्र मोदी सरकार के दो साल पूरे होने का अलीगढ़ में जश्न मनाते हुए आयोजित ‘विकास पर्व’ में कहा था, ‘आतंक के झूठे आरोपों के आधार पर मुस्लिम युवाओं को गिरफ्तार करना चिंता का विषय है. और हम इसमें बदलाव लाने के बारे में सोच रहे है. लॉ कमिशन इन मामलों की कानूनी प्रक्रिया में बदलाव लाने के लिए रिपोर्ट तैयार कर रहा है. सुप्रीम कोर्ट के जज के नेतृत्व में यह रिपोर्ट तैयार की जा रही है. इसके साथ ही कई कानून विशेषज्ञ भी रिपोर्ट को बनाने में मदद कर रहे हैं.’
इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि न केवल मुसलमान बल्कि देश की जनता और सरकार में मौजूद लोग भी इस तथ्य से अच्छी तरह परिचित हैं, फिर भी जो कदम बहुत पहले उठाया जाना था वह अभी तक केवल विचार तक ही सीमित है. कानून मंत्री ने यह बात उस वक्त की जब उनसे मुस्लिम युवाओं पर आतंक के झूठे आरोप लगाए जाने और उनकी रिहाई के बाद उनके सामने आने वाली समस्याओं के बारे में सवाल किया गया. इससे पहले पिछले सप्ताह गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी यह मुद्दा उठाया था. उन्होंने सरकार ने आतंक संबंधित मामलों को लेकर अपने दृष्टिकोण को बदला है. साथ ही उन्होंने पुलिस को सलाह दी थी कि इन मामलों से डील करते वक़्त विवेक से काम किया जाना चाहिए.
कानून मंत्री और गृहमंत्री की बात बहुत अच्छी है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए. फिर भी मुसलमानों को लेकर भाजपा और आरएसएस की जो नीतियां अब तक सामने आती रही हैं, उससे नहीं लगता कि वह इस मामले में गंभीर हैं और कोई बड़ा कदम उठा सकेंगे. लेकिन समय से पहले किसी बात को नकारना भी सही नहीं है, इसलिए मान लेते हैं कि जो कहा गया है वह जल्द ही पूरा भी किया जाएगा.
दूसरी ओर यह खबर भी आजकल खूब आम हो रही है कि भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह किसी अतिपिछड़े के घर खाना खा रहे हैं. वह ऐसा क्यों कर रहे हैं? यह पूछने वाला तो कोई नहीं है. हां यह जरूर कहा जा रहा है कि जिस तरह कांग्रेस के राहुल गांधी दलित के घर खाना खाने पहुंच जाते हैं वैसे ही अमित शाह क्यों नहीं पहुँच सकते? और वैसे भी इस मामले को ज़्यादा गंभीरता से लेने की ज़रूरत नहीं है. इस तरह के दृश्य तो आमतौर पर उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनाव से पहले नज़र ही आते रहे हैं. मज़ाक़ उड़ने वालों ने राहुल गांधी के दलित के घर खान खाने का उस वक़्त भी मज़ाक़ उड़ाया और इस वक़्त भी उड़ाएंगे. लेकिन भाजपा को ख़ुद से एक सवाल करना चाहिए कि वह राहुल गांधी के एक असफल आइडिया की नक़ल क्यों करना चाहती है?
पत्रकार रवीश कुमार अपने एक लेख ‘दोष समरथ का और समरस भोजन दलित के घर?’ में लिखते हैं कि वैसे भाजपा की तरफ से मीडिया को भेजे गए आमंत्रण पत्र में गिरिजाबिन्द को दलित बताया गया है जबकि बिन्द अतिपिछड़े हैं. बनारस से उनके सहयोगी अजय सिंह ने उन्हें बताया कि बिन्द और राजभर कई साल से अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने की मांग कर रहे हैं. बिन्द मत्स्य पालन से जुड़े होते हैं और खानपान में मांसाहारी होते हैं. पत्रिका डॉट कॉम के डॉ अजय कृष्ण चतुर्वेदी ने जब प्रदेश अध्यक्ष मौर्या जी से पूछा तो उन्होंने भी स्वीकार किया कि गिरिजाबिन्द दलित नहीं है. रवीश के सहयोगी अजय सिंह ने बताया कि गिरिजाबिन्द पहले अपना दल में थे. फिर समाजवादी पार्टी से जुड़े और अब भाजपा से जुड़े हैं लेकिन भाजपा के नेता कहते हैं कि वे पार्टी के समर्थक हैं.
दूसरी तरफ यह भी हक़ीक़त है कि भारत में दलितों को मंदिरों में पूजा पाठ करने तक की इजाज़त नहीं है, उनके मंदिर अलग होते हैं और दूसरी जातियों के मंदिर अलग. अमित शाह और राहुल गांधी से यह सवाल भी जरूर पूछना चाहिए कि दलितों को देश के तमाम मंदिरों में दाखले की इजाज़त कब और कैसे मिलेगी और इस संबंध में पार्टी और उनका क्या नज़रिया है? सही बात यही है की अमित शाह हों या राहुल गांधी, इनका या इन जैसे दूसरे नेताओं का किसी दलित के घर खाना खा लेना कोई ख़ास बात नहीं है. ये राजनीतिक लोग हैं और इनके हर कर्म के पीछे राजनीति होती है. यह बात इसलिए भी कही जा रही है कि एक तरफ मंदिर में पुजारी दलितों के आने पर रोक लगाते हैं तो दूसरी ओर दलित मंदिर प्रवेश कर इस परंपरा को तोड़ते हैं. लेकिन इस सब में उत्तराखंड से राज्यसभा सांसद तरुण विजय पर देहरादून के पास चकराता में हमला होता है और जमकर पिटाई होती है. हमले और पिटाई की वजह सिर्फ यह थी कि वे देहरादून के पोखरी क्षेत्र के एक प्राचीन शिव मंदिर में दलितों के एक समूह को प्रवेश कराने के लिए साथ गए थे.
भारत के दलित और मुसलमान जिन समस्याओं का सामना कर रहे हैं और समाज जिस तरह उनकी अनदेखी करता आया है, इन परिस्थितियों में समाधान के दो चरण सामने आते हैं. एक, समाधान के लिए सामान्य मुद्दों पर उन्हें एकजुट होना चाहिए और दो, साहस और उत्साह के साथ अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाते रहना चाहिए. क्योंकि अत्याचार से मुक्ति चुप्पी के रूप में कभी नहीं प्राप्त हो सकती. ख़ामोशी मृत्यु से ताबीर की जाती है. ज़िंदा क़ौमों व समूहों की पहचान है कि वह कानून का पास व लिहाज़ रखते हुए और शांति के साथ न्याय व्यवस्था की स्थापना के लिए हमेशा सक्रिय रहते हैं. वहीं यह बात भी रखनी चाहिए कि अगर अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों की पहचान मिट गई या मिटा दी गई तो फिर हर तरफ अत्याचार का बोलबाला होगा. इन परिस्थितियों में न देश में शांति स्थापित होगी, न विकास की मंज़िलें तय होंगी, न देश आगे बढ़ेगा और न ही दुनिया में हमारी कोई हैसियत होगी.
[आसिफ़ स्वतंत्र पत्रकार हैं. दिल्ली में रहते हैं. समय-समय पर राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर लिखते रहते हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.]