राम पुनियानी
क्या एक ही देश में दो अलग-अलग न्याय प्रणालियां हो सकती हैं? यह प्रश्न मेरे मन में उन आतंकी हमलों, जिनमें आरोपी हिंदू थे, से संबंधित मामलों में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) के पलटी खा जाने से उपजा. एनआईए ने 13 मई, 2016 को अदालत में एक नया आरोप-पत्र दाखिल कर प्रज्ञा सिंह ठाकुर को सभी आरोपों से मुक्त कर दिया और कर्नल पुरोहित व अन्यों पर लगे गंभीर आरोप हटा लिए.
एनआईए का कहना है कि इन मामलों में हेमंत करकरे द्वारा की गई जांच ग़लत थी और महाराष्ट्र एटीएस ने ही कर्नल पुरोहित को फंसाने के लिए उनके घर में आरडीएक्स रखवाया था. स्पष्टतः एनआईए यह कहना चाहती है कि यह सब पूर्व यूपीए सरकार की शह पर किया गया था.
इस मामले के तथ्यों पर एक नज़र डाल लेना ज़रूरी है. पिछले दशक के उत्तरार्द्ध में देश के अलग-अलग हिस्सों, विशेषकर महाराष्ट्र में एक के बाद एक कई आतंकी घटनाएं हुईं. इनकी ओर देश का ध्यान सबसे पहले तब आकर्षित हुआ, जब मई 2006 में महाराष्ट्र के नांदेड़ में आरएसएस के एक कार्यकर्ता राजकोंडवार के घर में बम बनाने के दौरान दो बजरंग दल कार्यकर्ता मारे गए. घर के ऊपर भगवा झंडा फहरा रहा था और उसके सामने बजरंग दल का बोर्ड लगा हुआ था.
घटनास्थल पर नक़ली मूछें, दाढ़ी और पजामा-कुर्ता भी मिला. इसके बाद परभनी, जालना, ठाणे, पनवेल इत्यादि में कई बम धमाके हुए. इनकी जांच पुलिस द्वारा यह मानते हुए की गई कि इनके लिए मुसलमान ही ज़िम्मेदार हैं. हर धमाके के बाद कुछ मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार किया जाता था और वर्षों बाद, अदालतें उन्हें सबूत के अभाव में रिहा कर देती थीं. ज़ाहिर है कि इस प्रक्रिया में उनका जीवन बर्बाद हो जाता है.
मालेगांव धमाका, जिनमें पहली बार साध्वी की भूमिका सामने आई, सन 2008 में हुए था. इन धमाकों में नमाज़ पढ़कर लौट रहे अनेक मुसलमान मारे गए और कई घायल हुए थे. इसके बाद हमेशा की तरह कुछ मुसलमान युवकों को हिरासत में ले लिया गया.
लेकिन महाराष्ट्र के आतंकवाद निरोधक दस्ते (एटीएस) के तत्कालीन प्रमुख हेमंत करकरे ने जब इस घटना की बारीकी से जांच की तो यह सामने आया कि धमाकों के लिए इस्तेमाल की गई मोटरसाइकिल पूर्व एबीवीपी कार्यकर्ता साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर की थी. आगे की जांच में इन धमाकों में स्वामी दयानंद पांडे, सेवानिवृत्त मेजर उपाध्याय, रामजी कालसांगरा और स्वामी असीमानंद की संलिप्तता भी प्रकट हुई. ये सभी अतिवादी हिंदू दक्षिणपंथी थे. पुलिस को ढेर सारे सबूत भी हाथ लगें. एक सबूत था स्वामी असीमानंद का इक़बालिया बयान, जो जेल में मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में दर्ज किया गया था और क़ानूनी दृष्टिकोण से पूरी तरह वैध था.
अपने इक़बालिया बयान में स्वामी ने बड़े खुलासे किए. उन्होंने कहा कि 2002 में संकटमोचन मंदिर में हुए धमाके के बाद उन्होंने यह तय किया कि बम का जवाब बम से दिया जाएगा. वे उस समय गुजरात के डांग ज़िले में विश्व हिन्दू परिषद के लिए काम कर रहे थे. असीमानंद ने विस्तार से पूरे घटनाक्रम के बारे में बताया. इसके बाद कई अन्य लोगों को इस मामले में आरोपी बनाया गया.
जब करकरे इस मामले की जांच कर रहे थे और इसमें हिंदुओं के शामिल होने की बात सामने आ रही थी, तब बाल ठाकरे ने ‘‘सामना’’ में लिखा था कि ‘‘हम करकरे के मुंह पर थूकते हैं’’. गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें ‘‘देशद्रोही’’ बताया था. आडवाणी ने भी उन्हें फटकारा था. हिंदुत्ववादी राजनैतिक संगठनों के इस कटु हमले से व्यथित करकरे ख्यात पुलिस अधिकारी जूलियो रिबेरो से मिले और उनसे अपनी पीड़ा बांटी.
रिबेरो अपनी निष्पक्षता और ईमानदारी के लिए जाने जाते हैं. उन्होंने करकरे की सूक्ष्म जांच की सराहना की. करकरे ने रिबेरो से जानना चाहा कि राजनेताओं द्वारा उनका जो अपमान किया जा रहा है, उसका मुक़ाबला वे कैसे करें. रिबेरो ने उन्हें सलाह दी कि वे ईमानदारी से अपना काम जारी रखें और उन पर लगाए जा रहे आरोपों को नज़रअंदाज करें.
इसी बीच, मुंबई पर आतंकी हमला हुआ. सन 2008 के 26 नवंबर को हथियारों से लैस दस आतंकवादी मुंबई में घुस आए. उनके विरूद्ध पुलिस कार्यवाही के दौरान करकरे मारे गए. उनकी मौत की परिस्थितियां भी अत्यंत संदेहास्पद थीं.
अल्पसंख्यक मामलों के तत्कालीन केंद्रीय मंत्री ए.आर. अंतुले ने तब कहा था कि करकरे की हत्या के पीछे आतंकवाद के अलावा और कुछ भी है. नरेंद्र मोदी, जिन्होंने करकरे को देशद्रोही बताया था, तत्काल मुंबई पहुंचे और उनकी पत्नी को एक करोड़ रूपए का चैक भेंट करने की पेशकश की. करकरे की पत्नी ने इस राशि को स्वीकार करने से इंकार कर दिया.
करकरे की मौत के बाद प्रकरण की जांच जारी रही. आरोप-पत्र तैयार कर लिया गया और सभी आरोपियों पर आतंकी हमले करने के आरोप में मामले की सुनवाई शुरू हो गई. इस बीच केंद्र में नई सरकार सत्ता में आ गई और इसके साथ ही, एनआईए का रूख भी पलट गया. अब एनआईए हरचंद इस कोशिश में जुटी हुई है कि साध्वी की रिहाई हो जाए. एनआईए के रूख में परिवर्तन का एक प्रमाण था लोक अभियोजक रोहिणी सालियान का यह बयान कि उन्हें यह निर्देश दिया गया है कि वे इस प्रकरण में नरम रूख अपनाएं. चूंकि उन्होंने ऐसा करने से इंकार कर दिया इसलिए उन्हें हटा दिया गया.
हम सबको याद है कि सन 1992-93 में मुंबई में हुए सांप्रदायिक दंगों में 1000 से अधिक लोग मारे गए थे. इसके बाद हुए बम धमाकों में 200 लोगों की जानें गईं थीं. जहां तक दंगों का सवाल है, उनके आरोपियों में से बहुत कम को सज़ा मिली है. एक को भी मौत की सज़ा या आजीवन कारावास नहीं मिला. बम धमाकों के मामले में कई लोगों को मौत की सज़ा सुनाई जा चुकी है और कई को आजीवन कारावास की. आजीवन कारावास की सज़ा भुगत रहे लोगों में रूबीना मेमन शामिल हैं. उनका अपराध यह है कि वे उस कार की मालकिन थीं, जिसका इस्तेमाल विस्फोटकों को ढोने के लिए किया गया था. ज्ञातव्य है कि रूबीना मेनन उस कार को चला नहीं रही थीं.
साध्वी प्रज्ञा सिंह मालेगांव धमाकों में इस्तेमाल की गई मोटरसाइकिल की मालकिन थीं. वे जल्दी ही जेल से रिहा हो जाएंगी. रूबीना कार की मालकिन थीं. उनका जीवन जेल में कटेगा. मुंबई दंगों में कही बड़ी संख्या में लोग मारे गए थे, परंतु किसी को भी सख्त सज़ा नहीं मिली. बम धमाकों के मामले में दर्जनों लोगों को सख्त सज़ाए सुनाई गईं.
आख़िर हमारा प्रजातंत्र किस ओर जा रहा है. ऐसा लगता है कि हमारे देश में दो समानांतर न्याय व्यवस्थाएं चल रही हैं. टीवी पर होने वाली कटु बहसों में लोग साध्वी का बचाव करेंगे और करकरे को ग़लत जांच करने का दोषी बताएंगे. मालेगांव में लोग बहुत नाराज़ हैं और एनआईए के बदले हुए रूख के खिलाफ़ अदालत में जाने की योजना बना रहे हैं. दो राजनैतिक दल करकरे के सम्मान की रक्षा के लिए आगे आने को तत्पर हैं और वे इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि उनके द्वारा इकट्ठे किए गए सुबूतों का ईमानदारी से परीक्षण किया जाए.
हमें आशा है कि दोषियों को सज़ा मिलेगी और निर्दोषों की रक्षा की जाएगी. परंतु वर्तमान परिस्थितियों में ऐसा होना असंभव सा लग रहा है.
(राम पुनियानी का यह लेख मूल रूप से अंग्रेज़ी में A Tale of Two Vehicles – Sadhvi’s Motorcycle and Rubina’s Car शीर्षक से प्रकाशित हुआ था. अमरीश हरदेनिया ने इसका हिन्दी रूपांतरण किया है.)