Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भले ही अरूण जेटली द्वारा पेश किए गए बजट को गांव, गरीब और किसान समर्थक बजट बता रहे हों, लेकिन ‘राष्ट्रीय दलित मानवाधिकार अभियान’ इस बजट को दलित-आदिवासी विरोधी बजट मानती है.
बजट के भाषण में अरूण जेटली ने दलित-आदिवासी समुदाय में उद्यम को बढ़ावा देने हेतु 500 करोड़ के आवंटन की घोषणा की और कहा कि ‘स्टैंडअप इंडिया स्कीम’ के अंतर्गत दिए गए इस पैसे से करीब ढ़ाई लाख उद्यमियों को फायदा पहुंचेगा. लेकिन अगर बजट को गौर से देखा जाए तो यह साफ़ पता चलता है कि 500 करोड़ के आवंटन के एवज़ में दलित-आदिवासी समुदाय को मोदी सरकार ने फिर बेवकुफ बनाया है. क्योंकि जो फंड इन दलितों-आदिवासियों को मिलना चाहिए, उसमें सरकार बड़े चतुराई के साथ 50 फीसदी से अधिक की कटौति कर ली है.
स्पष्ट रहे कि वर्ष 2011-12 में जाधव समिति की सिफारिशों के बाद अनुसूचित जाति उप-योजना के बारे में सरकार ने 25 मंत्रालयों/ विभागों को अनुसूचित जाति व जनजाति के विकास के लिए उनके आबादी के अनुपात में वित्तीय आवंटन के सख्त निर्देश दिए थे.
लेकिन जब हम पिछले पांच साल यानी 2012-13 से 2016-17 तक के बजट के आंकड़ों का विश्लेषण करते हैं तो पता चलता है कि फंड आवंटन औसत रूप से लगभग 50 फीसदी कम किया जा रहा है.
राष्ट्रीय दलित मानवाधिकार अभियान के महासचिव एन. पॉल दिवाकर के मुताबिक़ –‘अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए उनके आबादी के अनुरूप क़रीब 25 फीसदी बजट का आवंटन होना चाहिए, जिसका वादा बीजेपी नेतृत्व वाली मोदी सरकार ने भी किया था, लेकिन इस वर्ष यह आवंटन मात्र 11.42 फीसदी कर दिया गया है.’
दरअसल, अनुसूचित जाति उप-योजना में वित्त मंत्रालय ने 292 स्कीमों को रखा है. लेकिन राष्ट्रीय दलित मानवाधिकार अभियान का कहना है कि इसमें सिर्फ 9 फीसदी यानी 26 योजनाएं ही ऐसी हैं, जो सीधे-सीधे अनुसूचित जाति से संबंधित हैं. उसी प्रकार सरकार के 303 स्कीमों में सिर्फ 7 फीसदी यानी 22 योजनाएं ही अनुसूचित जनजाति से संबंधित हैं.
पॉल दिवाकर यह भी आरोप लगाते हैं कि इन योजनाओं के लिए भी जो फंड आवंटित होते हैं, उन पर कभी भी 50 फीसदी से अधिक खर्च नहीं किए जाते. और अधिकतर देखा गया है कि अनुसूचित जाति या जनजाति के नाम पर आवंटित यह फंड कहीं किसी दूसरे काम पर खर्च कर दिया जाता है, जिसका लाभ कभी भी प्रत्यक्ष रूप से दलितों-आदिवासियों को हासिल नहीं होता.
इस बजट में दलित-आदिवासी महिलाओं के साथ भी भेदभाव किया गया है. सिर्फ सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय एवं जनजाति मंत्रालय ने उनके लिए अपने विभाग में थोड़ा सा फंड आवंटित किया है. आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि अनुसूचित जाति उप-योजना में सिर्फ एक फीसदी एवं जनजाति उप-योजना बजट का दो फिसदी ही दलित-आदिवासी महिलाओं के लिए आवंटित किया गया है.
पॉल दिवाकर कहते हैं कि –‘अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए बनाए जाने वाली योजनाएं अक्सर सामान्य योजनाओं में वित्त आपुर्ति के लिए की जाती है, जिससे यह योजनाएं अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए प्रासंगिक नहीं रह पाते हैं. इसलिए ज़रूरी है कि योजनाओं को बनाते समय समुदाय की भागीदारी अनिवार्य की जाए.’
वो कहते हैं कि –‘विभिन्न राज्यों व ज़िलों में वित्त आपुर्ति अभी भी ठीक नहीं है, जिसकी वजह से फंड का सदुपयोग नहीं हो पाता. इसलिए प्रशासनिक क्षमता को सक्षम बनाने की भी आवश्यकता है. इतना ही नहीं, योजनाओं का प्रचार-तंत्र इतना ख़राब है कि लक्षित समूह को इन योजनाओं का कभी पता ही नहीं चल पाता. सरकार को इस ओर भी ध्यान देने की ज़रूरत है.’