नासिरूद्दीन
देश भर में ऐसी बेचैनी, अफरा-तफरी, परेशान हाल लोग जमाने बाद एक साथ सड़कों पर दिख रहे हैं. ये किसी पार्टी के ‘बहकावे’ या ‘बुलावे’ पर घरों से नहीं निकले हैं. ये आंदोलन नहीं कर रहे हैं. वे अपनी मेहनत की कमाई को सहेजने के लिए निकले हैं. अपनी ही पूंजी को लेने भोर से शाम तक डटे हैं ताकि रोजमर्रा की जिंदगी चला सकें.
क्यों? क्योंकि अचानक ही इन्हें एक रात बताया गया कि काले धन की कमर तोड़नी है. इसलिए जिनके पास अब बड़े नोट पड़े हैं, वे बेकार हो गए हैं. इसके बाद वे रद्दी कागज के टुकड़े हो गए हैं. बैंकों में जमा अपना ही पैसा वे मनमाफिक नहीं निकाल पाएंगे. कुछ खास जगहों को छोड़ बाकि जगहों पर छोटे नोट ही चलेंगे. इसके बाद पूरा देश बस नोट पर चर्चा कर रहा है. इस कदम का असर सब पर एक जैसा पड़ा हो, ऐसा नहीं है. चंद असर देखते हैं.
जिनके पास अकूत पैसा था, वे रातों रात सोना खरीद लाए. कई शहरों में उस पूरी रात सर्राफा कारोबार हुआ. कई बड़े लोगों ने ‘मनी एक्सचेंज’ के लिए एक साथ कई बैंकों में अपने लोग लगा दिए. काला-सफेद के लिए और भी बहुत कुछ हुआ होगा, पता नहीं. पर जो दिख रहा है, वह आमजन की जिंदगी पर पड़ा असर है. इसके पास वैसे भी, छिपाने का भी कम है और छिपाने का जरिया भी.
इस कदम की घोषणा के साथ ही छोटी जगहों पर अफवाह फैल गयी कि अब ये नोट बेकार हो गए. गांवों में रातों रात कुछ लोग पैसा ‘एक्सचेंज’ करने वाले बन गए. बिहार के कई गांवों में चार सौ के बदले पांच सौ का नोट बदला गया. हजार के नोट कम थे लेकिन वह भी आठ-नौ सौ में बदले गए.
पढ़-लिख सकने से मजबूर लोगों ने कागजी कार्रवाई को देखते हुए अपनी ही जमापूंजी को बदलने के लिए दूसरों का सहारा लिया. इन ‘दूसरों’ ने इस योगदान की कीमत ली.
यह लगन का मौसम है. शादियों वाले घरों में बेचैनी है. हर काम के लिए नकद पैसे चाहिए. यहां तक कि तिलक-दहेज के लिए भी.
कहीं सिर्फ इसी वजह से मुंडन टल गया है. फेरी लगाकर सब्जी, फल, मछली बेचने वालों का धंधा चौपट हो गया है.
पटना के पास एक महिला ने स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) से तीन हजार रुपए घर के कुछ जरूरी काम के लिए निकाले थे. पांच-पांच सौ के नोट थे. अब वे सारे काम ठप पड़े हैं. एक बड़ी माइक्रोक्रेडिट संस्था है. उसमें दिहाड़ी कमाई करने वाले लगभग एक करोड़ लोगों का पैसा जमा है. वे जरूरत के मुताबिक अपना पैसा नहीं निकाल पा रहे हैं.
बिहार के अररिया में गोभी की खेती करने वाले एक किसान की रातें जागते हुए कट रही हैं. फसल तैयार है. गोभी को रात में ही खेत से निकाला जाता है ताकि सुबह-सुबह तरोताजा बाजार में पहुंचाया जा सके. लेकिन गोभियां, बाजार में आगे नहीं बढ़ पा रही हैं. बाजार में माल इकट्ठा हो रहा है तो दाम भी गिर रहे हैं. यही हाल रहा तो मुनाफा दूर, वे अपनी लागत का आधा पैसा भी निकाल लें तो गनीमत है.
रबी का मौसम सिर पर है. धान लगभग कट चुके हैं या कटने वाले हैं. गेहूं की खेती के लिए खेतों को तैयार करना है. बीज, डीजल, खाद, पानी चाहिए. किसानी के ज्यादातर काम नकदी में होते हैं. इसकी वजह से सब ठप है.
कोलकाता में इस रविवार अनेक घरों में ‘मीट’ नहीं बना क्योंकि लोगों के पास पैसा नहीं था. यह वहां की बड़ी खबर बनी.
कुशीनगर में एक महिला को नोटबंदी के बारे में जानकारी नहीं थी. नौ तारीख को वह एक हजार के दो नोट जमा कराने बैंक पहुंची. बैक बंद था. वहीं उसे पता चला कि ये नोट अब बंद हो गए. सदमे से उनकी मौत हो गई. एक हफ्ते में 33 लोगों की इस कदम की वजह से किसी न किसी रूप में जान गंवाने की खबर है.
ज्यादा परेशान हाल तबके में विद्यार्थी, ट्रक ड्राइवर, सफर करने वाले, छोटे व्यापारी, दिहाड़ी मजदूर हैं.
ये किसी एक राज्य, एक जिले की बात नहीं है. अखबार, टीवी न्यूज, सोशल मीडिया में ऐसी ढेरों खबरें हैं. कुछ लोगों को इस तकलीफ का बयान गैरवाजिब लगता है. ऐसा मानने वाला धड़ा भी काफी बड़ा है कि जब बड़े कदम उठाए जाते हैं तो कुछ तकलीफ होती है. यह धड़ा, चर्चा में सीमा पर तैनात सैनिकों को ले आता है. यानी जो इस तकलीफ को बयान करने की जुर्रत कर रहे हैं, वे ‘देशद्रोही’ हैं.
ये बातें इतना जरूर बताती है कि सत्ता का या तो जमीनी हकीकत से जुड़ाव नहीं है या वह गांव-देहात-कस्बों-छोटे शहरों में रहने वाले पढ़-लिख सकने से मजबूर, किसानों, छोटे व्यापारियों की फिक्र नहीं करती है. यह नाफिक्री पहले नहीं थी, ऐसा भी नहीं है. लेकिन यह 1991 के बाद से ज्यादा बढ़ी है. जैसे-जैसे शहरी उच्च मध्यवर्ग का फैलाव बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे यह नाफिक्री बढ़ती जा रही है. इस वर्ग को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि चार हजार मिलेंगे या साढ़े चार हजार. दो हजार निकलेंगे या ढाई हजार. उसके पास अनेक विकल्प हैं. परेशानी तो उनको है, जिनके पास पैसा-आने जाने का एक ही विकल्प है.
सब्र के फल पर भरोसा कहिए या मजबूर लोगों की मजबूरी या फिर लीडर पर यकीन – कुछ घटनाओं को छोड़ दें तो लोग अब तक बेसब्र नहीं हुए हैं. इनमें दो तरह के लोग हैं, एक जो आमतौर पर हमेशा खामोशी से सब कुछ सहते और बर्दाश्त करते आए हैं और दूसरे वे जिन्हें इस कदम पर नाज है. खामोशी से सहने वाले लोगों की तादाद इस मुल्क में अब भी ज्यादा है. मगर ऐसा नहीं है कि उनके मुंह में जबान नहीं है. हां, वे रोज-रोज नहीं बोलते हैं. हल्ला नहीं करते हैं.
हालांकि, ये तो अर्थशास्त्री ही बेहतर बताएंगे कि पूंजी कैसे काम करती है. काला धन कैसे पैदा होता है. काला कैसे रातों-रात सफेद बनाया जाता है. कैसे धन, दनादन धन बनने के लिए दौड़ता रहता है. हां, इतना जरूर पता है कि अरसे से इकट्ठा घर-घर काम करने वाली किसी शब्बो, विजयलक्ष्मी, आरती, रेहाना जैसों के कई जगह रखे महीनों के ‘चुरौका’ के चार-पांच हजार मुड़े-चुड़े नोट जरूर बाहर निकल आए हैं. अगर यही छिपा धन निकालने की कोशिश थी तो वह बाहर आ रहा है.
और आखिर में: बिहार के फुलवारीशरीफ की बस्तियों में काम करने वाली एक सामाजिक कार्यकर्ता से गरीब महिलाएं शिकायत कर रही थीं कि नोटबंदी की वजह से उन्हें कितनी परेशानियां उठानी पड़ रही हैं. उनकी शिकायत थी कि नीतिश सरकार ने यह ठीक नहीं किया. नीतिश सरकार? जब उन्होंने कहा कि यह काम राज्य सरकार का नहीं होता है तब वे कहने लगीं, किसी का भी हो, है तो सरकार का ही न. मीडिया से दूर इस मुल्क में अनेक लोग ऐसे हैं, जिनके लिए यह भेद करना कई बार मुश्किल होता है कि क्या राज्य का मामला है या क्या केन्द्र का? उन्हें तो हर ऐसी परेशानी की वजह सरकार लगती है. चाहे वह यहां की हों या वहां की. मुमकिन है, कई राज्य सरकारें इस बंदी से हो रही तकलीफ का गुस्सा झेल रही हों और लोग उन्हें कोस रहे हों. नोटबंदी का एक पक्ष यह भी है.
[नासिरूद्दीन वरिष्ठ पत्रकार हैं. सामाजिक मुद्दों – खासतौर पर महिलाओं से जुड़े मुद्दों – पर लिखते रहे हैं. लम्बे वक्त तक ‘हिन्दुस्तान’ से जुड़े रहे. अब नौकरी से इस्तीफा देकर पूरावक्ती तौर पर लेखन और सामाजिक काम में जुटे हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.]