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बाढ़ पीड़ितों के साथ बिहार सरकार का मज़ाक़, लाखों पीड़ित सरकारी राहत से महरूम

TwoCircles.net Staff Reporter

अररिया : अररिया ज़िला की बाढ़ त्रासदी के आठ दिन बाद भी लोग बेहाल हैं. सरकारी दावों के मुताबिक़ 1 लाख 58 हज़ार पीड़ित शिविरों में रह रहे हैं, लेकिन धरातल पर ये शिविर कहीं भी नज़र नहीं आते. जहां लोग रह रहे हैं वहां शिविर की बुनियादी सुविधाएं भी न के बराबर है, बच्चो के लिए दूध, सफ़ाई, रोशनी तो दूर दो समय भोजन भी नसीब नहीं हो पा रहा है.

जन आन्दोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एन.ए.पी.एम) के राष्ट्रीय संयोजक टीम के सदस्य महेन्द्र यादव TwoCircles.net के साथ बातचीत में बताते हैं कि, हमारी टीम ने आज अररिया ज़िले के सात शिविरों का सर्वेक्षण किया है. इनमें से एक को छोड़कर बाक़ी सभी शिविर बंद पाए गए हैं. अररिया शहर के अररिया कॉलेज और महात्मा गांधी स्मारक उच्च विद्यालय में बाढ़ राहत शिविर का बोर्ड तो लगा है, पर यहां बाढ़ पीड़ित हैं ही नहीं, यहां सिर्फ़ फ़ूड पैकेट बनाए जा रहे हैं. यहां लोगों के रहने की कोइ व्यवस्था नहीं की जा रही है.

वो बताते हैं कि, शिविर को लेकर सरकार सिर्फ़ दावे ही कर रही है, लेकिन शिविर की कोई भी सूची वेबसाईट पर जारी नहीं होने के कारण सत्य को हम नहीं जान पा रहे हैं. इस मामले में सरकार की ओर से सीधे-सीधे पारदर्शिता का घोर अभाव नज़र आ रहा है. 

एन.ए.पी.एम के मुताबिक़, ज़िला प्रशासन एवं राज्य सरकार आपदा सम्बंधित मानक संचालन प्रक्रिया (SOP) का अनुपालन करने में विफल रही है. सच्चाई तो ये है कि लाखों लोगों तक अभी भी राहत नहीं पहुंच पाई है. तय मानकों के आधार पर राहत शिविर का संचालन तो दूर सामुदायिक भोजन देने की व्यवस्था को भी बंद किया जा रहा है. उचित राहत शिविर के अभाव में दसियों हज़ार लोग खुले आसमान में भीगने को मजबूर हैं.

महेन्द्र यादव बताते हैं कि, बाढ़ आने के बाद तय SOP (Standard Operating Procedure) के तहत पीड़ित लोगों के लिए राहत शिविर की व्यवस्था, जो लोग गाँव में फंसे हैं, वहां ऊंचे स्थलों पर सामुदायिक रसोई की व्यवस्था और जो इन दोनों का लाभ लेने में असक्षम हैं, उनके लिए फ़ूड पैकेट वितरण की बात है. परन्तु अररिया जैसे शहर में बाढ़ राहत शिविर का बोर्ड लगाकर सिर्फ फ़ूड पैकेट बनवाया जा रहा है जो कि सरकारी आदेश का सीधा उल्लंघन है.

आपको बताते चलें कि सराकारी दावे भले ही जो हों, लेकिन अररिया में NH -57 पर और अनेक गांव में लोग नाहर या सड़क के किनारे शरण लिए हुए नज़र आते हैं. यानी तय सरकारी मानकों के अनुसार शिविर की व्यवस्था तत्काल करनी थी जो नहीं हो पाई है. सरकार के तमाम दावों के बावजूद कटाव एवं अनेक घाटों पर चलने वाली नावों पर आने-जाने वाले पीड़ितों से पैसे वसूले जा रहे हैं. पशुओं के लिए शिविर या चारा की व्यवस्था कहीं नहीं दिखती है. जल निकासी, सफ़ाई और छिड़काव की व्यस्वस्था सुदूर गांव कि कौन कहे यह काम ज़िला मुख्यालय में भी नहीं हो पा रहा है.