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‘हमारे जजों को अपने इल्म को बढ़ाने की ज़रूरत है’ —एक मजलिस की तीन तलाक़ के फ़ैसले पर इमारत शरिया के नाज़िम

नासिरूद्दीन

इस वक़्त ज्यादातर उलमा एक मजलिस में दी जाने वाली तलाक़ पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर बात करने से गुरेज़ कर रहे हैं. वे सीधे-सीधे कुछ नहीं बोलते. वे 10 सितम्बर को होने वाली ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की मीटिंग का इंतज़ार कर रहे हैं. मगर वे जो कह रहे हैं, उससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उन्हें तुरंत तीन तलाक़ को ख़त्म करने के फैसले से परेशानी है.

इमारत शरिया, बिहार-उड़ीसा और झारखंड में 1921 से काम कर रहा है. मुसलमानों के दीनी मामलों में इसकी काफ़ी मज़बूत दख़ल है. इसके नाज़िम (महासचिव) मौलाना अनीसुर रहमान क़ासमी से हमारी मुलाक़ात फुलवारीशरीफ़, पटना में इनके दफ्तर में हुई. काफ़ी मुश्किल से वे इस बारे में औपचारिक रूप से बात करने को तैयार हुए. यहां हम उनसे हुई बातचीत के अहम अंश पेश कर रहे हैं.

स्त्रियों की ज़िन्दगी कई मुश्किलों से घिरी है

मौलाना अनीसुर रहमान क़ासमी मुसलमान स्त्रियों के बजाए सभी समुदाय की स्त्रियों की हालत पर बात करना पसंद करते हैं. वे तलाक़ की बजाए हर तरह की हिंसा का ज़िक्र करते हैं.

उनकी बात का लब्बोलुबाब है कि हमारे समाज का एक हिस्सा स्त्रियों का है. वह कई मुश्किलों से घिरी हैं. लड़कियों की पैदाईश का मामला हो या दहेज का मसला या घरेलू हिंसा- यह हमारे समाज की बड़ी समस्या है. यह परेशानियां बताती हैं कि हमारे समाज में लड़कियों और औरतों को जो इज़्ज़त देनी चाहिए वह नहीं दी जा रही है. हर मज़हब स्त्रियों की इज़्ज़त सिखाता है पर समाज में उसका उलटा हो रहा है. इसलिए हमें सामाजिक बदलाव की बात करनी चाहिए. महिलाओं को घरेलू मामलों में समस्या है. उन्हें क़त्ल कर दिया जा रहा है. उनके साथ नाइंसाफ़ी है.

महिलाओं की हालत का जायज़ा लेने के लिए सरकार आयोग बनाए

महिलाओं पर ज़ुल्म की वजह पर बात करते हुए, वे कहते हैं कि शायद घरेलू झगड़ों के निपटारे की व्यवस्था ठीक नहीं है. हमारा इंसाफ़ का निज़ाम ठीक नहीं है. हमारी अदालतों में घरेलू झगड़े निपटाने की जो व्यवस्था है, उसमें कहीं न कहीं कमी है.’

वे कहना चाहते हैं कि इसी वजह ऐसे मामले रुक नहीं रहे हैं. यानी अदालत की व्यवस्था नाइंसाफ़ियों को रोक पाने में कामयाब नहीं रही है. मौलाना क़ासमी घरेलू परेशानियों की वजह से स्त्रियों और पुरुषों की खुदकुशी के आंकड़े बताते हैं. आंकड़ों का पुख्ता स्रोत पता नहीं चलता है. वे मियांबीवी के बीच अलगाव/तलाक़ का हवाला देते हैं. इनकी बात करते हुए अलग-अलग धर्मों में इनकी संख्या बताते हैं. इससे ऐसा अहसास होता है कि मुसलमानों में ये मामले काफी कम हैं. हालांकि वे फ़ीसदी की बात नहीं करते हैं.

तब होना क्या चाहिए. मौलाना क़ासमी के मुताबिक़ ऐसी हालत में, ‘भारत सरकार को महिलाओं की हालत पर एक कमिशन बनानी चाहिए. वे कहते हैं कि महिला आयोग पूरी तरह कारगर नहीं है. अगर वह कारगर होता तो यह जो समस्याएं आई हैं, वह न आतीं.

मौलाना अनीसुर रहमान को लगता है कि मुसलमानों में लिंग चयनित गर्भपात नहीं होता है या मुसलमानों का लिंग अनुपात ख़राब नहीं है. वे मुसलमान बहुल कई जगहों का हवाला भी देते हैं.

महिलाएं आती हैं तलाक़ लेने 

एक मजलिस में तीन तलाक़ पर सवाल पूरा होने से पहले ही मौलाना क़ासमी बात काट देते हैं. वे लम्बी बात करते हैं, ‘चाहे तलाक़ कोई दे या कोर्ट के ज़रिए ले, हम तो पिछले 30-37 बरसों से इमारत शरिया में देखते हैं कि 95 फ़ीसदी औरतें तलाक़ लेने आती हैं. हमारे सिस्टम में कोई भी औरत जब घरेलू एतबार से परेशान हो जाती है और शौहर उसको तलाक़ नहीं देता है तो वह या तो कोर्ट में जाती है या पंचायत में जाती है या क़ाज़ी के पास आती है. हमारे दारुल क़ज़ा में जितने केस आते हैं, उनमें 95 फ़ीसदी वे औरतें आती हैं तलाक़ लेने के लिए जो अपने शौहरों से तक़लीफ़ में मुब्तला होती हैं. या फिर वह तलाक़ लेकर या तो शौहर आकर तलाक़ उन्हें देता है या क़ाज़ी शौहर के ज़रिए तलाक़ दिलाता है या फस्ख कराता है. इसमें बहुत कम ऐसे मामले होते हैं, जो सुलह से ख़त्म होते हैं. फिर वे औरतें, तलाक़ के बाद दूसरी शादी कर लेती हैं. तो कोर्ट में जो औरत तलाक़ के लिए जाती है, मुस्लिम समाज में, तो वह इसलिए जाती है कि अगर उसका निबाह उसके शौहर के साथ नहीं हो रहा है तो तलाक़ लेकर दूसरी शादी करने के लिए जाती है. इनमें से 97 फ़ीसदी तलाक़ के बाद दूसरी शादी कर लेती हैं. चाहे उनको तीन तलाक़ मिले या एक तलाक़ बाइन मिले, वे घुटकर ज़िन्दगी गुज़ारना नहीं चाहती हैं. इसलिए मुस्लिम समाज में शौहरों की तरफ़ से औरतों को क़त्ल नहीं किया जाता है.’ वे अपनी बात के पक्ष में एक बार फिर कुछ मुस्लिम बहुल इलाक़ों का हवाला देते हैं.

तलाक़ महिलाओं का हक़ है

मौलाना क़ासमी का कहना है कि ‘कुछ चीज़ें मुस्लिम समाज में बढ़िया है. इनमें एक तलाक़ है. हम गुनाह समझते हैं कि किसी घर में बेवा औरत हो और उसकी शादी न हो. तलाक़शुदा औरत हो और उसकी दोबारा शादी न हो. तलाक़ घरेलू ज़िन्दगी को नए सिरे से बेहतर बनाने का औरत को एक हक़ देता है. इसलिए हम देखते हैं कि औरतें मुतालबा के लिए आती हैं हमारे यहां तलाक़ के लिए.’

इकट्ठी तीन तलाक़ को सिर्फ़ ज़ुल्म के हथियार के तौर पर न देखें…

मौलाना कहते हैं कि अब रह गई तीन तलाक़ (यानी तलाक़-ए-बिद्दत यानी एक साथ तीन तलाक़) की बात. यह सही नहीं है. इस्लाम ने तलाक़ का जो तरीक़ा बताया है, उसमें बेहतरी है. लेकिन… कभी-कभार ऐसा होता है कि बीवी ही शौहर से मुतालबा करती है.’

वे बताते हैं कि ‘अभी हमारे यहां हैदराबाद के दारुल क़ज़ा में एक केस आया. वह औरत अपने शौहर की तरफ़ से बहुत रंज थी. उसने मुतालबा किया क़ाज़ी से कि हम एक तलाक़ नहीं लेना चाहते हैं, इससे तीन तलाक़ दिलवाइए और आज ही दिलवाइए. क़ाज़ी ने पूछा ऐसा क्यों, तो उसने कहा कि देखिए हम कभी इससे दोबारा शादी नहीं करना चाहते हैं. अगर आप हमें तीन तलाक़ नहीं दिलवाइएगा तो यह मेरे भाइयों को मजबूर करेगा. बहला-फुसलाकर फिर मेरी दोबारा इसी से शादी करा देगा. इसलिए वहां क़ाज़ी साहेब ने उस औरत के मुतालबे पर मजबूर होकर तलाक़-ए-बाइन दिलवाई. तो कभी ऐसा भी होता है. यह तो हम समझते हैं कि तीन तलाक़ को सिर्फ़ ज़ुल्म के हथियार के तौर पर नहीं देखना चाहिए. यह औरत के हक़ के तौर पर भी देखना चाहिए. तलाक़ एक औरत का हक़ है. हम कोई ऐसा क़ानून नहीं बनाएं, जिससे उसका हक़ ही साकित हो जाए. इसलिए खुदा ने तलाक़ को मुतलक़ रखा है क़ुरान-ए-करीम में.’

वे तलाक़-ए-बिद्दत के पक्ष में ढेरों तर्क देते हैं. वे कहते हैं कि ज़बान से निकली हुई हर बात जब मानी जाती है तो तलाक़-ए-बिद्दत को आप कैसे रद्द कर देंगे. जैसे, कोई कलमा पढ़ लेता है तो मुसलमान हो जाता है, ज़बान से क़बूल करने पर निकाह हो जाता है, तो तलाक़ बोलने पर तलाक़ क्यों नहीं होगा…

वे इसी आधार पर कहना चाहते हैं कि इसलिए तीन तलाक़ एक वक़्त में होगी. वे तीन तलाक़ को बुनियादी हक़ से जोड़ते हैं और कहते हैं कि बुनियादी हक़ को छिनकर क़ानून बनाना ज़ुल्म है. इंसान के बुनियादी हक़ को छीनकर जब भी कोई क़ानून बनता है तो उससे ज़ुल्म बढ़ जाता है.

तलाक़-ए-बिद्दत औरत का एक बुनियादी हक़ है

मौलाना क़ासमी कहते हैं कि जो क़ुरान ने बाक़ी रखा है, उसे नहीं छिनना चाहिए. अगर आप छीनेंगे तो उसके दूसरे असरात पैदा होंगे.

वे यहां तक कहते हैं कि ‘तलाक़-ए-बिद्दत औरत का एक बुनियादी हक़ है. एक औरत मुतालबा कर रही है कि हमें तलाक़ तीन दो… क्योंकि हम इससे दोबारा कभी ज़िन्दगी में शादी नहीं करना चाहते… क्या आप उसके हक़ को ख़त्म करना चाहते हैं… अल्लाह कहता है कि नहीं इस हक़ को ख़त्म नहीं कर सकते… गरचे उसका मुतालबा सही नहीं है… सही तरीक़े से इसको तलाक़ लेनी चाहिए थी, लेकिन वह ज़ुल्म से तंग आकर कह रही है कि मुझे तलाक़-ए-बिद्दत चाहिए. तो मेरा कहना है कि कभी ऐसे हालात भी बनते हैं कि सुप्रीम कोर्ट को फांसी की सज़ा देनी पड़ती है. पूछिएगा किसी से तो वह कहेगा कि फांसी बहुत ग़लत है. मगर आज़ादी के बाद फांसी तो दी गई. इससे क़त्ल तो रुकता नहीं है, लेकिन फिर भी फांसी की सज़ा बाक़ी रखी गई है. फांसी दी जाती है. तो कभी ऐसे वाक़्यात हो सकते हैं कि जिसमें औरत ही मुतालबा करे कि हमें तीन तलाक़ चाहिए तो क्या आप उसके हक़ को ख़त्म कर देंगे, नहीं कर सकते हैं. यह है मेरा कहना.’

जजों को अपने इल्म को बढ़ाने की ज़रूरत है

बार-बार पूछने पर कि तीन तलाक़ के फैसले पर आपकी क्या राय है, वे इशारों में कहते हैं, ‘हम समझते हैं, हमारे जजों को और अपने मुताअले को, इल्म को बढ़ाने की ज़रूरत है. खुद उस फ़ैसले के एख्तलाफ़ से यह बात वाजे है. ये खानदानी जो निज़ाम है न, इस पर बहुत हल्के से किसी फैसले को नहीं लेना चाहिए. बहुत ही गंभीर अंदाज़ में इसको सोचने की ज़रूरत है. अपने इल्म को बढ़ाने की ज़रूरत है- जजों को, वोकला को.’ 

यह पूछने पर कि अगर एक मजलिस की तीन तलाक का मामला आया तो इमारत शरिया क्या करेगा, वे जवाब टाल देते हैं. कहते हैं कि पर्सनल लॉ बोर्ड की बैठक में जो तय होगा वह करेंगे.

हालांकि वे सुझाव देते हैं, ‘समाज में मोहब्बत और प्रेम को पैदा करना ज़रूरी है… इसी से समस्या का हल निकलेगा. बर्दाश्त करना होगा. घरेलू जीवन में सुकून बर्दाश्त करने का नाम है. बर्दाश्त ख़त्म हो जाएगी तो बीवी से नफ़रत कीजिएगा, बेटी से नफ़रत कीजिएगा… भाई से नफ़रत कीजिएगा. आपस में प्रेम चाहिए. बर्दाश्त के ख़त्म हो जाने से सबको नुक़सान है.’ 

(नासिरुद्दीन पत्रकारिता से लम्बे वक़्त से जुड़े हैं. कई संस्थानों के साथ सालों तक काम करने के बाद अब वे पूरा वक़्त स्वतंत्र लेखन और सामाजिक कार्यों को दे रहे हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.)