आस मुहम्मद कैफ़, TwoCircles.net
शाहपुर (मुज़फ़्फ़रनगर) : ‘अगर कोई गाड़ी आ जाए, तो बच्चे घर में घुस जाते हैं. कहते हैं कि जाट आ गए, अब हमें मार देंगे…’
ये एक डर है, जो आज भी यहां के बच्चों के मन में अंदर तक घुसा हुआ है. ये वो बच्चे हैं जिन्होंने ने अपना परिवार, घर और बचपन सब चार साल पहले मुज़फ्फरनगर में हुए दंगो में खो दिया. आज वो शरणार्थियो की तरह अलग बस्ती में रहते हैं. उनका गांव छूट गया, वो डर की वजह से आज भी गांव नहीं जाना चाहते. डर अब उनकी आँखों में बस चूका है.
लेकिन ये बच्चे खुल कर कहते हैं, वहां हम गुलाम थे, यहां हम आज़ाद हैं. अभी इन्होंने धूमधाम से स्वतंत्रता दिवस मनाया है. स्कूल जा रहे हैं. एक लड़का सीआरपीएफ़ में चुन लिया गया है और ट्रेनिंग पर है.
दंगो को याद करते हुए 46 साल की मुनाजरा बताती है कि चार साल पहले वो कुटबा में रहती थी, लेकिन अब शाहपुर के पास दंगा पीड़ितों की बस्ती में है.
बताते चलें कि कुटबा गांव मुज़फ़्फ़रनगर दंगों का सबसे चर्चित गांव है. इसकी कई वजह हैं. जैसे भाजपा के बड़े नेता नितिन गडकरी ने दंगो से पहले इसी गांव में कार्यक्रम किया था. भाजपा के वर्तमान सांसद व मंत्री संजीव बालियान भी इसी गांव के हैं. मुम्बई पुलिस कमिश्नर रहे और अब बागपत सांसद सत्यपाल सिंह भी यहीं के हैं. आज से चार साल पहले महापंचायत के बाद 8 तारीख़ की सुबह मुसलमानों पर पहला हमला भी इसी गांव में हुआ था, उस समय 8 लोगों को मार दिया गया था.
कुटबा और कुटबी दोनों गांवों की कुल आबादी 8 हज़ार से ज्यादा है. गांव में 700 से ज्यादा मुसलमान थे, जिनपर योजनाबद्ध तरीक़े से हमला कर दिया गया था.
चश्मदीद मोमीन बताते हैं कि, सभी मुसलमान जाटों को वोट करते थे और गांव के प्रधान देवेन्द्र से हमारे अच्छे ताल्लुक़ात थे. 7 सितम्बर की महापंचायत से लौटकर आते हुए जगह-जगह हिंसा की ख़बर थी, मगर गांव में इसकी पुष्टि नहीं हो रही थी. देर शाम गांव का प्रधान देवेंद्र हमारे घर आए और कहा कि कोई मुसलमान बिल्कुल ना डरे, उन्हें कुछ नहीं होगा. सुबह मैं आ जाऊंगा.
मोमिन आगे बताते हैं कि, जगह जगह से झगड़े की ख़बर आ रही थी. सुबह को प्रधान नहीं आया तो हम 3 लोग उनके घर चले गए. हम प्रधान के घर ही थे कि बाहर “ले लो का शोर मचा और भीड़ हमारे मोहल्ले की और चली गई…”
65 साल के क़दमदीन ने इस दंगे में अपनी पत्नी को खोया है. वो बता रहे थे कि, “जैसे ही भीड़ आई, उन्होंने अंधाधुंध फायरिंग की जिसमें मेरी बीवी के गर्दन में गोली लगी. वो वहीं मर गई. कुल 8 लोग मारे गए. हम सब एक छत पर चढ़ कर छिप गए. पुलिस की गांव में आने की हिम्मत नहीं हुई. सेना आई तब हमें अपने साथ ले गई.
मेहंदी हसन कहते हैं, पहले हमें थाने में ले जाया गया. फिर हमें बसी गांव के प्रधान मदरसे में ले गए. जहां हम कई दिनों तक डरे-सहमे से रहे.
मोहम्मद याक़ूब कहते है, वो बहुत बुरे दिन थे. अब तो जाट मिलते हैं और भूल जाने को कहते हैं. गांव में वापस बुलाते हैं. दो बार मंत्री संजीव बालियान भी हमारे बीच आए हैं. हमारे बड़े बुर्जुगों के हाथ जोड़ते हैं. सारी ज़िम्मेदारी लेते हैं, मगर अब हम नहीं जाते.
वो आगे कहते हैं कि, वैसे भी दिल में चुभन होती है. गांव में दो मस्जिद है. अब वो बंद रहती है. दरअसल इसकी गारंटी नहीं है कि वो ऐसा साफ़ दिल से कहते हैं. हम देवेंद्र प्रधान के भरोसे पर रुके थे और फिर भी हम पर हमला हुआ. गांव में जिन लड़कों के हाथों में डंडा देखकर बड़े लोग डांटकर डंडा छीन लेते थे, वो पिस्टल लेकर घूम रहे थे और कोई उन्हें डांट नहीं रहा था. हमें पहले ही आ जाना चाहिए था.
यहां बताते चलें कि इस गांव में हुए 8 क़त्ल में 110 लोग नामजद हैं. पहले गिरफ़्तारी न होने देने का बहुत विरोध हुआ. कुछ की गिरफ़्तारी हुई लेकिन इनकी 3-3 महीने में ज़मानत हो गई.
बसी गांव में कुटबा के इन मुहाजिरों की संख्या फिलहाल लगभग चार सौ है. कुछ लोग कहीं और चले गए. गौरतलब रहे कि यहां रह रहे इन लोगो में पढ़ाई के प्रति रुझान काफी बढ़ा है. लोगों अपने बच्चों को हर हाल में पढ़ाना चाहते हैं.
जमील कहते हैं, लोग समझ गए हैं कि सिर्फ़ पढ़ने से ही हालात बदल सकते हैं. इसलिए अब यहां ज्यादातर लड़के पढ़ रहे हैं.
मोहम्मद याक़ूब के मुताबिक़, 10 से 12 लड़के स्नातक की पढ़ाई कर रहे हैं, मगर अफ़सोस बात यह है कि लड़कियां नहीं पढ़ रही हैं. यहां सिर्फ दो लड़कियां स्कूल जाती हैं. छोटे सभी बच्चे स्कूल जाते हैं.
रसीदन कहती हैं, यह पढ़ जाएंगे तो जिंदगी बन जाएगी. लड़कियों को पढ़ाने को लेकर अभी हिचकिचाहट है.
स्पष्ट रहे कि यहां रहने वालों को सरकार से मकान बनाने के लिए 5 लाख रुपए की सहायता मिली थी, जिनसे मकान बने हैं. लेकिन ज़्यादातर बुनियादी सुविधाएं यहां नदारद हैं.