ये नए भारत की असली हक़ीक़त है…

अब्दुल वाहिद आज़ाद


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राजधानी दिल्ली से क़रीब 500 किलोमीटर दूर राजस्थान के राजसमंद में एक शख्स को पहले कुल्हाड़ी से मार-मार कर अधमरा किया जाता है, फिर उसे ज़िंदा जला दिया जाता है.

हत्यारा कुल्हाड़ी से वार करने से लेकर उस अधमरे शख्स को जलाने तक का वीडियो रिकॉर्ड करवाता है. फिर उसे सोशल मीडिया पर वायरल कर देता है. क़ातिल शंभुदयाल रैगर है, जबकि मक़तूल 50 वर्षीय मज़दूर अफ़राज़ुल उर्फ भुट्टू है.

मेरे लिए ये घटना महज़ एक घटना नहीं है. ये मौजूदा हुकूमत के नए भारत की असली हक़ीक़त है, जो धीरे-धीरे अपना पंजा फैला रहा है. जिसकी शुरुआत नई हुकूमत के आने के चंद रोज़ बाद ही शुरू हो गई थी, जब पुणे में दो जून, 2014 को 28 साल के सॉफ्टवेयर इंजीनियर मोहसिन सादिक़ शेख़ को हिंदू रक्षा सेना के आतंकियों ने पीट पीटकर मार डाला था.

अफ़राज़ुल के क़ातिल को गिरफ़्तार कर लिया गया है. याद है आपको, मोहसिन सादिक़ शेख़ के हत्यारे को भी गिरफ्तार किया गया था. लेकिन तीन साल बाद मोहसीन सादिक़ शेख़ की हत्या के मामले में विशेष सरकारी वकील और वरिष्ठ अधिवक्ता उज्जवल निकम इससे इसलिए अलग हो गए, क्योंकि हिंदू राष्ट्र सेना के आतंकी आरोपी हैं.

साढ़े तीन साल में ऐसी घटनाओं की फ़हरिस्त लंबी हो चुकी है. महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश… लेकिन मेरा शिकवा सभ्य समाज है, जिनकी जबानें न सिर्फ़ सिली हुई हैं. बल्कि वो सत्ता के मदारी के खेल में ज़बरदस्त मस्त नज़र आ रहे हैं.

इस वक़्त देश की सत्ता ऐसे मदारी के पास है, जो कभी लोरियां गाता, कभी चुटकुले सुनाता है, कभी पहेलियां बुझाता है… जब पिछड़ता है तो अपने विरोधी को ज़लील करता है, प्रवचन देने बैठ जाता है. अहिंसा का पाठ पढ़ाता है.

उसके कई रंग हैं और अजीब-अजीब क़िस्म के रंग हैं. लोकतंत्र के मंदिर में कुछ बोलता है, चुनावी रैलियों-जनसभाओं में कुछ और बोलता है. विदेशी सरज़मीन पर बोलने का अंदाज़ बिल्कुल अलग होता है, किसी और का महिमामंडन करता है. लेकिन खूब बोलता है, हां! कभी-कभी उसकी ज़बान पर लकवा मार जाता है और ऐसी ख़ामोशी अख्तियार करता है कि बोलने के लिए कहो तो चुप का रोज़ा रख लेता है.

अफ़सोस ये है कि मदारी के इस खेल में समाज को ज़बरदस्त मज़ा आ रहा है, बल्कि हमारा मीडिया भी इस में शरीक़ है.

लेकिन दोस्तों याद रखना…

क़रीब है यारों रोज़-ए-महशर छुपेगा कुश्तों का ख़ून क्यूंकर

जो चुप रहेगी ज़बान-ए-ख़ंजर लहू पुकारेगा आस्तीं का

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