आस मोहम्मद कैफ, TwoCircles.net
सहारनपुर: सहारनपुर से बिजनौर तक फैले जंगलो के ऊंचे पहाड़ी इलाके में लाखों वन गुर्जर रहते है. ये लोग जानवरों के बीच रहते हैं और इन जानवरों से इनका दोस्ताना भरा रिश्ता है. वन गुर्जरों का रहन-सहन सब कुछ अज़ीब है. मौजूदा स्थिति यह है कि सरकार इनके लिए कुछ नही कर पा रही है.
सहारनपुर, हरिद्वार, देहरादून और हिमाचल प्रदेश में 110 किमी लंबी एक पर्वतश्रेणी है, जिसे शिवालिक कहते है. यहां वन गुर्जर नाम की जाति रहती है. वन गुर्जर आदिवासी तो हैं मगर इन्हें आदिवासी होने का जनजातीय लाभ नहीं मिलता. इन वन गुर्जरों की संख्या लाखों में है. यह बिल्कुल अलग संस्कृति है. शादी-ब्याह, खान-पान सबकुछ अलग है. ये लोग मोबाइल फोन इस्तेमाल नही करते. ज़रूरी प्राकृतिक संसाधनों और पुराने तौर-तरीकों पर ही निर्भर हैं और और शिक्षा से भी दूर हैं. मुद्रा का चलन यहां बहुत कम है. दूध के बदले अनाज या जरूरत की दूसरी चीज़े लेते हैं. सभी वन गुर्जर इस्लाम को मानते है और वैसा ही पहनावा रखते हैं. यहां छोटी-छोटी स्कूलनुमा जगहें हैं. एक छप्पर डालकर कुछ बच्चे यहां पढ़ते हैं. पढ़ाने के लिए शिक्षकों की व्यवस्था भी बेहद रोचक है. यहां बच्चों के लिए नही बल्कि टीचरों के लिए हॉस्टल है.
चुनावों के साथ याद आते हैं वन गुर्जर
उत्तर प्रदेश की विधानसभा नम्बर 1 बेहट, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश से सटी शिवालिक पहाड़ियों मे 2 लाख से ज्यादा वन गुर्जर रहते है. इनमें से दो तिहाई अब उत्तर प्रदेश और उतराखंड में चुनाव मे भागीदारी करेंगे. यहां कुल 20 हजार लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल हैं, जिसमें मोहण्ड क्षेत्र अग्रणी है. चुनाव से ठीक पहले उत्तरखंड सरकार ने इनके लिए इको डेवलपमेंट योजना लॉन्च की थी.
मुख्यधारा से बिल्कुल कटे हुए वन गुर्जर समुदाय की याद अक्सर चुनावो की आहट के साथ आ जाती है.
राजाजी नेशनल पार्क बाघ और हाथी समेत कई वन्य जीवों का बसेरा है. वन्य जीवन के संरक्षण की कोशिशें भी इस पार्क में पिछले कुछ सालों में सफल साबित हुई हैं. साथ ही वन गुर्जरों के तौर पर इंसानी जीवन भी इन जंगलों में सदियों से सांसें लेता रहा है. लेकिन जब से वन्य जीवन को बचाने के लिए पार्क प्रशासन के कायदे-कानूनों का शिकंजा कसना तेज हुआ है, तब से वन गुर्जरों के सामने परेशानियां खड़ी हो गई हैं.
हालांकि इन लोगों की जंगल पर निर्भरता कम करने के लिए 1991 में इको डेवलपमेंट प्लान योजना भी बनी थी. यह योजना वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट लागू होने के साथ ही शुरू की गई थी. ताकि वन कानूनों के साथ वन गुर्जर समाज का विकास हो सके. लेकिन शुरुआती कुछ सालों में ही यह योजना दम तोड़ गई. आज इस योजना के तहत बनायी गयी एक भी इको डेवलपमेंट समिति अस्तित्व में नहीं है. इस योजना का एक उद्देश्य वन गुर्जरों को सुविधाएं देकर विकास की मुख्यधारा से भी जोड़ना था. लेकिन अब न तो वन गुर्जरों के हाथ में जंगल हैं और न ही उन्हें सुविधाएं मिल सकी हैं.
राजाजी नेशनल पार्क के आसपास बफर जोन में करीब वन गुर्जरों की करीब 1 लाख की बसावट है. जिनमें मोहंड रेंज, मोतीचूर और चीला रेंज प्रमुख हैं. इन सभी इलाकों में 90 फीसदी वन गुर्जर आज भी खानाबदोश जीवनयापन कर रहे हैं. मुख्यतौर पर पशुपालन के जरिए अपनी आजीविका चलाने वाले इन लोगों के सर्दियों के छः महीने राजाजी पार्क के इन्हीं इलाकों में गुजरते हैं. जबकि गर्मी शुरू होते ही वे पहाड़ों का रुख करते हैं. ऐसे में इस समाज के बच्चे प्राइमरी शिक्षा से भी वंचित रह जाते हैं.
पार्क के अधिकारी भी मानते हैं कि वन गुर्जरों की जंगलों पर निर्भरता कम करने की योजना ठीक से आगे नहीं बढ़ सकी. राजाजी नेशनल पार्क के उप वन संरक्षक किशन चंद बताते हैं कि अब पार्क क्षेत्र में वन्य जीव संरक्षण की योजनाओं की सफलता को देखते हुए इस ओर भी ध्यान दिया जा रहा है. यही वजह है कि इस योजना को दोबारा शुरू करने की तैयारी हो रही है. जिसके तहत वन गुर्जरों को रसोई गैस, केरोसीन उपलब्ध कराने के साथ ही उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की गतिविधियों से जोड़ा जा सके.
बेटे को दहेज देते है वन गुर्जर
बेटे को दहेज…सुनने में थोड़ा अजीब ज़रूर लगेगा लेकिन ये बिल्कुल सच है. दहेज प्रथा को समाज में कलंक के तौर पर देखा जाता है, लेकिन उत्तराखंड में वन गुर्जर एक ऐसा समुदाय है जहां बेटे को दहेज के बिना विवाह संस्कार पूरा होना संभव ही नहीं माना जाता. इस समुदाय में बेटियों नहीं बल्कि बेटों के बदले दहेज दिया जाता है.हमारे देश की बहुरंगी परंपरा की यही खासियत है कि कुछ स्थानो पर बेटियों को अभिशाप नहीं समझा जाता बल्कि बेटियों को वास्तविक लक्ष्मी का दर्जा देते हुए उनकी पूजा की जाती है. दरअसल, वन गुर्जर परिवारों में अगर किसी के घर बेटी जन्म लेती है तो उनकी खुशी दोगुनी हो जाती है. इसकी एक बड़ी और खास वजह ये है कि इस समुदाय में बेटियों को भार नहीं समझा जाता बल्कि उन्हें सुख और समृद्धि का परिचायक माना जाता है.
कालागढ़ टाईगर रिजर्व के जंगलों और राजाजी नेशनल पार्क से लगे इलाकों में सदियों से निवास करने वाले वन गुर्जरों में वर पक्ष से दहेज लेने की परंपरा है. कालागढ़ में रहने वाले वन गुर्जरों का कहना है कि उनके परिवार में बेटियों के पैदा होने पर खुशी भी मनाते हैं और भोज भी देते हैं. इसलिए उन्हें भार तो कतई नहीं समझा जाता. स्थानीय गुर्जरों के मुताबिक जब भी परिवार में किसी बेटी की शादी होती है तो उससे पहले दूल्हे पक्ष के लोग ही कन्या पक्ष के घर पर दुल्हन का हाथ मांगने आते है. दुल्हन का हाथ मांगने के बदले में दूल्हे पक्ष को परंपरा के मुताबिक दुल्हन पक्ष को पारितोषिक का भुगतान करना पड़ता है. दरअसल, वन गुर्जरों में चली आ रही सदियों पुरानी परंपरा के मुताबिक जन्म से लेकर शादी तक बेटी के पालन-पोषण में परिवार का जितना भी खर्चा होता है, वह शादी के वक्त वर पक्ष को भुगतान के रूप में देना पड़ता है.
बेटियों को पशुधन की अच्छी देखभाल करने और परिवार को एकजुट होकर बांधने में वन गुर्जर महिलाओं का कोई सानी नहीं है. क्योंकि जगंलों में कईं दिनों तक बिना परिवार के मुखिया के भी महिलाएं अपने परिवार की अच्छी तरह से देखभाल कर लेती हैं. हालांकि दहेज प्रथा को मौजूदा दौर में घृणा की नजर से देखते हैं और उल्लंघन करने पर सजा का भी प्रावधान है लेकिन वन गुर्जरों के साथ ऐसा नहीं है. इसके अलावा इस समुदाय में विवाह करने के लिए लड़की के बदले लड़की देने का भी रिवाज है. अगर वर पक्ष बदले में लड़की नहीं दे पाता है तो उसे घर जमाई बनकर रहना पड़ता है.