सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net
वाराणसी : उत्तर प्रदेश में शुरू हो चुकी चुनावी प्रक्रिया में जो कुछ विधानसभा क्षेत्र बेहद अहम माने जा रहे हैं, उनमें एक बड़ा नाम वाराणसी यानी बनारस का है. यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकसभा सीट भी है और बीते ढाई सालों के कार्यकाल में नरेंद्र मोदी ने यहां कई दौरे किये हैं, कई योजनाओं का उदघाटन किया है और साथ ही अपनी पिछली बनारस यात्रा में उन्होंने भाजपा के जमीनी काडर को चुनाव के मद्देनज़र प्रोत्साहित करने का काम भी किया है.
लेकिन पिछले विधानसभा चुनावों के परिणामों और इस साल की उठापटक को देखें तो मालूम होता है कि इस साल भाजपा वाराणसी के विधानसभा क्षेत्र, जनता के रुझान और संभव परिणामों को लेकर थोड़ी मुश्किल में है.
बनारस में कुल मिलाकर आठ विधानसभा सीटें हैं. इन सीटों में पिंडरा, अजगरा, शिवपुर, रोहनिया, शहर उत्तरी, शहर दक्षिणी, कैंट और सेवापुरी विधानसभा सीटें शामिल हैं. इनमें से पिंडरा सीट विधायक अजय राय के नाम पर लगभग तय मानी जाती है. 2012 के विधानसभा चुनावों में अजय राय ने यहां कांग्रेस के टिकट से 52,863 वोटों से जीत दर्ज की थी, इस सीट पर दूसरे स्थान पर बसपा के जयप्रकाश ने 43,645 वोटों के साथ कब्जा जमाया था.
यहीं अजगरा सीट पर देखें तो बसपा के मजबूत प्रत्याशी त्रिभुवन राम ने यहां 60,239 वोटों से जीत दर्ज की थी, लेकिन उन्हें समाजवादी पार्टी के लालजी ने मजबूत टक्कर दी थी. मात्र दो हज़ार वोटों के अंतर पर सपा ने इस सीट पर 58,156 वोटों से दूसरे स्थान पर अपनी जगह बनायी थी.
शिवपुर विधानसभा सीट पर भी 2012 में बसपा ने ही जीत दर्ज की थी. शिवपुर सीट से मायावती के करीबी माने जाने वाले उदय लाल मौर्या ने 48,716 वोटों से जीत दर्ज की थी, उन्होंने इस सीट पर बसपा ने सपा के पीयूष यादव को लगभग 12,000 मतों से हराया था.
बनारस में इस साल की सबसे रोचक सीट मानी जा रही है रोहनिया विधानसभा सीट. 2012 में अपना दल की अनुप्रिया पटेल ने इस सीट से रिकॉर्ड 57,812 सीटों के साथ जीत दर्ज की थी, उन्होंने बसपा के रमाकांत सिंह को हराया था, जो अनुप्रिया पटेल की स्पर्धा में 40,229 वोट ही बटोर सके थे. अपना दल के संस्थापक सोनेलाल पटेल की पूर्वांचल के कुर्मी वोटों में अच्छी-खासी पकड़ मानी जाती रही है. सोनेलाल पटेल ने अपना दल की नींव बसपा से टक्कर लेने के लिए की थी, और वे इसमें काफी सफल भी हुए थे. कुर्मियों के साथ-साथ पार्टी को कुछ पिछड़ी जातियों का भी साथ बीते वक़्त में हासिल हुआ है. सोनेलाल पटेल की मौत के बाद उनकी बेटी अनुप्रिया पटेल ने पार्टी की बागडोर सम्हाली. 2014 के लोकसभा चुनाव में अनुप्रिया पटेल ने अपना दल के साथ भाजपा का हाथ थाम लिया था. बीते साल मोदी सरकार ने उत्तर प्रदेश चुनावों के कुर्मी वोटों को साधने की नीयत से अनुप्रिया पटेल को केन्द्रीय मंत्री का दर्जा भी दे दिया. लेकिन इधर स्व० सोनेलाल पटेल की पत्नी कृष्णा पटेल नीतीश कुमार और कांग्रेस से लगातार बातचीत में थीं, चर्चा यह भी है कि वे महागठबंधन में शामिल हो सकती हैं. इसी बात पर अपना दल में दोफाड़ हो गया और पार्टी में कृष्णा गुट और अनुप्रिया गुट बन गए. अब मुलायम-अखिलेश की तर्ज पर कृष्णा-अनुप्रिया दोनों ही पार्टी के भविष्य को सहेजने के लिए चुनाव आयोग की शरण में हैं.
सेवापुरी विधानसभा सीट पर साल 2012 में सुरेन्द्र सिंह पटेल ने समाजवादी पार्टी को 56,849 वोटों से जीत दिलाई थी. सुरेन्द्र सिंह पटेल वर्तमान में राज्य सरकार में मंत्री भी हैं. उन्होंने सेवापुरी सीट पर अपना दल के नील रतन पटेल को हराया था. इस चुनाव में नील रतन पटेल ने 36,942 मत पाए थे.
अब शहर की ओर रुख करें तो शहर उत्तरी सीट से बीते विधानसभा चुनाव में भाजपा के रवीन्द्र जायसवाल ने 47,980 वोटों के साथ जीत दर्ज की थी. रवीन्द्र जायसवाल मोदी के करीबी नेताओं में से एक हैं. शहर के कई कार्यक्रमों में फीता-रिबन काटते अक्सर दिख जाते हैं. लेकिन इस चुनाव में उन्हें जीत का स्वाद बेहद मशक्कत के साथ चखने को मिला था क्योंकि उन्हें दूसरे स्थान पर रहे बसपा के सुजीत कुमार मौर्या ने कड़ी टक्कर दी थी. सिर्फ़ 1700 वोटों के अंतर से हारे सुजीत मौर्या ने इस चुनाव में 45,644 वोट बंटोरे थे.
शहर दक्षिणी की विधानसभा सीट भाजपा के श्यामदेव राय चौधरी ‘दादा’ के नाम बीते कई विधानसभा चुनावों से लगभग ‘रिज़र्व’ हो गयी है. जनता और पार्टी में भी अच्छी छवि बनाए हुए श्यामदेव राय चौधरी को हरा पाना या दूसरी सीट से लड़ाना खतरों से भरा कदम साबित हो सकता है. ‘दादा’ जनता के मुद्दों को लेकर धरना प्रदर्शन और उनका निवारण करते रहे हैं. शहर की चरमराई बिजली व्यवस्था को सुधार की ओर ले जाने का श्रेय नगरवासी ‘दादा’ को देते रहे हैं. 2012 में श्यामदेव राय चौधरी ने 57,868 वोटों से जीत दर्ज की थी. दूसरे स्थान पर रहे कांग्रेस के दयाशंकर मिश्रा ‘दयालु गुरू’ ने 44,046 वोट पाए थे. नया कलेवर तो यह है कि नगर के पूर्व सांसद राजेश मिश्रा का दाहिना हाथ कहे जाने वाले दयाशंकर मिश्रा ‘दयालु’ ने कुछ समय पहले भाजपा का हाथ थाम लिया है. कहा जा रहा है कि वे राजेश मिश्रा की स्टेपनी बने-बने थक गए थे. अब उन्हें दक्षिणी की सीट से लड़ाना ‘दादा’ के परंपरागत समर्थकों को निराश करना साबित हो सकता है, क्योंकि दयाशंकर मिश्रा जहां पार्टी के नेता कहे जाते हैं और उनके अधिकतर समर्थक और वोटर पार्टी से जुड़े हुए हैं, वहीँ ‘दादा’ को आम जनता का बहुत समर्थन प्राप्त है.
अब बचती है कैंट विधानसभा सीट. यहां से भाजपा की वयोवृद्ध प्रत्याशी ज्योत्स्ना श्रीवास्तव 57,918 वोटों से विजयी रही थीं, उन्होंने कांग्रेस के अनिल श्रीवास्तव को हराया था, जो 45,066 पाकर दूसरे स्थान पर रहे थे. ज्योत्स्ना श्रीवास्तव का नाम भाजपा की ओर से अब सामने नहीं आ रहा है. लालबहादुर शास्त्री के पोते समीप शास्त्री इस सीट से भाजपा के टिकट के जुगाड़ में लगे हुए हैं, लेकिन उन्हें अभी तक कोई सफलता नहीं मिली है.
ऐसे देखें तो शहर की तीन सीटों को छोड़कर भाजपा ने बीते विधानसभा चुनावों में किसी भी सीट पर जीत नहीं दर्ज की. जीत क्या, भाजपा बाकी की सीटों पर दूसरा स्थान भी पाने में असफल रही. किसी सीट पर वह तीसरे स्थान पर रही तो किसी सीट पर चौथे स्थान पर. यदि अनुप्रिया पटेल की सीट को भी जोड़ दिया जाए तो इन सीटों की संख्या को चार गिनने की जल्दबाज़ गलती की जा सकती है, लेकिन अनुप्रिया पटेल और उनकी मां के बीच खींचतान ख़त्म होने पर ही इस सीट पर कोई निर्णायक स्थिति बन सकेगी. छोड़ा तो रवीन्द्र जायसवाल की शहर उत्तरी की सीट को भी जा सकता है क्योंकि बेहद मुश्किल से जीते रवीन्द्र जायसवाल के भविष्य पर कोई मजबूत दांव नहीं खेला जा सकता, लेकिन तथ्यात्मक रूप से यह बढ़त उन्हें देनी चाहिए.
यदि सपा-कांग्रेस के बीच गठबंधन को किसी संभावना की तरह देखें तो सपा और कांग्रेस का परंपरागतगत वोटर इन तीन सीटों पर भी भाजपा को कड़ी टक्कर दे सकते हैं और बाकी सीटों पर शायद भाजपा के प्रत्याशी जमानत भी जब्त करवा सकते हैं. एक और संभावना है कि यदि गठबंधन विफल भी रहता है तो कांग्रेस इस सीट पर कुछ बड़े नामों को मैदान में उतारने की तैयारी में है.
पूर्व सांसद राजेश मिश्र, जिनके चुनाव लड़ने की ख़बरें तेज़ हैं, यदि खड़े होते हैं तो कांग्रेस के पिंडरा के अलावा एक और सीट निकाल सकती है. अजगरा विधानसभा से युवा अनूप श्रमिक कांग्रेस के लिए लगे हुए हैं, करीबी उनके नाम को लगभग तय भी मान रहे हैं, ऐसे में यदि पार्टी उन्हें टिकट दे भी देती है तो उनके भाग्य का फैसला गठबंधन होने या न होने पर ही निर्भर करता है.
समाजवादी पार्टी की बात करें तो शहर उत्तरी से अब्दुल समद अंसारी और कैंट की सीट से रीबु श्रीवास्तव के नाम अभी तक तो तय हैं. सेवापुरी से सुरेन्द्र सिंह पटेल को हटाया नहीं जा सकता है. बाक़ी नामों पर अभी संदेह पसरा हुआ है.
भाजपा के नए-नवेले दामाद दयाशंकर मिश्र ‘दयालु’ को कैंट से लड़ाने की खबरों का बाज़ार गर्म है. यदि ऐसा हुआ तो लालबहादुर शास्त्री के पोते नाराज़ हो जाएंगे और ऐसी स्थिति में कांग्रेस उन्हें लपक सकती है.
बसपा के परंपरागत वोटर गाँवों में रहते हैं, जो ऊपर की सूची में सबसे पहले गिनाए गए हैं. बीते साल अमित शाह ने दलित के घर मिनरल वाटर की बोतल के साथ शिवपुर विधानसभा में ही खाना खाया था, फिर भी पार्टी का सम्पर्क कार्यक्रम यहीं पर दम तोड़ देता है.
सूत्रों की मानें तो भारतीय जनता पार्टी बनारस को लेकर किसी नयी रणनीति पर काम कर रही है, जिससे वह समाजवादी पार्टी, बसपा और कांग्रेस के वोटरों में सेंध लगा सके, लेकिन इस पर अभी पार्टी में कोई स्थिति स्पष्ट नहीं है. मोदी के गढ़ में संकट झेल रही भाजपा – जिसे कांग्रेस की तरह ही शहरी पार्टी कहा जाता रहा है – नए प्रत्याशियों या नयी रणनीतियों के साथ क्या फेरबदल कर पाती है, यह आने वाला वक़्त ही बाता पाएगा.