यूपी चुनाव में मुस्लिम वोटों की ठेकेदारी का टेंडर ओपन

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

यूपी चुनाव में दूसरे चरण की अधिसूचना लागू हो चुकी है. खुद को सेकुलर कहने वाली सियासी पार्टियां सबसे अधिक परेशान मुस्लिम वोटों के रूख को लेकर हैं. जिन पार्टियों पर साम्प्रदायिकता का ठप्पा लगा हुआ है, वे भी इस गुणा-भाग में उलझी हुई हैं कि इस बार मुसलमान किधर जाएगा और उसका फ़ायदा उन्हें कैसे मिलेगा. 


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इस बीच मुसलमानों के क़ौमी रहनुमाओं की खेप भी सक्रिय हो चुकी है. मुसलमानों को सियासी पार्टियों के पक्ष में लामबंद करने के लिए कौमी रहनुमा खुद ‘लामबंद’ होकर मैदान में उतर चुके हैं. सभी मुसलमानों को अपनी-अपनी राह खींचने की कोशिश कर रहे हैं. उनकी राहें कुछ सियासी रहनुमाओं के रहमो करम पर हैं. जिसके एवज में उन्हें सियासी पार्टियों से अच्छी ख़ासी क़ीमत या तो मिल चुकी है या मिलने वाली है.

जमीयत-ए-उलेमाए हिन्द, जमाअत-ए-इस्लामी हिन्द, मुस्लिम मजलिस-ए-मशावरत और मिल्ली काउंसिल जैसी तंज़ीमें अभी तक यही तय नहीं कर सकी हैं कि मुसलमान किसके साथ जाए? मीटिंग दर मीटिंग का दौर जारी है, लेकिन नतीजा सिफ़र है. वो भी तब जब यूपी चुनाव के दूसरे चरण की अधिसूचना जारी हो चुकी है.

यानी यूपी के चुनाव में मुसलमानों के वोटों की ठेकेदारी शुरू हो चुकी है. मुस्लिम तंज़ीमों ने एक बार फिर से ये क़वायद शुरू कर दी है. मगर हैरानी की बात ये है कि ये तंज़ीमें इस क़दर बंटी हुई हैं कि मुसलमानों को कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा है. 

बताते चलें कि यूपी में धर्मनिरपेक्ष वोटों का बंटवारा न हो, इसके मद्देनज़र ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मशावरत ने एक पहल की और कई मीटिंगे बुलाईं. 

मुस्लिम मजलिस-ए-मशावरत के राष्ट्रीय अध्यक्ष नवेद हामिद बातचीत में बताते हैं, ‘मशावरत ने सबसे पहले जुलाई में दिल्ली में एक मीटिंग बुलाई, जिसमें तमाम मिल्ली तंज़ीमों के साथ-साथ कांग्रेस, सपा व बसपा जैसे तमाम अहम सियासी पार्टियों के नेता शामिल हुए. इस मीटिंग का सबसे अहम मुद्दा ये था कि कैसे सारी सेकुलर पार्टियों को एकजुट कर बिहार की तर्ज पर महागठबंधन बनाने के लिए बाध्य किया जाए, ताकि वोटों का बंटवारा न हो. इसके लिए लखनऊ में एक मीटिंग हुई और अक्टूबर में फिर से दिल्ली में तीसरी मीटिंग आयोजित की गई. लेकिन इन मीटिंगों का कोई खास नतीजा नहीं निकल सका.’

हालांकि सूत्रों की माने तो मशावरत के कुछ पदाधिकारियों के साथ बसपा के बड़े नेताओं की बात चल रही है और मशावरत भी फिलवक़्त बसपा के क़रीब जाने के पक्ष में दिख रही है.

वहीं जमाअत-ए-इस्लामी हिन्द के दफ़्तर में भी कई पार्टियों के नेता चक्कर काटते नज़र आए. कांग्रेस की शीला दीक्षित ने तो हेडक्वार्टर में जमाअत के तमाम बड़े लीडरों से मुलाक़ात की और साथ देने की बात रखी. वहीं बसपा के अशोक सिद्धार्थ, जदयू के केसी त्यागी और सपा के कई लीडर जमाअत-ए-इस्लामी हिन्द के लीडरों से मुलाक़ात कर चुके हैं. 

खैर, जब मशावरत की मीटिंगों का कोई ख़ास नतीजा नहीं निकला तब फिर से जमाअत-ए-इस्लामी हिन्द ने कई मिल्ली तंजीमों के साथ मिलकर एक दिल्ली के इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेन्टर में मीटिंग बुलाई. इस मीटिंग में खास तौर पर जमाअत-ए-इस्लामी हिन्द के अमीर मौलाना सैय्यद जलालुद्दीन उमरी, मोहम्मद अहमद, जमीयत-ए-उलेमाए हिन्द के सचिव मौलाना महमूद मदनी, नेयाज़ फ़ारूक़ी, मुस्लिम मजिलस-ए-मशावरत के अध्यक्ष नवेद हामिद, वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया के अध्यक्ष सैय्यद क़ासिम रसूल इलियास और मिल्ली काउंसिल की तरफ़ से दिल्ली अध्यक्ष डॉ. परवेज़ मियां शामिल थे. लेकिन जब इस मीटिंग का कोई नतीजा नहीं निकला तो एक और मीटिंग रविवार 22 जनवरी को आयोजित की गई. ये मीटिंग देर रात तक चली. इसमें बाक़ी जमाअतों के साथ जमीयत अहले हदीस भी शामिल थी. लेकिन इस मीटिंग का भी कोई नतीजा नहीं निकल सका. अब ये तंज़ीमें व उनके नुमाइंदे फिर से 3 फरवरी को बैठेंगे.       

इन सबके बीच जामा मस्जिद के शाही इमाम बुखारी मुलायम की मुखालफ़त का ऐलान कर चुके हैं. उन्होंने साफ़ तौर पर मुसलमानों को सपा से दूरीबनाने को कहा है. लंबे अरसे तक मुलायम के साथ-साथ चलने और अपने दामाद को अखिलेश की सरकार में मलाईदार पद दिला चुकने के बाद अब चुनावी मौक़े पर उनकी समाजवादी पार्टी से नहीं बन रही है. जमीअत-ए-उलेमा-ए-हिन्द के दो गुट दो अलग-अलग सुरों में बात कर रहे हैं. मौलाना अरशद मदनी सपा व कांग्रेस के क़रीब हैं तो वहीं मौलाना महमूद मदनी बहन जी के पाले में खड़े दिखाई दे रहे हैं. 

बरेलवी मसलक के तौक़ीर रज़ा खान भी सपा को पानी पी-पीकर कोस रहे हैं. ये वही तौक़ीर रज़ा खान हैं जो इसी सरकार में लाल बत्ती लेकर घूमते थे. लेकिन अब उन्हें अपनी नई राजनीतिक मंज़िल की तलाश है. हालांकि वो इस कोशिश में भी थे कि उनकी पार्टी को भी गठबंधन में शामिल कर लिया जाए.

दरअसल, सभी को अपने-अपने राजनीतिक मतलब साधने हैं. मगर नाम दिया जा रहा है मुस्लिम क़ौम की रहनुमाई का. एक इत्तेहाद फ्रंट भी बनाया गया था, जिसके इत्तेहाद का दूर-दूर तक पता नहीं है.

लखनऊ में शिया व सुन्नी धर्म-गुरूओं ने भी अपनी-अपनी कमानें संभाल ली हैं. नदवी को भी राजनीतिक पार्टियां साधने में लगी हुई हैं. मौलाना सलमान नदवी पहले से ही बहन मायावती की हिमायत में अपील जारी कर चुके हैं. कुल मिलाकर मुस्लिम क़ौम एक बार फिर से धर्म-गुरूओं के फ़रमान का ऐलान सुनने को तैयार बैठी है, ये अलग बात है कि इस ऐलान में एकजुटता की उम्मीद न के बराबर है. सिर्फ़ और सिर्फ़ क़ौम के नाम पर राजनीतिक अवसरवाद का खेल जमकर खेला जा रहा है.

क़ौम के ये रहनुमा आपस में ही इत्तेहाद बनाने में नाकाम रहे हैं. ऐसे में आम मुसलमान किसके साथ आए, किसका समर्थन करे और किसकी विरोध में उतरे, इनकी सबसे बड़ी कश्मकश यही है. भाजपा विरोध के नाम पर कई रहनुमा अपनी रोटियां सेंकते नज़र आ रहे हैं. ये वो रहनुमा हैं, जिनका न चुनाव के पहले पता था और न चुनाव के बाद ही उनकी कोई निशानी ढ़ूंढ़ने से भी मिलेगी. मगर चुनाव के दौरान इनकी रहनुमाई का जलजला हर ओर नज़र आएगा. आम मुसलमानों ज़िन्दगी की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि उसे राह दिखाने का दावा करने वाले खुद राह भटके हुए लोग हैं.

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