अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
मेरठ: शादी हो, तीज-त्योहार हो या फिर खुशी का कोई भी मौक़ा, मेरठ के बैंड-बाजों की छाप हर जगह नज़र आती थी. यहां के बैंड-बाजे कभी पूरे देश में मशहूर थे. मगर वो दौर कुछ और ही था. बदलते वक़्त ने मेरठ के इस कारोबार को भी बदहाल कर दिया है. ये कारोबार धीरे-धीरे अब यहां ख़त्म होने के रास्ते पर चल पड़ा है.
मेरठ के जली कोठी इलाक़े में बैंड-बाजों की मरम्मत करने वाले 40 साल के मो. ज़ियाउद्दीन का इस काम से पुश्तों का नाता है. बाप-दादा भी यही काम करते थे. दुकान तक़रीबन 50-60 साल पुरानी है. इस समय भी ज़ियाउद्दीन के चारों भाई इसी दुकान में काम कर रहे हैं.
ज़ियाउद्दीन बताते हैं, ‘अगर भाईयों का साथ न होता तो ये दुकान कब की बंद हो चुकी होती. क्योंकि अब कोई इस काम को सीखना नहीं चाहता. इस कारोबार में काम करने वाले लोग किसी और काम में लग गए हैं. कारीगर की भारी किल्लत है.’
बातचीत में ज़ियाउद्दीन कहते हैं, ‘कभी विदेशों में मेरठ से माल जाया करता था, लेकिन अब विदेशों से माल हमारे देश, बल्कि मेरठ की मंडी में भी आने लगा है. चीन के बने बैंड बाजे भी यहां के बाज़ार में खूब हैं.’
ज़ियाउद्दीन के मुताबिक, बीते 10-12 सालों में यहां तक़रीबन 80 फ़ीसदी लोग यह काम छोड़ चुके हैं. मेरठ में अब कारखाने काफी कम बचे हैं. बड़े दुकानदारों ने खुद के कारीगर रख लिए हैं. वे कहते हैं, ‘ऐसे में हमारे लिए काम ज़्यादा बचा नहीं है. लगता है कि ये काम अब ख़त्म होने जैसा ही है.’
बात दूसरी मुश्किलों की ओर आती है तो ज़ियाउद्दीन कहते हैं, ‘नोटबंदी ने तो हमें तोड़कर रख दिया. कैश की समस्या की वजह से दुकानदारों ने वादा करके भी पैसे नहीं दिए. अब हम तो इन्हीं दुकानदारों के भरोसे जी रहे हैं. लेकिन वो कहते हैं कि मार्केट में सेल ही नहीं है तो पैसा कहां से लाकर दें.’
ज़ियाउद्दीन की तक़लीफों के बीच एक सच यह भी है कि देश में शादी ब्याह का चलन भी बदला है और इस बदलते चलन और ऑर्केस्ट्रा व डीजे की बढ़ती डिमांड ने मेरठ के इस बैंड बाजे के कारोबार को दरकिनार कर दिया है. इस कारोबार से जुड़े लोग अपने जीविका के लिए अब मजदूरी व रिक्शा चलाने तक को उतर आए हैं. नोटबंदी ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी है.
मो. आरिफ़ ‘सईद बैंड कम्पनी’ नामक एक कारखाना चलाते हैं. इनके इस कारखाने में 7 कारीगर काम करते थे, लेकिन आरिफ़ के मुताबिक़ 2 कारीगर काम छोड़कर जा चुके हैं. अब ये दोनों कारीगर शहर में ई-रिक्शा चलाकर अपना पेट पाल रहे हैं. उनके मुताबिक़ पूरे शहर में बाजा बनाने वाले तक़रीबन 150 कारीगर ही बचे होंगे, जबकि दस साल पहले तक यहां दो हज़ार से अधिक कारीगर मौजूद थे.
आरिफ़ का यह भी कहना है, ‘नोटबंदी ने इन दिनों इस धंधे को और भी चौपट कर दिया है. हम माल दुकानदारों को देते हैं और दुकानदार कैश देने को तैयार नहीं है. वो चेक देने लगा है. अब चेक अगर बैंक में डाल भी दो तो हफ़्ते में 24 हज़ार रूपये ही निकल पाता है. वो भी ये अब मुमकिन हो सका है, नहीं तो जनवरी के पहले हफ़्ते तक पूरे दिन क़तार लगने के बाद भी पैसे नहीं मिलते थे. ऐसे में हम मजदूरों को पैसे कहां से लाकर दें.’
वहीं मोहित चोपड़ा के ‘चोपड़ा म्यूजिकल’ में काम करने वाले दानिश अहमद का कहना है, ‘26 जनवरी हम लोगों के लिए एक बड़ा सीज़न होता है. लेकिन इस बार ये फ्लॉप है. बाज़ार में ग्राहक ही नहीं हैं. कच्चे माल का भाव भी बाज़ार में काफी बढ़ गया है, लेकिन हमारे रेट अभी भी वहीं के वहीं हैं.’
‘गुलशन म्यूजिकल’ के मालिक 60 साल के अज़ीज़ुर्रहमान के मुताबिक़ उनकी ये दुकान उनके अब्बा ने खोली थी. तब से तक़रीबन 50-60 सालों से ये दुकान चली आ रही है.
अज़ीज़ुर्रहमान बताते हैं, ‘नोटबंदी के बाद हमारा कारोबार आधा रह गया है. कच्चा माल लाने में दिक्कत हो रही है. एजेन्ट कैश मांगते हैं, चेक लेने को जल्दी तैयार नहीं होते. वहीं ग्राहक दो सौ के सामान के लिए दो हज़ार का नोट पकड़ा देता है. अब चेंज नहीं है तो उसे पैसे कैसे वापस करें. बस ग्राहक भी मजबूरी में वापस चला जाता है और हमारा सामान वैसे ही पड़ा रह जा रहा है.’
नाहिद अली एंड कम्पनी के मालिक मो. यूनुस क़ुरैशी के मुताबिक़ नोटबंदी के कारण बैंड बाजे के इस कारोबार में 40-50 फ़ीसदी तक की कमी आई है. बाहर के ग्राहक लगभग न के बराबर ही आ रहे हैं और जिन लोगों के यहां माल गया है उनसे पेमेंट भी नहीं मिल पा रहा है.
हालांकि मो. यूनुस क़ुरैशी बताते हैं कि इस नोटबंदी का कोई असर यहां के विधानसभा चुनाव पर नहीं पड़ेगा क्योंकि यहां का इलेक्शन जातीय आधार पर होता है.
मो. यूनुस के मुताबिक़ इस कारोबार में ज़्यादातर मुस्लिम ही हैं. खासतौर पर सारे कारीगर मुसलमान हैं. हालांकि कुछ हिन्दू भी इस कारोबार में शामिल हो गए हैं. लेकिन यहां मुश्किल से उनकी चार-पांच दुकानें ही होंगी.
इसी जली कोठी इलाक़े में मेरठ की सबसे पुरानी कम्पनी ‘नादिर एंड कम्पनी’ है. ऐसा माना जाता है कि देश में बैंड बाजा उद्योग की नींव इसी नादिर एंड कम्पनी ने रखी थी. ‘नादिर एंड कम्पनी’ की फैक्ट्री मैनेजर आभा शर्मा बताती हैं, ‘इस कम्पनी से माल पूरे भारत में जाता है. लेकिन नोटबंदी से बिजनेस पर काफी फ़र्क़ पड़ा है. जहां एक तरफ़ बिक्री कम हो गई है, वहीं दूसरी तरफ़ नक़द पेमेंट भी नहीं आ पा रहे हैं.’
हालांकि आभा शर्मा इस कारोबार के ख़त्म होने का एक कारण डीजे के बढ़ते चलन को भी मानती हैं. वो बताती हैं, ‘डीजे का चलन देश में काफी बढ़ गया है. लोग शादियों व बारातो में बैंड बाजो की जगह डीजे बजा रहे हैं. वहीं कई जगह शादियों का तरीक़ा भी काफी बदल गया है. आजकल की शादियों में बैंड बाजे नहीं बज रहे हैं.’
वो इस बैंड बाजे का इतिहास बताते हुए बताती हैं कि हाजी इमाम बख्श ने क़रीब 1880 के दशक में बैंड बाजों का काम शुरू किया. बाद में उन्होंने इस काम को अपनी बहन के बेटे नादिर अली को सौंप दिया जो एक ब्रिटिश बैंड में बैंड लीडर थे. नादिर अली ने इस ब्रिटिश बैंड से इस्तीफ़ा देकर 1905 में अपना बैंड बनाया और साथ ही बैंड बाजो के उपकरण को आयात करना भी शुरू कर दिया. बस यहीं से नादिर एंड कम्पनी की नींव पड़ी. ये कम्पनी सौ साल से भी अधिक पुरानी है.
बताते चलें कि कि मेरठ के जली कोठी इलाक़े में आज से दस साल पहले तक सौ से अधिक बैंड-बाजो की दुकानें हुआ करती थीं, पर अब तक़रीबन 40 दुकानें ही बची हैं. इन दुकानों से महीने में करोड़ों का कारोबार होता था लेकिन अब इस कारोबार से जुड़े लोगों का सबसे बड़ा दर्द यह है कि इनके पास आज के तारीख़ में इतने संसाधन भी नहीं हैं जिससे कि ये अपने इस काम-धंधे को किसी भी तरह का विस्तार दे सकें. बस जो बचा है उसी को संजोए रखने में ये खर्च हो रहे हैं.
मेरठ के बैंड-बाजे का उद्योग कभी भी सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल नहीं रहा. बैंड-बाजे से जुड़े तमाम परिवार दूसरों की खुशियों में शरीक होते रहे और अपने ग़मों का रोना रोते रहे. न इनकी ओर प्रशासन ने कोई ध्यान दिया और न ही समाज के ज़िम्मेदार तबक़े ने ही आंख उठाकर देखने की ज़हमत उठाई. हालत यह है कि ये कारोबार धीमी मौत की तरफ़ बढ़ रहा है. अगर समय रहते इस पर ध्यान न दिया गया तो मेरठ की ये ऐतिहासिक पहचान बहुत जल्दी ही गायब हो जाएगी.