मोहम्मद अनीस उर रहमान खान
असफल और मेहनत से परहेज़ करने वाले लोगों के मुंह से अक्सर ये सुनने को मिल जाता है कि “भाग्य में ही लिखा था तो क्या करें?”
लेकिन समय बदल रहा है और यह वाक्य भी व्यर्थ होता नज़र आता है. क्योंकि अब लोगों ने अपनी क़िस्मत पर कम और मेहनत पर अधिक भरोसा करना शुरू कर दिया है. वह अपनी मेहनत और क़लम से सफलता की कहानी लिखने पर विश्वास करते हैं.
दिल्ली स्थित चरखा डेवलपमेंट कम्युनिकेशन नेटवर्क भी ऐसी ही ग़ैर-सरकारी व गैर-धार्मिक संगठन है, जो ग्रामीण भारत के युवाओं को अख़बारों के लिए लेखन का प्रशिक्षण देकर उनके मूल व स्थानीय समस्याओं को अपनी तीन भाषाओं उर्दू, हिंदी और अंग्रेज़ी में चलने वाली “चरखा फीचर्स” के लिए प्रेरित करती है. यूं कहें कि न सिर्फ़ प्रेरित करती है, बल्कि अपनी इस सेवा द्वारा देश के राजनेता और नीति निर्धारक वर्गों तक उनके इस लेखनी को पहुंचाती भी है, ताकि उनकी समस्याओं का समाधान खोजा जा सके.
इसी क्रम में एक चार दिवसीय लेखन कार्यशाला बिहार के ज़िला सीतामढ़ी के ब्लॉक पुपरी में भी आयोजित की गई, इसमें 22 प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया. इन प्रतिभागियों द्वारा लिखे गए लेख प्रकाशित भी हो चुके हैं और हो रहे हैं. मगर सवाल है कि लिखने से कोई लाभ भी होता है?
जवाब खोजने के लिए हमने इन प्रतिभागियों से बात की. इस संबंध में मोहम्मद राशिद कहते हैं, “इस कार्यशाला का सबसे बड़ा फ़ायदा ये हुआ है कि हमारे अंदर आत्मविश्वास पैदा हुआ. मैंने एक लेख लिखा, जो स्थानीय व राष्ट्रीय स्तर के अख़बार में छप भी चूका है. जिसके बाद निर्णय किया कि हम अपनी तक़दीर क़लम से लिखेंगे.”
ज़िला मुज़फ्फरपुर के थाना ओराई के गांव रामदुलारी से संबंध रखने वाली नूरानी फ़ातिमा बताती हैं कि “अब मेरे अंदर इतनी हिम्मत और जानकारी आ गई है कि मैं अब न सिर्फ़ अपना बल्कि दूसरों को भी उनका हक़ दिलाने में मदद कर सकती हूँ. मैं ब्लॉक पुपरी के तहत आने वाले गांव भिट्टा पंचायत कुशैल गांव के एक मिडिल स्कूल में गई. वहां के बच्चों ने शिकायत की कि हमें छात्रवृत्ति नहीं मिलती है. जिसके बाद मैंने शोध करके एक लेख लिखा है. देखते हैं इसका बच्चों को कैसे मिलता है. मुझे पूरा यक़ीन है कि इसका लाभ ज़रूर मिलेगा.”
छात्रा दौलत ख़ातून बताती हैं, “हम लोग पढ़े लिखे जाहिल थे. अधिक जानकारी नहीं थी. लेकिन अब हमारी आँखें खुल गई हैं.” वो आगे बताती हैं कि, “जब मैं घर का राशन लेने राशन डिपो गई तो वहां मैंने देखा कि राशन डीलर प्रत्येक राशन कार्ड पर तीन किलो राशन कम दे रहा है, मैंने सवाल किया तो जवाब मिला कि यहां इतना ही मिलेगा जो चाहो कर लो! मैं राशन कार्ड पर लिखा टोल फ्री नंबर डायल करने लगी तो उसने मुझसे पूछा क्या कर रही है? मैंने जवाब दिया कि खाद्य निरीक्षक को फोन करके आपकी शिकायत. उसने तुरंत मुझे रोक दिया और खुशामद करते हुए कहा कि तुम तो अच्छी लड़की हो. मैं तुम्हारा राशन कम नहीं करूंगा. मैंने कहा कि मेरा नहीं किसी का भी कम नहीं होना चाहिए. उन्होंने कहा अच्छा ऐसा ही होगा. मैं दिल ही दिल में अपनी सफलता पर झूम उठी, मुझे लगा अब मैं भी समाज के लिए कुछ अच्छा कर सकती हूँ.”
राशिद, फ़ातिमा व दौलत की तरह बाक़ी प्रतिभागियों की भी अपनी कहानी है. अब मेरे मन में सवाल आया कि आख़िर उन लोगों को क्या मिलता है जिनके बारे में लेख लिखे जाते हैं? जवाब जानने के लिए हमने सीतामढ़ी के कोर्डिनेटर क़मरे आलम शाज़ से बात की तो उनका जवाब था कि, “लेखन कार्यशाला के कुछ दिनों बाद जब मैं उस गांव में गया, जहां हमारी कार्यशाला आयोजित हुई थी, तो वहां देखा कि दो समस्याएं हल होने वाली थी, जिन पर हमारे प्रतिभागियों ने लिखा था. एक तो यह कि मिडल स्कूल का रास्ता नहीं था, अब वहां मिट्टी और ईंट के ढेर लगे थे और काम भी चल रहा था. दूसरा यह कि गांव के एक से दूसरे मुहल्ले में जाने के लिए कोई भी रास्ता नहीं था. लोगों को पानी और दूसरों के खेत में से आना जाना करते थे. वहां रोड बनने की तैयारी चल रही थी.”
वो आगे बताते हैं कि, “गांव के लोग भी इससे खुश हैं और वह फिर हमें अपने गांव में आमंत्रित कर रहे हैं, लेकिन अब हमारा मोड़ किसी और गांव की तरफ़ होगा, क्योंकि मुद्दों की कमी नहीं है. केवल शासक वर्ग को एहसास दिलाने की ज़रूरत है.”
यानी अब मुझे समझ में आ गया कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि लेखन लोगों के भाग्य ज़रूर बदल देता है. शर्त यह है कि उन्हें जनता के कल्याण के इरादे से लिखा जाए.
(लेखक चरखा फीचर्स के डिप्टी एडीटर और परियोजना प्रबंधक हैं. उनसे [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है.)