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‘पिछले चार सालों में हम भूल चुके हैं कि ईद क्या होती है…’

आस मुहम्मद कैफ़, TwoCircles.net

जानसठ (मुज़फ़्फ़रनगर) : ज़िला मुज़फ़्फ़रनगर का जानसठ इलाक़े का इतिहास बहुत प्रसिद्ध रहा है. यहां के सैय्यद ब्रदर्स का एक समय पूरे भारत में दबदबा था. मगर जानसठ से महज़ 3 कि.मी. दूर भलवा गांव में यहां के तमाम बड़े मुस्लिम नेता पिछले 4 साल से शरणार्थी बनकर रह रहे यहां हुए दंगे के पीड़ितों के घर के बाहर एक पक्का रास्ता नहीं बनवा पा रहे हैं.

गांव के शराफ़त बेग बताते हैं कि, 2013 में दंगो के बाद यहां लगभग 40 परिवारों ने शरण ली थी, जिन्हें गांव वालों ने ज़मीन दे दी और गुजरात से आए एक शख़्स ने इनका घर बनवा दिया. तब यह तय हुआ था कि हमारे इस इलाक़े का रास्ता प्रधान अपनी निधि से बनवा देंगे, मगर आज तक ऐसा नहीं हुआ.

यह रास्ता इतना ज़रूरी क्यों है? इस सवाल के जवाब में बामनोली बागपत से दंगा के दौरान भागकर आए परवेज़ सैफ़ी बताते हैं, चार साल से घर के बाहर कीचड़ रहती है. बरसात में घर के अंदर 2 फ़ीट पानी घुस जाता है. गहराई में होने की वजह से यह जगह घोषित तालाब बन गई है. बारिश में छत पर भी नहीं बैठ सकते.

गांव के ही डॉक्टर सरताज कहते हैं, तमाम नेतागणों से गुहार लगी ली, मगर कोई नहीं सुनता. ऐसा लगता है कि जैसे दंगा पीड़ितों को लेकर अफ़सरों और नेतागणों में विशेष नाराज़गी है.

बताते चलें कि 2013 में हुए दंगो में सबसे अधिक प्रभावित शामली और बागपत के लोग हुए थे. और वही लोग यहां रहते हैं.

शादाब बताते हैं, हम खेड़ी गांव रहते थे. भट्टे पर ईंट पाथने का काम था. पास के मोहम्मदपुर रायसिंह, लिसाढ़, बहावड़ी जैसे गांव में नरसंहार हो गया. दहशत आसपास फैलने लगी. लोग सबकुछ छोड़कर भागने लगे. तब हम भी यहां आ गए. पहले कुछ दिनों तक यूं ही छप्पर डाल कर रहे. कुछ महीनों बाद गांव वालों ने हमें ज़मीन दे दी और गुजरात के एक अच्छे इंसान ने हमारे घर बनवा दिये, मगर यह ज़मीन गहराई में थी और जल्दबाजी में बनी तो पहली बारिश में ही हमारे घर डूबने लगे और बीमारी फैलने लगी.

इसी बस्ती में रहने वाले शहनवाज़ का कहना है, यहां के प्रधान उनसे धार्मिक भेदभाव करते हैं और विधायक तो दंगों में रासुका में बंद रहे. अब यह हमें और अधिक परेशान करना चाहते हैं. 2013 के 4 साल बाद इस बस्ती में बिजली आई है. अहसान भी बताते हैं कि चार साल बाद अब यहां रौशनी होगी, वरना रात में मोमबत्ती ही जलाते थे.

यहां बताते चलें कि जब हम इनका हाल-ए-ग़म सुन रहे थे तो हमारे सामने ही बिजली के तार खींचे जा रहे थे. यह भी स्पष्ट रहे कि कुल 35 घरों की इस बस्ती में ज्यादातर लोग भट्टों पर मज़दूरी करते हैं, जबकि एक सैफ़ी परिवार की हालात थोड़ी बेहतर है. इनका लड़का शुऐब ने प्रथम श्रेणी से स्नातक किया है और वकालत करना चाहता है.

शुऐब बताता है कि, हम लोग बामनोली (बाग़पत) में गंडासा (घास काटने का तेज़ धार वाला औज़ार) बनाने का काम करते थे और किसानों के लिए ही औज़ार बनाते थे. जब दंगा हुआ तो एक पड़ोसी भैय्या गंडासा हाथ में लेकर कहने लगे धार तो बहुत है इसमें, और फिर उसी गंडासा से मेरे सामने ही एक की गर्दन काट दी.

वो अपनी आंखों के आंसू पोंछते हुए कहते हैं, हम लोग रातों-रात भाग आए. हमारा अच्छा घर था, पर उस खौफ़ व दहशत से हमने अपना सबकुछ छोड़ दिया. मगर हम फिर से अपने पैरों पर खड़े होने लगे हैं.

बस्ती के ज़्यादातर बच्चे स्कूल नहीं जाते. हां, ये ज़रूर है कि छोटे-मोटे कामों में अपने घर के लोगों का हाथ बंटाते हैं. जैसे इरशाद गांव में घूमकर गन्ने का रस बेचते हैं और उनका 10 साल का बेटा उनके साथ रहता है.

गन्ने में मिठास होता है, मगर दिल में अब भी कड़वाहट है. वो हमसे एक लंबी बातचीत में कहते हैं, वो कमज़ोर है, मगर बद्दुआ तो दे ही सकता है. अल्लाह हम लोगों के साथ ज़रूर इंसाफ़ करेगा.

इस बस्ती के ठीक बाहर एक मस्जिद है. लोगों के मुताबिक़ ये तक़रीबन 950 साल पुरानी है. इस पर हज़रत आलमगीर शाह का नाम खूदा है. इसके ठीक पीछे यह लोग रहते हैं. यहां सिर्फ़ दो घरों पर पेंट हुआ है बाक़ी पर सीमेंट पुराने स्वरुप में है. फिलहाल हालात सुधरने की आगे भी कोई उम्मीद दिखाई नहीं देती, क्योंकि परिवार का मुखिया 200 रुपए रोज़ से ज्यादा नहीं कमा पाते और परिवार में इसमें कुछ बचता नहीं.

कुछ लोगों से ईद की तैयारियों के बारे में पूछने पर बताते हैं, अभी तक हमने कुछ किया नहीं, आगे बस अल्लाह मालिक है. जैसे रमज़ान तक़रीबन गुज़र गया, ईद भी गुज़र ही जाएगी. वैसे भी पिछले चार सालों में हम भूल चुके हैं कि ईद क्या होती है. हां, अल्लाह से एक दुआ ज़रूर है कि ईद से पहले बस बारिश न हो…