फ़हमिना हुसैन, TwoCircles.net
आज मज़दूर दिवस भी गुज़र गया. हमने सोशल मीडिया पर इसकी बधाई भी दे दी. लेकिन मजदूरों के असल मुद्दे गायब रहे. सोशल मीडिया के इन बधाईयों से दूर मजदूर सूरज की जला देने वाली तपिश काम करते रहें. उन्हें इस दिवस व बधाई से क्या लेना-देना. लेकिन कम से कम हम आज तो उनके ऊपर होने वाले शोषण के विरूद्ध समाज दो-चार शब्द बोल या लिख देतें.
खैर, अगर मजदूरों की बात करें तो यहां भी महिलाएं सबसे अधिक शोषण का शिकार होती नज़र आती हैं. हालांकि महिलाएं भी पुरुषों के साथ बढ़-चढ़कर काम करती हैं, पर मज़दूरी में वे हर जगह मात खाती हैं. वो चाहे दिल्ली जैसे महानगर में बन रही कोई आलीशान इमारत का काम हो, या फिर सरकारी योजनाओं के अंतर्गत चलाया जा रहा कोई काम. इतना ही नहीं, घरेलू काम से लेकर खेत-खलिहानों और फिर बड़े ठेकों तक में भी न्यूनतम मज़दूरी की बात महिलाओं के लिए अधिकतर बेमानी ही साबित हुई है. राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी योजना के तहत जहां-जहां भी काम हुआ है, वहां सबसे ज़्यादा सक्रियता से महिलाओँ ने काम किया है, लेकिन वहां भी इन्हें सामान्य मज़दूरी नहीं मिलती है.
औरंगाबाद की रहने वाली लालती देवी अपने घर से 18 किलोमीटर का सफ़र तय करके डेहरी सिक्स लेन सड़क निर्माण कार्य में मजदूरी करने आती हैं. सुबह चार बजे जग कर अपने परिवार का खाना बनाकर और अपने तीन बकरियों के लिए पत्तियां जुटा कर छः बजे घर से निकल जाती हैं और शाम 5 बजे तक मज़दूरी करती हैं. उनके पति भी साथ में मजदूरी करते हैं, लेकिन जहां उनके पति गोगा कुमार को 250 रूपये मिलते हैं, वहीं लालती देवी को सिर्फ़ 175 रुपये.
दुर्गावती की रहने वाली रश्मि देवी बताती हैं कि उनके पति अहमदाबाद में एक फैक्ट्री में मज़दूरी करते हैं. इसलिए साल के छः महीने वो बाहर ही रहते हैं. उनके पीछे मुझे खेती भी देखनी पड़ती है साथ ही दो छोटे बच्चों की देखभाल भी और घर भी. पति की मज़दूरी से घर चलना मुश्किल होता है इसलिए वो भी मजदूरी कर रही हैं, लेकिन मर्दों के मुक़ाबले उन्हें सही मज़दूरी नहीं मिलती है. यही ही कहानी कुमारी खुश्बू व संगीता की भी है.
यहां बताते चलें कि अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के ताज़ा आकड़ों के मुताबिक़ भारत में पुरुष मज़दूरों के मुक़ाबले महिला मज़दूरों को 33 फ़ीसदी कम वेतन मिलता है. वहीं राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय द्वारा 2015-16 के लिए किए गए सर्वेक्षण के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में जहां पुरुष श्रमिकों की औसत दैनिक मज़दूरी 250 रुपये है, वहीं महिलाओं की औसत दैनिक मज़दूरी सिर्फ़ 180.14 रुपये दी जाती है.
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) की ग्लोबल जेंडर गैप—2015 रिपोर्ट के अनुसार महिला-पुरूष के बीच के इस अंतर को ख़त्म होने में और 118 वर्ष लग सकते हैं. यह रिपोर्ट 145 देशों की अर्थव्यवस्था के आधार पर तैयार की गई थी. वहीं मॉन्स्टर इंडिया ने अपनी रिपोर्ट में सैलरी गैप के पीछे कई वजहों का जिक्र किया है. रिपोर्ट के मुताबिक़ घरेलू बच्चों के पालन-पोषण की वजह से महिलाओं द्वारा नौकरी से अवकाश लेना और अन्य सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारणों से कम सैलरी ऑफर की जाती है. दूसरी ओर कंपनियां इन कारण की वजह से पुरुषों को नौकरी पर रखना पसंद करते हैं और उच्च पदों पर महिलाओं की तुलना में पुरुषों को अधिक पदोन्नति किया जाता है.
सिर्फ़ मजदूरी ही नहीं, भारत में महिला कार्यबल की भागीदारी में भी सुधार नहीं हो रहा है. डब्ल्यूईएफ़ की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट में भारत की रैंकिंग काफी नीचे है. वहीं इकोनॉमिक पार्टिसिपेशन एंड अपॉर्च्युनिटी इंडेक्स फॉर वीमेन 2015 की लिस्ट में भारत पांच पायदान फिसलकर 139वे नंबर पर आ गया है. इसमें कुल 145 देश शामिल हैं. भारत का इकोनॉमिक इक्विलिटी स्कोर 0.383 डिसमिल है, जबकि ज़ीरो को असमानता और एक को उत्तम माना जाता है.