चम्पारण सत्याग्रह के 100 साल पूरे होने पर केन्द्र और राज्य सरकार सैकड़ों करोड़ रूपये जश्न पर लुटा रही है, दूसरी तरफ़ उसी चम्पारण में दो मज़दूर नेताओं ने 15 साल तक अपने अधिकार के लिए संघर्ष करने के बाद आग लगाकर खुदकुशी कर ली है. पढ़िए TwoCircles.net की ये विशेष पड़ताल…
अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
मोतिहारी (बिहार) : 15 साल पहले बंद हुई मोतिहारी शुगर मिल की लेबर यूनियन के दो प्रमुख नेता नरेश श्रीवास्तव और सूरज बैठा ने 10 अप्रैल 2017 को खुदकुशी कर ली. दोनों नेता क़रीब 15 साल से मिल के मज़दूरों की तनख़्वाह और गन्ना किसानों की बक़ाया राशि के लिए आंदोलन कर रहे थे. लंबे संघर्ष के बावजूद जब मिल प्रबंधन और प्रशासन ने उनकी मांग पर गंभीरता नहीं दिखाई तो दोनों नेताओं ने ख़ुद को आग लगाकर ख़त्म कर लिया.
नरेश और सूरज सैकड़ों किसानों–मज़दूरों के साथ 07 अप्रैल से धरने पर बैठे थे, जो इनकी मौत होने के बाद उग्र हो गए. हालात क़ाबू करने के लिए पुलिस ने कई राउंड हवाई फायरिंग की और आंसू गैस के गोले छोड़ने पड़े. दोनों पक्षों में हुई झड़प में आठ पुलिस वाले और दर्जनों किसान–मजदूर घायल हो गए. शर्मनाक यह कि पुलिस ने किसानों-मज़दूरों पर अपने ही नेताओं को ख़ुदकुशी के लिए उकसाने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया है.
नरेश की मौत के बाद से उनकी 82 साल की मां बीमार चल रही हैं. पत्नी पूर्णिमा भारी आवाज़ में कहती हैं, ‘प्रशासन अगर सही होता तो मेरे पति आत्मदाह नहीं करते. मिल मालिक और प्रशासन की मिलीभगत ने उन्हें मरने के लिए मजबूर किया है.’
आंसू पोछते हुए पूर्णिमा कहती हैं, ‘उन्हें चुप रहने के लिए तीन करोड़ का लालच दिया गया था, लेकिन मेरे पति ऐसे नहीं थे. वो बाक़ी लोगों के लिए लड़ते रहे. जब भी मैं उन्हें कुछ कहती तो उनका जवाब होता था— हम ३ करोड़ की लालच में आ गए तो ग़रीब और कमज़ोर लोगों को उनका हक़ कैसे मिलेगा? उनके लिए कौन लड़ेगा?’
किसानों-मज़दूरों की बक़ाया राशि के लिए लंबा संघर्ष करने के बाद कोर्ट ने इनके पक्ष में आदेश दिया था. हालिया समझौते में कहा गया था कि एक सप्ताह के भीतर मिल प्रबंधन भुगतान कर देगा. रुपए देने के नाम पर मिल में मौजूद लाखों का कबाड़ भी बेचा गया, लेकिन इसके बावजूद भुगतान नहीं हुआ.
पूर्णिमा बताती हैं, ‘2010 और 2014 में भी मज़दूरों–किसानों के हक़ के लिए आत्मदाह की प्लानिंग थी, लेकिन उस समय प्रशासन ने संभाल लिया था.’ तब तत्कालीन एसडीओ ज्ञानेन्द्र कुमार ने प्रदर्शनकारियों को शांत कराते हुए 30 दिन के अंदर भुगतान करवाने का भरोसा दिलवाया था, लेकिन हुआ कुछ नहीं.
मिल मालिक और प्रशासन दोनों हैं बराबर के दोषी
नरेश श्रीवास्तव के छोटे भाई सुमित कुमार के मुताबिक़ 23 मार्च को ही भाई पुलिस-प्रशासन को सूचना दे चुके थे कि अगर 9 अप्रैल तक मांग पूरी नहीं हुई तो हम आत्मदाह कर लेंगे, लेकिन प्रशासन कान में तेल डालकर बैठा रहा. जितने क़रीबी थे, उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया.
पुलिस तब हरकत में आई जब नरेश की मौत हो गई. उनका दाह–संस्कार आनन-फ़ानन में करवा दिया गया. प्रशासन दबाव बनाता रहा कि आप लिखकर दे दीजिए कि लोगों ने उक्साकर आत्मदाह करवाया है. अभी भी प्रशासन दबाव बनाने में जुटा हुआ है.
सुमित साफ़ तौर पर कहते हैं कि इस पूरी घटना में जितने दोषी मिल मालिक है, उससे अधिक दोषी प्रशासन है. पुलिस 24 घंटे पहले ही अरेस्ट कर लेती तो शायद मेरा भाई ज़िन्दा होता.
हॉस्पीटल व प्रशासन के लोगों ने मारा
दूसरे प्रमुख नेता सूरज बैठा की पत्नी माया देवी भी यही कहती हैं कि प्रशासन की उदासीनता और अस्पताल की लापरवाही के चलते उनके पति की मौत हुई है. माया के मुताबिक़ उनके पति बार–बार किसी निजी अस्पताल में शिफ्ट होने के लिए कह रहे थे.
माया देवी कहती हैं कि पुलिस बार–बार कह रही है कि उन्हें भीड़ द्वारा उकसाया गया, लेकिन ये सरासर ग़लत है. अस्पताल में भर्ती होने के दौरान उन्होंने एक वीडियो में कहा है कि उन्होंने अपनी मर्ज़ी से आत्मदाह की कोशिश की, ताकि किसानों–मज़दूरों को उनका हक़ मिल सके. वो कहती हैं, मेरे पति ठीक होने लगे थे, लेकिन अचानक उनकी तबीयत बिगड़ी और फिर मौत हो गई.
माया देवी के मुताबिक़ सरकार ने 8 लाख रूपये मुवाअज़ा देने का ऐलान किया, लेकिन सिर्फ़ 4 लाख 12 हज़ार 500 रूपये ही मिले. बच्चे को नौकरी और मुझे पेंशन देने का वादा किया गया है. लेकिन अभी कुछ भी नहीं मिला है.
प्रशासन ने बचाया नहीं, तमाशा देखा
भाकपा के पूर्व सुगौली विधायक रामाश्रय सिंह ने TwoCircles.net से कहा है कि हम लड़कर मरने में विश्वास करते हैं, मर कर लड़ने में नहीं. लेकिन इस मामले में ऐसी स्थिति पैदा करने के लिए सरकार जवाबदेह है. सरकार 2002 से इनकी आवाज़ नहीं सुन रही थी. ऐसी स्थिति में हताशा पैदा होती है, और हताशा में कोई भी गले में फंदा लगा लेता है.
रामाश्रय सिंह कहते हैं कि प्रशासन सबसे अधिक जवाबदेह है. सबको पहले से सूचना थी. उन लोगों ने लिखित आवेदन दिया था कि हम आत्मदाह कर लेंगे. बावजूद इसके प्रशासन उनको बचाने की जगह तमाशबीन बना रहा.
क्या है चीनी मिल का इतिहास
मोतिहारी शुगर मिल लेबर यूनियन (मान्यता प्राप्त) के 24 साल तक अध्यक्ष रहे व पूर्व विधायक त्रिवेणी तिवारी बताते हैं कि इस चीनी मिल की स्थापना मोहन लाल नोपानी ने 1940-41 में की. 1965 में इसका नाम श्री हनुमान शुगर मिल्स इंडस्ट्रीज़, बरियारपुर, मोतिहारी रखा गया.
इसके बाद के.के. बिड़ला की बड़ी बेटी नंदनी की शादी मोहन लाल नोपानी के बेटे से हुई. 1966 में नोपानी ने इस मिल को अपने समधी के.के. बिड़ला को लीज़ पर दे दिया. फिर 1966 से लेकर 1994 तक इसका नाम मोतिहारी शुगर फैक्ट्री रहा. 1994-95 में नोपानी ने इसे फिर से वापस ले लिया. कुछ घंटे के लिए इसका नाम हनुमान सुगर मिल रहा. फिर उसी दिन इसका नाम द ईस्टर्न शुगर इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड, कलकत्ता को लीज़ पर दे दिया. दिलचस्प बात यह है कि इसके भी मैनेजिंग डायरेक्टर नोपानी ही थे. फिर उसके बाद ये मिल मोतिहारी चीनी उद्योग के नाम से जानी जाने लगी.
त्रिवेणी तिवारी के मुताबिक़ मिल प्रबंधन ने एक बार एक सरकारी बैंक से क़रीब 80 करोड़ का लोन लिया गया था, लेकिन इसका दुरुपयोग किया और कार्रवाई से भी बच गए. इसी दौरान गन्ना किसानों व मिल में काम करने वाले लोगों को वेतन मिलना बंद हो गया. बक़ाया के लिए 2002-03 में सर्टिफिकेट ऑफिस में केस हुआ. 2004 में इसके मैनेजर आर.के. पांडेय अरेस्ट हुए. इधर हाईकोर्ट का आदेश हुआ कि 1 करोड़ 30 लाख रूपये 13 मासिक क़िस्तों में जमा किया जाए. इसके लिए अकाउंट खोला गया, जिसमें पहली क़िस्त 10 लाख रूपये जमा हुई लेकिन आर.के. पांडेय इस अकाउंट से किसानों के नाम पर 5 लाख रूपये निकाल कर फ़रार हो गया.
त्रिवेणी तिवारी बताते हैं कि क़ानून के नाम पर नोपानी ने हमेशा खिलवाड़ किया. 2007-08 में द ईस्टर्न शुगर इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड, कलकत्ता से लीज़ वापस लिया और फिर से इसका नाम श्री हनुमान शुगर मिल्स इंडस्ट्रीज़ कर दिया गया. उस दिन भी दोनों के डायरेक्टर के पद पर नोपानी ही थे. 2012 में फिर से पटना हाई कोर्ट ने आदेश दिया कि ज़मीन बेचकर किसानों व मज़दूरों का बक़ाया वेतन व भविष्य निधी का भुगतान किया जाए. लेकिन न्यायालय का ये आदेश भी कागज़ों में ही सिमट कर रह गया. किसानों के आन्दोलन के कारण दो साल बाद 20 अगस्त 2014 को आदेश का पालन करने के लिए डीएम की अध्यक्षता में एक कमिटी बनाई गई, लेकिन इस टीम ने भी कुछ नहीं किया.
त्रिवेणी तिवारी के मुताबिक़, अब तक 17 करोड़ रूपये किसानों का बक़ाया है तो वहीं क़रीब 35 करोड़ का बक़ाया मज़दूरों का है.
दो एफ़आईआर हुई है दर्ज, मिल मालिक व मैनेजर हैं आरोपी
दोनों नेताओं की मौत के बाद मोतिहारी थाने में दो एफ़आईआर दर्ज की गई है. इसमें एक एफ़आईआर स्थानीय सीओ के बयान पर दर्ज की गई है, जो विधी–व्यवस्था, हंगामा प्रदर्शन जैसे अन्य मामलों से जुड़ी हुई है. वहीं दूसरी एफ़आईआर नरेश श्रीवास्तव की पत्नी के बयान पर दर्ज की गई है, जिसमें हनुमान चीनी मिल के मालिक विमल कुमार नोपानी और मैनेजर आर.पी. सिंह समेत अन्य लोगों को आरोपी बनाया गया है. इन पर किसानों का शोषण करने, उनके बक़ाये का भुगतान सालों से नहीं करने व प्रताड़ित करने का आरोप लगाया गया है. फिलहाल इस मामले की जांच स्थानीय पुलिस कर रही है, जिसमें अभी तक कोई गिरफ़्तारी नहीं हुई है. ये अलग बात है कि आन्दोलन करने वाले 7 लोग ज़रूर गिरफ़्तार कर लिए गए हैं. इन पर आरोप है कि इन्होंने नरेश व सूरज बैठा को उकसाने का काम किया.
नवम्बर तक चालू होगी मिल
इस बीच हनुमान शुगर मिल के मालिक विमल कुमार नोपानी ने मीडिया को एक बयान दिया है. इस बयान में कहा है कि किसान–मज़दूरों का बक़ाया भुगतान करते हुए नवम्बर 2017 तक मिल चालू कर दिया जाएगा. उन्होंने कहा कि हाइकोर्ट से ज़मीन बेचकर बक़ाया भुगतान का निर्देश मिला था. लेकिन प्रशासनिक स्तर पर ज़मीन बेचने की अनुमति नहीं मिली. प्रशासन ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर किया, जिसे खारिज करते हुए ज़मीन बेचकर भुगतान का निर्देश दिया गया है. अगर प्रशासन अनुमति देता है, तो बक़ाया भुगतान करते हुए नवम्बर तक मिल चालू कर दिया जाएगा.
अब होगी इस मामले की सीबीआई जांच
आन्दोलनकारी शुरू से इस पूरे मामले की सीबीआई जांच कराने की मांग कर रहे थे. सरकार ने दो दिन पूर्व इस मामले की जांच सीबीआई से कराने की अनुशंसा कर दी है. इसकी पुष्टि खुद TwoCircles.net के साथ बातचीत में गृह सचिव आमिर सुबहानी ने की है. गृह विभाग की तरफ़ से इस पर सहमति प्रदान करते हुए इस पूरे मामले को सीबीआई के सुपुर्द कर दिया गया है. सीबीआई की तरफ़ से इस मामले को स्वीकृती मिलते ही इसकी जांच शुरू हो जाएगी.
इस साल चम्पारण सत्याग्रह के 100 साल पूरे हो चुके हैं. इस मौक़े पर तमाम बड़े आयोजन किए किए जा रहे हैं. मगर उसी चम्पारण में दो मज़दूरों की मौत की त्रासदी आयोजनों की चमक-दमक और शोर–शराबे में दफ़न हो गई. सीएम नीतीश कुमार खुद चम्पारण सत्याग्रह के 100 साल के मौक़े पर यहां के आयोजनों में शामिल हुए. इसी इलाक़े से देश के कृषि मंत्री राधामोहन सिंह भी आते हैं, लेकिन राज्य या केंद्र सरकार ने इतने संवेदनशील मामले पर ग़ौर नहीं किया.
शर्मनाक यह कि इस त्रासदी की तारीख़ भी वही है, जिस तारीख़ को ठीक सौ साल पहले गांधी ने किसानों का दर्द जानकर पहली बार बिहार की सरज़मीन पर क़दम रखा था.
(अफ़रोज़ आलम साहिल ‘नेशनल फाउंडेशन फ़ॉर इंडिया’ के ‘नेशनल मीडिया अवार्ड -2017’ के अंतर्गत इन दिनों चम्पारण के किसानों व उनकी हालत पर काम कर रहे हैं. इनसे [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है.)