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असमत अली ने की थी सबसे पहले अलग झारखंड राज्य की मांग

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

रांची : पूरा झारखंड आज अपनी स्थापना का 18वां जश्न मना रहा है. यहां के अख़बारों के पन्ने झारखंड की इतिहास-गाथा से भरे पड़े हैं. लेकिन अलग झारखंड राज्य के लिए जिसने सबसे पहले आवाज़ उठाई, वो आज के उत्सव में एक सिरे से गायब हैं. 

झारखंड राज्य के इतिहास की बात करें तो सबसे पहले असमत अली नाम के एक शख़्स ने अलग झारखंड राज्य की मांग उठाई थी. ये सन् 1912 की बात है. बिहार जब बंगाल से अलग हुआ था, तो उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत से झारखंड को अलग राज्य बनाने की मांग की थी. असमत अली इस हुकूमत में एक मुलाज़िम थे. इसकी चर्चा अबरार ताबिन्दा ने अपनी पुस्तक ‘झारखंड आंदोलन में मुसलमानों की भागीदारी’ में विस्तृत रूप से की है. उससे पहले धरती आबा बिरसा मुंडा या तिलका मांझी आदि वीरों ने जल, जंगल और ज़मीन पर अपने अधिकार की बात ज़रूर की थी. उसके लिए बलिदान तक दिया था. लेकिन अलग राज्य की कोई सुनिश्चित कल्पना तब तक सामने नहीं आई थी.

मरंग गोमके डॉ. जयपाल सिंह मुंडा ने बहुत बाद में आदिवासी महासभा के बैनर तले अलग झारखंड की आवाज़ उठाई. 1936 में मोमिन कांफ्रेंस ने भी अलग झारखंड राज्य के गठन का न सिर्फ़ प्रस्ताव पास किया, बल्कि 1937 में ठेबले उरांव के नेतृत्व में आदिवासी उन्नत समाज का खुलकर साथ दिया. वहीं 1937 में टाटा औद्योगिक घराने के एक मुलाज़िम रफ़ीक़ ने त्रिपुरा कांग्रेस में बिहार के पठारी क्षेत्र को अलग राज्य बनाने के लिए एक प्रस्ताव पेश किया था.

आदिवासी महासभा के दस्तावेज़ों के अनुसार 1938 में तक़रीबन 7 लाख मुसलमान महासभा के साथ थे, जो झारखंड के आन्दोलन में हमेशा साथ खड़े रहें. आज़ादी के बाद भी मोमिन कांफ्रेंस के अध्यक्ष अमानत अली इस पूरे आन्दोलन में जयपाल सिंह के साथ खड़े रहें.

1952 में चिराग़ अली शाह ने भी अलग झारखंड राज्य की मांग को पूरा करने के लिए अपनी आवाज़ बुलंद की. 1962 में जयपाल सिंह के साथ मिलकर ज़हूर अली ने ‘जोलहा-कोलहा, भाई-भाई’ का नारा दिया.

1983 में दुमका में ‘झारखंड दिवस’ मनाने के जुर्म में अबू तालिब अंसारी की गिरफ़्तारी हुई. आप झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता थे. 1989 में इन्हें केन्द्रीय समिति का सचिव बनाया गया. इसी साल राजीव गांधी ने ‘कमिटी ऑन झारखंड मेटर्स’ बनाया, जिसके तहत दिल्ली जाकर बातचीत करने वालों में अबू तालिब अंसारी भी शामिल थे. इस दौर में कांग्रेस के सरफ़राज़ अहमद भी अलग झारखंड राज्य के हक़ में खुलकर बयान देते रहें.

यही नहीं, मुसलमानों ने झारखंड के लिए क़ुर्बानियां भी दीं. 21 जनवरी, 1990 में खेलारी में अशरफ़ खां, 4 जून, 1992 को कंटाडीह सोनाटी, टाटा के मो. शाहिद एवं आदित्यपुर जमशेदपुर के मो. जुबैर, 18 मार्च, 1993 को कोटशीला के वहाब अंसारी, शेख़ कुतबुद्दीन, मिदनापुर सिंहभूम के इस्लाम अंसारी और 1998 में चक्रधरपुर के मुर्तजा अंसारी ने नाकाबंदी के दौरान पुलिस की गोलियों का शिकार होकर अपनी जान झारखंड के लिए क़ुर्बान कर दी. यानी मुसलमान हर तरह से झाखंड को अलग राज्य बनाने के आन्दोलन में पूरी तरह से सबके साथ खड़ा रहा है.      

मौलाना आज़ाद कॉलेज के इतिहास विभाग से जुड़े इलियास मजीद अपनी पुस्तक ‘झारखंड आन्दोलन और झारखंड गोमके होरो साहेब’ में लिखते हैं कि, 25 मई, 1988 को ‘झारखंड मुस्लिम फ्रन्ट’ की घोषणा के लिए रांची में अधिवेशन बुलाया गया. इस अधिवेशन में बिहार, बंगाल और उड़ीसा के मुस्लिम प्रतिनिधी शामिल हुए. इसी अधिवेशन में एन.ई.होरो के संरक्षण में झारखंड मुस्लिम फ्रन्ट गठित की गई.

इलियास मजीद बताते हैं कि, ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मशावरत से जुड़े सांसद सैय्यद शहाबुद्दीन (मरहूम) ने भी झारखंड आन्दोलन का समर्थन करते हुए यहां के कई कार्यक्रमों में भाग लिया था और इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर आवाज़ बुलंद की थी. 

वो आगे बताते हैं कि झारखंड की स्थापना की लड़ाई यहां कई मुस्लिम संगठन सबके साथ मिलकर लड़ रहे थे. बल्कि यूं कहिए कि ये पूरा आन्दोलन ही अल्पसंख्यकों व आदिवासियों द्वारा संचालित था. लेकिन आज 17 साल में ही उनके योगदान को भुला दिया गया है. आज जब स्थापना दिवस का जश्न मनाया जा रहा है, अल्पसंख्यक कहीं नज़र नहीं आ रहा है.

वहीं अल्पसंख्यक मामलों के जानकार और आंदोलनकारी एस. अली बताते हैं कि, झारखंड आंदोलन में मुसलमानों की सबसे अहम भूमिका रही है, परंतु राज्य बनने के बाद आर्थिक और राजनीतिक नुक़सान सबसे अधिक मुसलमानों को उठाना पड़ रहा है. न असमत अली की कोई चर्चा करता है और न ही रफ़ीक़ की. बाद के आंदोलनकारियों की बात ही छोड़ दीजिए.

वो बताते हैं कि, राज्य में 48 लाख मुसलमानों की आबादी होने के बावजूद लोकसभा में एक भी मुस्लिम सांसद नहीं है, वहीं 81 सीटों वाले विधानसभा में सिर्फ़ 02 ही मुस्लिम विधायक हैं. जबकि संयुक्त बिहार में इस क्षेत्र से मुसलमानों का प्रतिनिधित्व दोनों जगह आज की तुलना में बेहतर था. यहां से तीन-चार सांसद चुने जाते रहे हैं.

अंजुमन इस्लामिया, रांची के कार्यवाहक अध्यक्ष इबरार अहमद बताते हैं कि, झारखंड के लिए जो आन्दोलन चला, उसमें मुसलमानों की भी अच्छी-ख़ासी भागीदारी रही है. मुसलमान जेल भी गए हैं. एेसे में एक उम्मीद थी कि झारखंड अलग राज्य बनेगा तो सबका भला होगा, लेकिन इन 17 सालों में ऐसा कुछ नज़र नहीं आ रहा है. यहां का आदिवासी व अल्पसंख्यक खुद को असुरक्षित महसूस कर रहा है.

हालांकि इबरार अहमद को सरकार से अब भी काफ़ी उम्मीदें है. वो कहते हैं कि, सबका विकास होगा और सबकी सुरक्षा का ख़्याल रखा जाएगा.