अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
भीतिहरवा (पश्चिम चम्पारण) : जर्जर इमारत… जिसके क़रीब जाने पर पूरी इमारत ही कूड़े के ढ़ेर में तब्दील नज़र आती है. हालांकि बग़ल में कुछ कमरों की पुरानी बिल्डिंग नए रंग-रोगन में दिखाई ज़रूर देती है. यहां इधर-उधर भागते बच्चे… और क्लास रूम खाली… इतना खाली कि बच्चों के बैठने के लिए न बेंच और न कुर्सी-टेबल… ज़मीन पर प्लास्टिक के बोरे ज़रूर बिछे हैं, जिन्हें बच्चे खुद घर से लेकर आते हैं.
ये हाल है उस स्कूल का, जिस स्कूल की स्थापना खुद महात्मा गांधी ने की थी. यहां पढ़ाने वाले शिक्षक और पढ़ने वाले बच्चों से जब मैंने बात की तो ये तस्वीर साफ़ होने में देर नहीं लगी कि जो हालत इस स्कूल की है, वही इस देश में गांधी की विचारधारा की.
हम अब इस स्कूल की सबसे बड़ी क्लास यानी आठवीं क्लास में थे. जैसे ही क्लास के अंदर दाख़िल होते हैं, बच्चे-बच्चियां आकर बैठने लगते हैं. इस क्लास में कुल 71 बच्चों का दाख़िला है. लेकिन बमुश्किल आधे छात्र ही इस समय उपस्थित हैं. ज़्यादातर छात्रों को न गांधी के बारे में ज़्यादा पता है और न ही इस स्कूल के इतिहास के बारे में. ये बच्चे अपने गांव के संत राउत को भी नहीं जानते, जिनके घर गांधी जी एक रात आकर ठहरे थे और कस्तूरबा कई दिनों तक रही थीं.
यहां के बच्चों को मोदी पसंद हैं और जब इनसे पूछा जाता है कि गांधी को किसने मारा तो एक छात्र का जवाब था —नाथूराम गोडसे… गोडसे कौन था? इस सवाल का जवाब था —अंग्रेज़…
इस समय स्कूल में सिर्फ़ एक ही शिक्षक मौजूद हैं. हालांकि यहां 8 शिक्षक बहाल हैं. प्रधानाध्यापक के बारे में पूछने पर वो बताते हैं कि आज वो नहीं आए हैं. यह शिक्षक पहले तो हमसे इस बात पर नाराज़ हैं कि हमने बिना उनसे पूछे बच्चों से बात कैसे की. स्कूल का इतिहास पूछने पर इन शिक्षक महोदय का कहना है कि इसकी ज़्यादा जानकारी मुझे नहीं है.
बताते चलें कि इस स्कूल की स्थापना गांधी जी के देख-रेख में 20 नवम्बर, 1917 को की गई थी. ये उनके द्वारा खोला गया चम्पारण में दूसरा स्कूल है. इससे पहले उन्होंने 13 नवम्बर, 1917 को बड़हरवा लखनसेन में प्रथम निशुल्क विद्यालय की स्थापना की थी. और फिर 17 जनवरी, 1918 को मधुबन में तीसरे स्कूल की स्थापना की गई.
इस भीतिहरवा वाले स्कूल की ख़ास बात यह है कि यहां खुद कस्तूरबा गांधी रहकर बच्चों के शिक्षा की देख-रेख करती थी, तो वहीं गांधी जी स्वयं महीनों रहकर सफ़ाई एवं स्वास्थ्य कार्य करते रहे. यहां पढ़ाने के लिए गांधी जी ने ख़ास तौर पर बम्बई प्रान्त के वकील सदाशिव लक्ष्मण सोमण, बालकृष्ण योगेश्वर पुरोहित और डॉ. देव को लगाया.
इस स्कूल के बारे में गांधी जी याद करते हुए अपने आत्मकथा में लिखते हैं, ‘लोगों ने भीतिहरवा में पाठशाला का जो छप्पर बनाया था, वह बांस और घास का था. किसी ने रात को जला दिया. सन्देह तो आस-पास के निलहों के आदमियों पर हुआ था. फिर से बांस और घास का मकान बनाना मुनासिब मालूम नहीं हुआ. ये पाठशाला श्री सोमण और कस्तूरबा के ज़िम्मे थी. श्री सोमण ने ईंटों का पक्का मकान बनाने का निश्चय किया और उनके स्वपरिश्रम की छूत दूसरों को लगी, जिससे देखते-देखते ईंटों का मकान बनकर तैयार हो गया और फिर से मकान के जल जाने का डर न रहा. इस प्रकार पाठशाला, सफ़ाई और औषधोपचार के कामों से लोगों में स्वयंसेवकों के प्रति विश्वास और आदर की वृद्धि हुई और उन पर अच्छा प्रभाव पड़ा.’
ये स्कूल पहले आश्रम में ही संचालित होता रहा. बाद में इसे क़रीब में ही शिफ्ट कर दिया गया. लेकिन पहली बार जिस खपरैल में गांधी का ये स्कूल शुरु हुआ था, उसे आज भी सुरक्षित रखा गया है. इसी खपरैल में स्कूल की घंटी और कस्तूरबा की चक्की भी सुरक्षित है.
बताते चलें कि 1964 में यह स्कूल इस आश्रम से क़रीब एक नए परिसर में चला गया. इसकी वजह यह है कि 1959 में देश के तत्कालीन शिक्षा मंत्री ज़ाकिर हुसैन इस आश्रम में आए थे. उन्होंने स्कूल की दशा देखी तो उन्हें काफ़ी दुख हुआ. उन्होंने सरकार को प्रस्ताव भेजा कि इस स्कूल का बेहतर तरीक़े से संचालन हो.
स्थानीय गांधीवादी नेता अनिरूद्ध चौरसिया बताते हैं कि, इस स्कूल के लिए जितनी ज़मीन की ज़रूरत थी, वो एक जगह नहीं मिल रही थी. इसी स्कूल के पहले छात्र मुकुटधारी चौहान समेत तीन-चार लोगों ने अपनी ज़मीन उस व्यक्ति के नाम कर दी, अब ये एकमुश्त 5 एकड़ ज़मीन एक ही जगह थी. फिर उस पांच एकड़ ज़मीन पर नए सिरे से सीनियर बेसिक स्कूल की स्थापना हुई. तब से आज तक वह स्कूल उसी ज़मीन पर चल रहा है. और ये अब बिहार सरकार के अंतर्गत है.
बताते चलें कि 1937 में गांधी जी ने रोज़गारोन्मुख शिक्षा की उपयोगिता पर बल दिया. इसमें मिशन में डॉ. ज़ाकिर हुसैन उनके साथ थे. ज़ाकिर हुसैन के अध्यक्षता में बुनियादी शिक्षा का पाठ्यक्रम बना. 7 अप्रैल, 1939 को महात्मा गांधी के शिक्षा मंत्र के आधार पर चम्पारण के प्रजापति मिश्र एवं रामशरण उपाध्याय के कुशल प्रशासन के अन्तर्गत वृन्दावन सघन क्षेत्र में 35 बुनियादी स्कूल खोले गए, अब ये 29 ही बचे हैं.
महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘मैं कुछ समय तक चम्पारण नहीं जा सका और जो पाठशालाएं वहां चल रही थीं, वे एक-एक करके बंद हो गई. साथियों ने और मैंने कितने हवाई क़िले रचे थे, पर कुछ समय के लिए तो वे सब ढह गए.’
गांधी ने अपनी आत्मकथा में एक और जगह लिखा है, ‘मैं तो चाहता था कि चम्पारण में शुरू किए गए रचनात्मक काम को जारी रखकर लोगों में कुछ वर्षों तक काम करूं, अधिक पाठशालाएं खोलूं और अधिक गांवों में प्रवेश करूं. क्षेत्र तैयार था. पर ईश्वर ने मेरे मनोरथ प्रायः पूरे होने ही नहीं दिए. मैंने सोचा कुछ था और दैव मुझे घसीट कर ले गया एक दूसरे ही काम में.’
भारत गांधी का देश है और कहा जाता है कि ये देश गांधी के विचारधारा के साथ आगे बढ़ेगा, लेकिन गांधी की विचारधारा आज गोडसे की विचारधारा की तुलना में कहां है, इसका अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि 1952 में गोरखपुर के पक्की बाग़ में पांच रुपये मासिक किराए के भवन में सिर्फ़ एक ‘सरस्वती शिशु मंदिर’ की आधारशिला रखी गई, लेकिन आज इसकी हज़ारों शाखाएं हैं. जबकि गांधी के विचारधारा स्कूलों की संख्या एक भी नहीं बढ़ सकी है. हां! घटी ज़रूर है.
इससे भी गंभीर बात यह है कि गांधी के इन बचे स्कूलों में बच्चे गांधी से दूर लेकिन गोडसे के काफ़ी क़रीब हैं. आलम तो यह है कि राजकोट के जिस एल्फ्रेड हाई स्कूल में पढ़े थे, उसे भी इस साल गुजरात सरकार ने बंद कर दिया गया है. ऐसे में आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि भारत का समाज किस विचारधारा को प्राथमिकता दे रहा है.