“रागदेश” जिसे अनसुना कर दिया गया…

जावेद अनीस


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उग्र राष्ट्रवाद के इस कानफ़ाड़ू दौर में राज्यसभा टेलीविज़न ने “राग देश” फ़िल्म बनाई है, जो पिछले 28 जुलाई को रिलीज़ हुई और जल्दी ही परदे से उतर भी गई.

वैसे तो यह एक इतिहास की फिल्म है, लेकिन अपने विषयवस्तु और ट्रीटमेंट की वजह से यह मौजूदा समय को भी संबोधित करती है. यह दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद के एकांगी संस्करण के बरक्स उस राष्ट्रवाद के तस्वीर को पेश करती है जो समावेशी, सहनशील और एक दूसरे को बर्दाश्त करने वाला है और इसकी जड़ें भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में हैं.

दुर्भाग्य से आज यह निशाने पर है. कुछ अपनी सीमाओं और दर्शकों के उदासीनता के चलते “राग देश” बॉक्स आफ़िस पर ख़ास असर नहीं दिखा सकी. लेकिन “राग देश” जैसी फ़िल्म का बनना और उसका देशभर के सिनेमाघरों में रिलीज़ होना ही अपने आप में कम महत्वपूर्ण नहीं है.

फिल्म के मूल विषयवस्तु देशभक्ति है. इसके बावजूद भी यह कोई शोर-शराबे वाली प्रोपेगेंडा फिल्म नहीं है. यह हमारे सामने देशभक्ति और राष्ट्रवाद का बहुत ही सीधे और सरल तरीक़े पेश करती है और निष्पक्ष तरीक़े से इतिहास का पाठ पढ़ाती है.

राज्यसभा टीवी इससे पहले ‘भारतीय संविधान’ के निर्माण को लेकर एक सीरीज़ बना चुका है, जो हमारा संविधान कैसे बना और इसको लेकर किस तरह के बहस-मुहाबसे हुए, को बहुत ख़ूबसूरती के साथ बयान करता है.

इस सीरीज़ का निर्देशन श्याम बेनेगल ने किया था. राज्यसभा टीवी ने इस बार हमारी आज़ादी के आन्दोलन के एक ऐसे अध्याय को फिल्म के रूप में पेश किया है, जिसका ज़िक्र अपेक्षाकृत कम होता रहा है.

“रागदेश” आज़ाद हिन्द फौज और इसके तीन जाबांज़ अफ़सरों कर्नल प्रेम सहगल, कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लन और मेजर जनरल शाहनवाज़ खान के लाल क़िले में हुए मशहूर ट्रायल की कहानी है.

फिल्म के शुरुआत में परदे पर लिखा आता है कि यह फ़िल्म सत्य घटनाओं पर आधरित है. अफ़वाहों और सोशल मीडिया पर एंटी सोशल झूट फ़ैलाने वाले इस दौर में यह एक ऐसी फिल्म है जो इतिहास का सबक़ देती है. फिल्म का निर्देशन तिग्मांशु धूलिया ने किया है. जो इससे पहले हासिल और पान सिंह तोमर जैसी फिल्मों के लिए चर्चित रहे हैं.

हिन्दुस्तान की आज़ादी में लाल क़िले का प्रतीकात्मक महत्त्व है. 15 अगस्त 1947 को लाल क़िले पर तिरंगा लहराकर ही हमने अपनी आज़ादी का ऐलान किया था और पीछे सत्तर सालों से हम यही दोहराते आ रहे हैं. लेकिन आम हिन्दुस्तानी आज़ाद हिन्द फौज और लाल क़िले में इसके तीन महानायकों के ख़िलाफ़ चलाए गए मुक़दमे के बारे में कम ही जानता है.

दरअसल, दूसरे विश्व युद्ध के समय अंग्रेज़ सरकार की फौज में शामिल हज़ारों हिन्दुस्तानी सिपाहियों को अंग्रेज़ों ने जापान के सामने हार मानते हुए सरेंडर कर दिया था. बाद में इन्हीं में से बड़ी संख्या में सैनिक आज़ाद हिन्द फौज में शामिल होकर अंग्रेज़ सेना के ख़िलाफ़ लड़े और बाद में पकड़े गए. इन सैनिकों पर इंग्लैंड के राजा के ख़िलाफ़ लड़ने का आरोप लगाया गया.

कैप्टन शाहनवाज़, कर्नल ढिल्लन और कर्नल प्रेम सहगल ऐसे ही तीन फौजी अफ़सर थे, जिन पर दिल्ली में मुक़दमा चलाया गया था, जो इतिहास में “रेड फोर्ट ट्रायल” नाम से दर्ज है. इस मुक़दमे की वजह से ही नेता जी की नीतियों और आज़ाद हिन्द फ़ौज की बहादुरी के क़िस्से देश के कोनेकोने में फैला था.

2 घंटा 17 मिनट की यह फ़िल्म इतिहास के पन्नों को खोलते हुए इसी कहानी को बयां करती है और साथ में हमें मौजूदा समय के लिए कुछ ज़रूरी सबक़ भी देती जाती है.

यह अलगअलग सुरों के राग बनाने की भी कहानी है. दरअसल, फिल्म के तीनों मुख्य किरदार भारत की विविधता का प्रतिनिधित्व हैं, जिनकी देश की एक सामूहिक परिकल्पना है जिसके लिए वे सांझी लड़ाई लड़ते हैं. इनमें एक हिन्दू, दूसरा मुस्लिम और तीसरा सिक्ख है.

कर्नल प्रेम सेहगल, मेजर जनरल शाहनवाज़ खान और लेफ्टिनेंट कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लों की लड़ाई विविधताओं से भरे भारत की सामूहिक लड़ाई है, वे सांझे भविष्य के लिए लड़ते हैं.

फिल्म के अंत में एक सीन है, जिसमें दिखाया गया है लोगों के हाथ में हरा, भगवा कई तरह के झंडे हैं, लेकिन इनमें एक झंडा सबसे बड़ा और ऊँचा है. यह तिरंगा है जिसके साए में सभी आस्थायें और विचार फल फूल रहे हैं.

फिल्म में रिसर्च वर्क बेहतरीन है और इस पर मेहनत की गई है. तथ्यों को बहुत बारीकी से समेटा गया है. लेकिन एक फिल्म के लिये सिर्फ़ जानकारियां ही काफी नहीं है. सिनेमा की अपनी अलग भाषा होती है, जो यहां कमज़ोर है. इसके चलते फिल्म कई जगह सुस्त और सपाट नज़र आती है.

कहानी को और बेहतर तरीक़े से कहा जा सकता था. यह एक बेहतरीन फिल्म हो सकती थी, अगर इसकी तारतम्यता पर भी ध्यान दिया जाता. इन कमज़ोरियों के बावजूद अपने अनछुए विषय और मिज़ाज की वजह से यह फिल्म देखने लायक़ है. यह हमें ना सिर्फ इतिहास का सबक़ देती है, बल्कि इतिहास को प्रस्तुत करने और राष्ट्रवाद व देशभक्ति को समझने का नज़रिया भी देती है, जो मौजूदा समय में हमारे लिए बड़े काम का हो सकता है.

(जावेद अनीस भोपाल में रह रहे पत्रकार हैं. सामाजिक मुद्दों पर लम्बे वक़्त से लिखते और रिपोर्टिंग करते रहे हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.)

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