पंकज सिंह बिष्ट
नैनीताल (उत्तराखंड) : उत्तरप्रदेश से अलग होकर बने उत्तराखंड के किसानों का भी हाल देश के अन्य किसानों की ही तरह है. ज़िला नैनीताल के अंतर्गत आने वाले भीमताल निर्वाचन क्षेत्र का इलाक़ा जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता, फल पट्टी और सब्जियों की पैदावार के लिए प्रसिद्ध है. लेकिन यहां के किसान खेती–बाड़ी छोड़कर अपनी ज़मीने बेच रहे हैं. कारण उत्पादन का सही मुल्य न मिल पाना और ब्याज खोरी है.
जबकि ये वही इलाक़ा है, जहां के लोगों की आय का माध्यम खेती-बाड़ी ही है. इस क्षेत्र में आलू और सेब का सबसे अधिक उत्पादन हुआ करता था. यहां के लोग नौकरी की बजाए खेती–बाड़ी करना पसंद करते थे.
दरअसल पूरा खेल ब्याज खोरी का है. किसान आढ़तियों के माध्यम से अपनी फ़सल बेचते हैं. जिसमें कमीशन के तौर पर 2 से 5 प्रतिशत देना पड़ता है. चाहे किसान की फ़सल 9 में बिके या 100 में, लेकिन इनका कमीशन पक्का है.
इन आढ़तियों और पहाड़ी किसानों का रिश्ता काफ़ी पुराना है या यूं कहें कि पीढ़ियों से चला आ रहा है. ये ज़रूरत के समय किसानों के बड़े मददगार साबित होते हैं.
स्थानीय किसान खुश राम सिंह के मुताबिक़, बेटी की शादी करनी हो या ठंड का राशन लाना हो. लाला जी को एक चिट्ठी लिखने की देर है. लाला बिना देर किए अधिकतर सामान या पैसा खुशी-खुशी दूसरे ही दिन भिजवा देते हैं. लेकिन किसान को लाला जी जो सामान या पैसा भेजते हैं, उस पर किसान से 1-5 प्रतिशत प्रतिमाह ब्याज वसूलते हैं. ब्याज की यह दरें किसान की औक़ात देखकर तय की जाती हैं. औक़ात को जांचने के लिए साल भर में किसान द्वारा भेजी जाने वाली फ़सल और किसान के लाला से सबंध हैं.
एक अन्य स्थानीय किसान इन्हीं बातों को दोहराते हुए कहते हैं कि, इस प्रथा ने वास्तव में किसान को एक लत लगा दी है कि वह खुद को आत्मनिर्भर नहीं बना पा रहा है.
दरअसल, अपने उत्पाद को मंडी में बेचने और ग्रेडिंग करने की जानकारी न होने के कारण किसान अपने उत्पाद को वह क़ीमत नहीं दिला पाता जो वास्तव में इसे मिलनी चाहिए. ऐसे में किसान अपने उत्पादन को उचित मूल्य न मिलने के कारण पेड़ों में ही गलने को छोड़ देते हैं, क्योंकि अगर वह उसे मंडी भेजता है तो फ़लों की क़ीमत तो मिलनी नहीं है, किराया अलग से बोझ बनेगा.
बताते चलें कि राज्य के गठन के बाद से ही नैनीताल ज़िले के पर्वतीय निर्वाचन क्षेत्र भीमताल के फल एवं सब्जियों की खेती–बाड़ी करने वाले हज़ारों किसानों की मांग रही है कि उनके उत्पादों का कम से कम समर्थन मूल्य तय कर दिया जाए. इस मुद्दे को लेकर स्थानीय प्रतिनिधियों ने अपनी खूब राजनीति चमकाई और जब जीत हासिल हो गई तो ख़ास मुद्दे को ही भूल गए. हल्द्वानी में मंडी तो ज़रूर है, लेकिन मंडी की सारी दुकानें बनीयों के हैं. किसान अपनी फ़सल को बिना दलाल के बेच नहीं सकता.
खेती करने वाले किसान महेश गलिया कहते हैं, किसान मेहनत करके अपने फलों को मंडी पहुंचाकर आढ़तियों के हाथ कर देता है. अब वो किसान की फ़सलों को कितने में बेच रहा है? और किसान को कितना बता रहा है? यह केवल विश्वास पर निर्भर है.
वहीं लगातार हो रहे मौसम परिवर्तन के कारण भी फ़सल का उत्पादन प्रभावित हो रहा है. किसान सरकारी क़र्ज़ के साथ ही ब्याज के बोझ तले दबता जा रहा है. हालात ये है कि, फलपट्टी और आलू उत्पादन का प्रमुख क्षेत्र माने जाने वाले गांवों गागर, रामगढ़, शीतला, सतखोल, मौना, मुक्तेश्वर, सतबुंगा, सूपी, सुनकिया, लोद, गल्ला, कसियालेख, बना, चौखुटा, गजार, परबड़ा, शशबनी, सुंदरखाल, धनाचूली आदि गाँवों में किसानों ने अपनी ज़मीनों को बेचना शुरू कर दिया है. बिल्डरों द्वारा इन ज़मीनों को बंजर घोषित करवा कर बड़े-बड़े होटलों, कोठियों का निर्माण कराया जा रहा है.
गजार गांव के एक बुजुर्ग किसान प्रताप सिंह कहते हैं कि, यह क्षेत्र प्राकृतिक सुंदरता और ठंडी जलवायु के लिए भी प्रसिद्ध है, जिसको देखते हुए शहर के लोग यहां पर ज़मीनें खरीदना पसन्द करते हैं. खेती अब होती नहीं, लोग कुछ पैसों के लालच में अपने पुरखों की ज़मीनों को बेच रहे हैं. आने वाले भविष्य में यहां के निवासियों का क्या होगा भगवान ही मालिक है!
यदि इसी प्रकार सरकार किसानों की समस्याओं को अनदेखा करती रही तो वह दिन दूर नहीं जब इस क्षेत्र के किसान अपनी खेती की ज़मीनों को बिल्डरों के हाथों बेच देगें. इसलिए आवश्यकता है कि समय रहते किसानों की कड़ी मेहनत का भरपूर फल दिया जाए ताकि इनके उगाए फलों का स्वाद भारत-वासियों को मिल सके. (चरखा फीचर्स)