शाहनवाज़ भारतीय, TwoCircles.net के लिए
जामिया में स्टूडेंट्स यूनियन होना ही चाहिए जो कि यहां के स्टूडेन्ट्स का अधिकार है. आज जामिया के स्टूडेन्ट्स इसकी मांग कर रहे हैं तो इसके लिए जामिया के शिक्षकों को फ़ख्र करना चाहिए कि आज भी जामिया अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाले छात्र पैदा कर रही है, चुप रहकर तमाशा देखने वाली भीड़ नहीं.
कभी अवतार सिंह संधू (पाश) ने कहा था;
सबसे ख़तरनाक होता है… तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना…
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना…
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना…
मेरी नज़र में शिक्षा का परम उद्देश्य स्टूडेन्ट्स में तार्किकता एवं बौद्धिकता का विकास कराना है, जिसमें जामिया कुछ हद तक सफ़ल रही है. स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर अब तक यहां के छात्रों का सपना इस युग में भी नहीं मरा है.
अतः जामिया प्रशासन को चाहिए कि इस धरने का कोई तार्किक अंत ढूंढा जाए क्योंकि आख़िर आज के प्रशासनिक अधिकारीगण और शिक्षकगण भी कभी विद्यार्थी ही थे. और छात्रों को भी चाहिए कि अपने अभिवावकों को उनके हिस्से का सम्मान देते हुए अपनी बात तर्कपूर्ण ढंग से रखें.
जामिया प्रशासन से मेरा सुझाव है कि इस मसले को लेकर एक कमिटि बने, जिसमें राजनीति शास्त्र, समाजशास्त्र, शांति एवं संघर्ष प्रबंधन केंद्र के शिक्षकगण एवं वरिष्ट शोधकर्तागण हों. सर्प्रथम इस मसले का निवारण हो. तदनुसार छात्रों को शामिल कर जामिया का अपना एक छात्र संविधान, छात्रों के सुझाव से बने और अंततः उसी आधार पर चुनाव हो जाए.
जिस प्रकार देश के क्षैतिज विकास के लिए विभिन्न प्रकार के कुशल कारीगर की आवश्यकता है, ठीक उसी प्रकार देश के राजनैतिक और बैद्धिक विकास के लिए भी स्टूडेन्ट्स का राजनीति में आना ज़रूरी है; तभी हमारे संसद में सही मुद्दों पर सार्थक बहस हो सकता है.
असल में राजनीति सुनके गढ़ने में और पढ़ के करने में अमृत और विष जितना फ़र्क़ है. इसी संबंध में ‘पेरिकलेस‘ ने कहा था कि ‘सिर्फ़ इसलिए कि आप राजीनीति में रूचि नहीं लेते, इसका यह मतलब नहीं कि राजनीति आप में रूचि नहीं लेगी. यह आपकी भूल है.’
कुछ दिनों पहले जब यूजीसी जामिया को समय पर अनुदान नहीं दे पाया था, जिस वजह से जामिया ने अपना ‘फ़िक्स्ड डिपॉजिट‘ तोड़कर शिक्षकों को उनका वेतन दिया था, क्या वह राजनीति नहीं थी.
कुछ वरिष्ठ पदाशीन कर्मचारियों का आपस में मतभेद होने के कारण काम में बाधा होना भी तो राजनीति ही है. पर असल राजनीति हम ‘वीले‘ वाली राजनीति को मानते हैं, जो यह कहता है कि, ‘आपसी मतभेदों के समाधान के लिए, राजनीति एक सामूहिक प्रक्रिया है जिसमें प्रोत्साहन, प्रलोभन, वाद–विवाद, बलिदान तथा समझौता कर सामूहिक हित में निर्णय लिया जाता है.
मेरा जामिया में पिछले दस साल का अनुभव यह कहता है कि जामिया में जाने–अनजाने में कुछ तो गड़बड़ हो रहा है. और यह भी कि ज़्यादातर शिक्षकगण यह चाहते हैं कि हमें मिले इस अवसर और जामिया के संसाधन का सदुपयोग हो और देश के बौद्धिक विकास में हम अग्रणीय भूमिका निभाएं. यहां के अधिकतर कर्मचारीगण, शिक्षकगण एवं विद्यार्थीगण अपना–अपना काम पूरे समर्पण से कर रहे हैं, पर टोकड़ी में इक्का–दुक्का ‘ज़्यादा पके‘ आम भी हैं.
जामिया के प्रशासनिक अधिकारीगण, शिक्षकगण एवं छात्रगण से मेरा सविनय अनुरोध है कि आप लोगों के क्रियान्वयन पर सबकी नज़र है. अतः आपके कृत्य से जामिया की जो बैद्धिक चरित्र और देश में जो योगदान और स्थान है, वही परिलक्षित हों. राजनीति जो हमें राजनीतिशास्त्र में पढ़ाया जाता है, वैसा वाला हो ना कि चाय पे चर्चा वाला…
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्र हैं.)