जानिए, उस पत्रकार को जिसने फ़ेक न्यूज़ और हिंदू-मुस्लिम एकजुटता के लिए जान दे दी

अब्दुल वाहिद आज़ाद


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एक ऐसे वक़्त में जब देश में हिंदू-मुस्लिम के बीच नफ़रत की दीवारें ऊंची और मज़बूत हो रही हैं. फ़ेक़ न्यूज़ का बोलबाला है. पत्रकारिता के सरोकार और पत्रकारों की मर्यादा दांव पर है.

आईए अतीत के सफ़र पर चलते हैं. मादर-ए-वतन की अज़्मत-ए-रफ़्ता के ख़जाने से कुछ अनमोल रत्न का ज़िक्र छेड़ते हैं, ताकि कुछ सीख मिल सके, अपने गौरवशाली अतीत को समझ सकें.

ये बात आज से ठीक 160 साल पहले की है. आज के ही दिन यानी 16 सितंबर, 1857 के दिन सरज़मीन-ए-दिल्ली में एक पत्रकार को अपनी जान का नज़राना पेश करना पड़ा था.

नाम था —मौलवी मोहम्मद बाक़र अली

गुनाह —अख़बार में झूठ का पर्दाफ़ाश करना और हिंदू-मुस्लिम एकजुटता पर ज़ोर देना…

क़ातिल —मेजर हट्सन (तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत)

दरअसल, मौलवी मोहम्मद बाक़र अली वो शख़्सियत थी, जिनके नाम दिल्ली का पहला उर्दू अख़बार निकालने का श्रेय जाता है. अख़बार का नाम था —देहली उर्दू अख़बार…

बाक़र अली के बेटे और उर्दू के बड़े अदीब मौलाना मोहम्मद हुसैन आज़ाद के मुताबिक़ देहली उर्दू अख़बार की शुरुआत 1836 में होती है.

देहली उर्दू अख़बार पर इसी नाम से किताब लिखने वाले प्रोफ़ेसर ख्वाजा अहमद फ़ारूकी अपनी किताब में लिखते हैं कि शुरू में इस अख़बार ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ कुछ ज़्यादा नहीं लिखा, लेकिन धीरे-धीरे इसके तेवर सख़्त होते चले गए. जब मई 1857 में ग़दर हुआ. सिपाहियों ने विद्रोह किया तो बाक़र अली ने भी क़लम से बग़ावत कर दी. अंग्रेज़ों के झूठ को बेनक़ाब करना शुरू कर दिया. फ़ेक़ न्यूज़ की ख़बर ली. एकजुटता पर ज़ोर दिया.

कहते हैं कि उस दौर में जब सिपाहियों ने कारतूस में गाय और सुअर की चर्बी के नाम पर विद्रोह कर दिया था. दिल्ली की जामा मस्जिद की दीवारों पर इश्तेहार चस्पा किए गए और कहा गया कि कारतूस में गाय की चर्बी हो सकती है. लेकिन सुअर की चर्बी तो क़तई नहीं… और मुसलमान क्यों बग़ावत कर रहे हैं —दोनों अहल-ए-किताब हैं.

तब बाक़र अली ने अपने अख़बार के ज़रिए कहा कि हिंदू-मुस्लिम एकजुट रहो. एक साथ रहो. ये लड़ाई एक ज़ालिम हुकूमत के ख़िलाफ़ है. अफ़वाहों पर ध्यान मत दो. और हमारे लिए अहल-ए-किताब नहीं, अहल-ए-वतन पहले है. एक साथ फ़ेक़ न्यूज़ का पर्दाफ़ाश और हिंदू-मुस्लिम एकजुटता का पैग़ाम…

ये बात अंग्रेज़ों को खटक गई. और जब 14 सितंबर को अंग्रेज़ों ने ज़ुल्म की नई इबारत लिखनी शुरू की तो 16 सितंबर को मोहम्मद बाक़र अली को शहीद कर दिया गया.

इस अख़बार की एक रिपोर्ट पढ़ें, जिससे अंदाज़ा होगा कि ये अख़बार कैसा रहा होगा…

रिपोर्ट, 4 अक्टूबर 1840

नंबर, 189, जिल्द-3

बाबू राज कृष्णा द सब असिस्टेंट डॉक्टर अस्पताल देहली

हम बहुत अफसोस करते हैं कि बाबूए मज़कूर मर गया. ये बाबू उस पेश-ए-डॉक्टरी में बहुत मुस्तअद और मुस्तसना था. इलाज-ए-अंग्रेज़ी में खूब महारत रखता था. अक्सर साहेबान-ए-अंग्रेज़ जो उनसे मुलाक़ात रखते थे, बहुत तास्सुफ़ करते हैं कि ऐसा आदमी हिंदुस्तान में कम होता है और इस पर इतना खुश खुल्क और नेक चलन था कि हर शख्स जिसने उससे मुलाक़ात की है, बहुत अफ़सोस करता है.

(लेखक एबीपी न्यूज़ से जुड़े पत्रकार हैं.)

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