रिहाई मंच, आज़मगढ़ की ओर से जारी रिपोर्ट का एक अंश
यह सूची लंबी है कि देश में आतंकवाद के विभिन्न मामलों में आरोपियों ने लंबा समय जेलों में गुज़ारा. आख़िरकार अदालत ने उन्हें बेक़सूर माना और रिहा किया.
मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों के दायरे में यह चर्चा का विषय रहा है कि क्या अपनी जवानी के दस-बीस साल सलाखों के पीछे गुज़ार देने के बाद ‘बाइज्ज़त’ बरी कर दिए जाने भर से क्या न्याय के तकाज़े पूरे हो जाते हैं?
और यह भी सच है कि सैकड़ों मामलों में बेक़सूर साबित होने के बावजूद देश की अदालतों और मुख्यधारा के मीडिया में इस पर नहीं के बराबर बहस होती है. पिछले दिनों देश की शीर्ष अदालत ने ऐसे ही दो मामलों की सुनवाई करते हुए ज़मानत देने की हद तक इसका संज्ञान लिया है.
आतंकवाद के आरोपी रहे कश्मीर निवासी गुलज़ार अहमद वानी और कर्नल श्रीकांत प्रसाद पुरोहित की अलग-अलग ज़मानत याचिकाओं पर सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट के रूख ने इस बहस को और भी व्यापक कर दिया है.
गुलज़ार वानी मामले में तो मुख्यधारा की मीडिया ने हमेशा की तरह चुप्पी साधे रखी. कुछ अन्य ने अपना कर्तव्य इस तरह पूरा किया कि जनता उसका बहुत नोटिस न ले सके. लेकिन कर्नल पुरोहित की ज़मानत पर विस्तृत चर्चा ही नहीं हुई, बल्कि उसकी ज़मानत को इस तरह से पेश किया गया जैसे माननीय उच्चतम न्यायालय ने उन्हें अंतिम रूप से बरी कर दिया हो.
जो मीडिया आतंकवाद के मुक़दमों से बरी होने वाले बेगुनाहों मुसलमानों की रिहाई को संदिग्ध बनाए रखने के लिए ‘और आतंकी छूट गया’ जैसे शीर्षक से ख़बरें छापता था उसका रवैया बिल्कुल बदला था. तमाम चैनलों पर कर्नल पुरोहित का नाम पूरे सम्मान से लेते हुए ख़बरें प्रसारित हुईं और परिचर्चाओं का दौर चला.
न्यूज़ -18 इंडिया के एंकर सुमित अवस्थी ने कर्नल पुरोहित को झूठा फंसाए जाने की घोषणा करते हुए यहां तक पूछा ‘क्या कर्नल पुरोहित को फंसाने से सेना का मनोबल गिरा होगा?’
कर्नल पुरोहित की ज़मानत याचिका पर सुनवाई करते हुए माननीय उच्चतम न्यायालय ने 21 अगस्त 2017 को अपने निर्णय में कहा ‘एटीएस और एनआईए की चार्जशीट में भिन्नताएं हैं. मुक़दमे की कार्रवाई लम्बे समय तक चल सकती है. अपीलकर्ता ने पहले ही जेल में आठ साल आठ महीना लम्बा समय गुज़ारा है. यह सब चीज़ें उसे प्रथम दृष्ट्या ज़मानत पर रिहा करने का हक़दार बनाती हैं.’
कर्नल पुरोहित के मामले में दो नहीं बल्कि सीबीआई समेत तीन एजेंसियों से जांच करवाई गई. सरकारी वकील रोहिणी सालियान पर एनआईए के अफ़सर द्वारा मालेगांव मुक़दमें में पैरवी ढीली कर देने का दबाव यह कहते हुए डाला गया था कि ‘ऊपर से इसका आदेश है.’ रोहिणी सालियान ने खुद मीडिया के सामने यह आरोप लगाए. इसलिए यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि एजेंसियों और सत्ता की भूमिका के चलते ही यह स्थिति उत्पन्न हुई. बल्कि यह कहना ग़लत नहीं होगा कि भिन्नताओं की यह स्थिति गढ़ी गई थी.
दूसरी तरफ़ गुलज़ार अहमद वानी पर जांच एजेंसियों ने आतंकवादी घटनाओं और आतंकी साज़िश के कुल 11 मामले दर्ज किए थे. 16 साल वे जेल में रहे और इस दौरान विभिन्न अदालतों से 10 मामलों में बरी किए गए. 14 अगस्त 2000 को होने वाले साबरमती ट्रेन धमाके के आरोप की सुनवाई के लिए अंत में उन्हें यूपी लाया गया.
इस केस की लम्बी सुनवाई की आशंका से गुलज़ार अहमद वानी ने ज़मानत की अर्जी दी. हाईकोर्ट के इनकार के बाद सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया. चीफ़ जस्टिस जे.एस. खेहर और जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने 25 अप्रैल 2017 के अपने आदेश में कहा, ‘अगर 31 अक्तूबर तक अभियोजन गवाहों का परीक्षण पूरा नहीं कराता है तो गुलज़ार वानी को 1 नवम्बर 2017 को ट्रायल कोर्ट की शर्तों पर ज़मानत पर रिहा कर दिया जाएगा.’
जस्टिस खेहर ने दिल्ली और यूपी पुलिस की कारगुज़ारियों पर टिप्पणी करते हुए कहा, ‘कितनी शर्म की बातǃ 11 में से उस पर थोपे गए 10 मुक़दमों में वह बरी हो चुका है. ट्रायल में उसके ख़िलाफ़ कोई विश्वसनीय सबूत नहीं पाया गया. पुलिस के साथ समस्या यह है कि वह लोगों को जेल में रखती है और अदालत में सबूत पेश नहीं करती.’
साबरमती ट्रेन धमाके के मुक़दमे में उस समय तक कुल 96 गवाहों में से केवल 20 को परीक्षित करवाया गया था. सुप्रीम कोर्ट के कड़े रूख के बाद कि ‘वास्तविक गवाहों’ (मैटीरियल विटनेस) को अदालत में पेश कर 31 अक्तूबर से पहले उन्हें परीक्षित करवाया जाए, अभियोजन को गति मिली. सालों तक गवाह पेश न कर अदालती प्रक्रिया को बाधित रखने वाले अमले ने तेज़ी से गवाह (मुक़दमों को लम्बा खींचने के लिए बेकार गवाहों को छोड़कर) पेश किए और अगले ही महीने 19 मई 2017 को बाराबंकी अदालत ने अपना फ़ैसला भी सुना दिया.
28 साल की उम्र में सलाखों के पीछे ढकेल दिया गया गुलज़ार वानी 44 साल की उम्र में बरी होकर दोबारा अपने घर वापस पहुंचा. इस मामले में बाराबंकी सेशन कोर्ट ने अपने फैसले में जो टिप्पणी की है वह बहुत मायने रखती है. कोर्ट का कहना था कि, ‘राज्य सरकार अपने-अपने कर्मचारियों द्वारा की गई लापरवाही और उपेक्षा पूर्ण कार्य से हुई हानि की ज़िम्मेदार है. अतः राज्य सरकार को निर्देशित किया जाता है कि वह अभियुक्तगण की शिक्षा को देखते हुए औसत आमदनी के एतबार से जितने दिन वह जेल में निरूद्ध रहे हैं, उन्हें उसकी क्षतिपूर्ति अदा करे और यदि राज्य सरकार उचित समझती है तो क्षतिपूर्ति की राशि सम्बंधित पुलिस कर्मचारियों से वसूल ले.’
कर्नल पुरोहित के मामले में डायरेक्टोरेट जनरल मिलिट्री इंटेलीजेंस की रिपोर्ट में कहा गया कि, उन्होंने मालेगांव धमाके के आरोपी राकेश धावड़े को गैर-क़ानूनी तरीक़े से हथियार बेचे थे. अब यह बहस अपनी जगह कि अगर यह रिपोर्ट माननीय सुप्रीम कोर्ट के सामने होती, तो उसका क्या रूख होता या गुलज़ार वानी ने अगर आठ साल पहले ज़मानत याचिका दाखिल की होती तो किस तरह का निर्णय आता?
आतंकवाद के नाम पर इस तरह के गुलज़ारों की आज भी एक बड़ी संख्या लम्बे समय से जेल में अपनी क़िस्मत का इंतेज़ार कर रही है. उन मामलों में भी पुलिस की कहानी पर इसी तरह के सवाल हैं और अभियोजन की कार्यशैली उक्त मुक़दमों में अपनाए गए उसके तौर तरीक़ों से अलग नहीं है.