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रेहाना अदीब : मर्दों के लिए ‘बाग़ी औरत’, मगर बेटियों के लिए हैं ‘मसीहा’

आस मुहम्मद कैफ़, TwoCircles.net

सहारनपुर : “मुंह सी के अब रह ना पाऊंगी, ज़रा सबसे तुम यह कह दो…” 

खाप पंचायतों के प्रभुत्व वाले इलाक़े में दर्जन भर महिलाएं इस लोकगीत को बिफर कर गाती हैं. उनकी गूंजती आवाज़ चौपाल तक भी जाती है. हुक्के की तेज़ गड़गड़ाहट भी इसे दबा नहीं पाती.

इस आवाज़ की रचनाकार रेहाना अदीब महिला उत्थान का एक नाम हैं. इलाक़े के मर्द उन्हें ‘बाग़ी औरत’ कहते हैं, मगर बेटियों के लिए वो एक मसीहा हैं.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर, शामली, बाग़पत और सहारनपुर जैसे इलाक़े में महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई लड़ रही सामाजिक कार्यकर्ता रेहाना अदीब चुनौती, चेतावनी और साहस का प्रतीकात्मक रूप हैं.

सहारनपुर के चिलकाना की रहने वाली 52 साल की रेहाना जब दो साल की थीं, तो उनकी मां ने दुनिया छोड़ दी थी. और जब 14 की हुई तो इनके पैरों में शादी की बेड़ियां डाल दी गईं.

पांच भाई-बहनों वाले परिवार में वक़्त की मार से जूझती हुई औरतों को लेकर रिहाना ने पुरुष प्रधान समाज के ख़िलाफ़ बिगुल फूंका. वो गांव-गांव जाकर महिलाओं को जगाने का काम करने लगीं. उन्हें उनके अधिकारों को बताने लगीं और चुप्पी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने लगीं.

धीरे-धीरे इस इलाक़े में रिहाना की चर्चा होने लगी और पुरुष प्रधान समाज की आंखों में वो खटकने लगीं. मगर वो डरी नहीं, बल्कि डटी रहीं.

TwoCircles.net से बातचीत में रिहाना ने अपने संघर्ष की कहानी बताई. वो बताती हैं कि, 2 साल की उम्र में जब मां नहीं रही तो पिता बशीर अहमद ने दूसरी शादी कर ली. नई मां, पुरानी मां की जगह कभी नहीं ले पाई. फिर 14 साल की उम्र में मेरी शादी कर दी गई. तब मेरे शौहर मुख्तार अहमद एक ढ़लाई के कारखाने में काम करते थे. ससुराल में अकेली पढ़ी-लिखी थी. वहां टकराव बढ़ गया. मैं उन्हें नहीं समझ पाई. वो मुझे नहीं समझ पाए. नतीजतन हम अलग हो गए. मेरे पति मेरे साथ चिलकाना आ गएं.

रिहाना कहती हैं कि, दौर-ए-ज़माने ने मुझे इतना तोड़ दिया था कि मेरे अंदर गुस्सा पनपने लगा. मुझे यह बात बुरी लगती थी कि मेरी शादी इतनी जल्दी क्यों की गई. शायद मेरी मां ज़िन्दा होती तो ऐसा न होता.

वो आगे कहती हैं कि, मुझे स्कूल से सीधे ससुराल भेज दिया गया. यह ज़्यादती थी. ऐसी ज़्यादती ज़्यादातर लड़कियों के साथ हो रही थी. मैं मुंह नहीं सी सकती. मेरे अंदर की ज्वाला धधकने लगी और मैंने निजी तौर पर घर-घर जाकर महिलाओं को उनके साथ हो रहे अत्याचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित किया.

रिहाना बताती हैं कि उनके इन कामों का असर दिखने लगा. वो अपने अधिकार के लिए जागरूक होने लगीं. अपनी बेटी की जल्दी शादी का विरोध करने लगीं. उनको स्कूल भेजने की मांग करने लगीं. वो चुप रहेंगी ज़बान नहीं खोलेंगी, जैसी चीजें बदलने लगी…

रिहाना ने पहले यह काम अपने क़स्बे चिलकाना के संधोली ब्लॉक के गांवों में किया, जो अत्याधिक पिछड़ा हुआ गांव था.

वो बताती हैं, ‘मेरे इस काम का विरोध भी प्रबल हुआ. मर्दों ने मेरे ऊपर अपने घर आने पर पाबंदी लगा दी और अपनी महिलाओं को मुझसे बात करने पर रोक लगा दी गई. मेरे साथ गाली गलौज की गई.’

रिहाना आगे बताती हैं, मुझे लगा लोग मेरे साथ बुरी भावना रखते हैं, इसलिए मुझे ताक़तवर समर्थन चाहिए. इसके लिए मैंने अफ़सरों से मुलाक़ात की और महिलाओं के अधिकारों के लिए जागरूकता फैलाने की नीयत उजागर की. उन्होंने मेरी भावना समझ कर मुझे सरकार की एक योजना, महिला समाख्या में सहयोगिनी बना दिया, जिसमें मुझे 10 गांवों में यही काम करना था. अब चूंकि यह काम सरकारी था तो पुरुष समाज मुझे महिलाओं से मिलने से रोक नहीं पाया. मैंने महिलाओं को संगठित होने की सलाह दी और उन्हें इक्ट्ठा कर बैठक करने लगी. अब पुरुषों के एक समूह ने मेरे चरित्र को लेकर सवाल उठाने शुरू कर दिए. बाहर मेरे बारे में हो रही बात सुनकर मेरा भाई घर में आकर मुझसे लड़ता था और यह सब छोड़ने के लिए कहता था.

वो आगे बताती हैं, इसके बाद मेरी ज़िन्दगी में बदलाव ‘दिशा’  नामक सामाजिक संस्था से आया. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस संस्था से जुड़कर मुझे बड़ा प्लेटफ़ॉर्म मिला. मुझे महिला अधिकारों पर चर्चा करने के लिए बीजिंग बुलाया गया. धीरे-धीरे हमारा काम फैलने लगा. अब कुछ पुरुष मेरे समर्थन में आ गएं.

रिहाना बताती हैं कि, 2005 मेरी ज़िन्दगी का अहम साल था. इस दौरान मैंने अपनी सामाजिक संस्था ‘अस्तित्व’ की स्थापना की और पहली लड़ाई इमराना की लड़ी गई. दुनिया भर में इमराना कांड को चर्चा मिली. इसमें उसके ससुर ने उसके साथ दुराचार किया था, जबकि इमराना के ख़िलाफ़ ही फ़तवा आ गया था. लेकिन बाद में इमराना के ससुर को इसके लिए 10 साल की सज़ा हुई. इसके बाद 2013 में हुए मुज़फ़्फ़नगर दंगे में महिलाओं के पक्ष में हम लड़ते रहें और अब तक लड़ रहे हैं.’

वो आगे हमसे कहती हैं, पता नहीं! समाज का कौन सा वर्ग यह समझता है कि हम बाग़ी हो रहे हैं. ख़ासतौर पर मुसलमानों में यह ज़्यादा बड़ी समस्या है. इस्लाम की तारीख़ उठाकर देख लीजिए औरतों को सबसे ज़्यादा अधिकार व हक़ इसी मज़हब ने दिए हैं. मगर पता नहीं कौन लोग औरतों पर तो ‘फ़तवों’ की पाबंदी लगा देते हैं, मगर सट्टा, जुआ और हरामखोरी जैसी पुरुषों की बुराइयों के ख़िलाफ़ ‘फ़तवा’ जारी नहीं करते.

बता दें कि रिहाना की चार बेटियां हैं और सभी ने बी.एड किया है. रिहाना चाहती हैं कि यह भी महिलाओं को चुप्पी तोड़ने के लिए प्रेरित करें.

यहां के एक गांव बुड्ढाखेड़ा की रहने वाली 35 साल की आमना कहती हैं, रिहाना बाजी ने यहां कई रास्ते खोल दिये हैं. भले ही वो कुछ लोगों की आंख में खटकती हो, मगर हमारे लिए बहुत इज़्ज़त के क़ाबिल हैं. हाल-फिलहाल उनका ‘युवती मेला’ काफ़ी तारीफ़ बटोर रहा है. इसमें लड़कियां एकजुट होकर जागरूकता आधारित कार्यक्रम करती हैं.

रिहाना को चिलकाना में ‘नेतानी’ का उपनाम भी मिला है. यहां की सबिया (16) कहती हैं, रिहाना फुप्पो ने हमारी ज़िन्दगी में बेहतरीन बदलाव ला दिया है. अब यहां कोई लड़की ऐसी नहीं है जो स्कूल ना जा रही हो.