दिवाकर, TwoCircles.net के लिए
अभी मैं कहीं बैठा था. एक रिटायर्ड आइएएस अफ़सर भी थोड़ी देर के लिए हमलोगों के बीच आकर बैठे. बातचीत के दौरान उन्होंने अपने पास वाट्सएप पर आया एक वीडियो क्लिप दिखाया.
वह पश्चिम बंगाल का क्लिप था. उसमें एक व्यक्ति पीट–पीटकर दो लोगों की हत्या करता दिख रहा था. भीड़ सामने खड़ी थी, लेकिन वह सचमुच मूकदर्शक थी.
इसमें उस व्यक्ति का चेहरा तो पहचाना जा सकता था जिसकी हत्या की जा रही थी या की गई थी, लेकिन उसका चेहरा पहचानना थोड़ा मुश्किल था जो लाठी से उस व्यक्ति को पीट रहा था. भीड़ में भी किसी का चेहरा नहीं पहचाना जा रहा था क्योंकि अधिकतर लोगों के नीचे से आधे शरीर ही दिख रहे थे या इस तरह का वीडियो था जिसमें चेहरे साफ़ नहीं थे.
उस अफ़सर ने बताया कि यह पश्चिम बंगाल से किसी ने भेजा है. यह इतना बर्बर था कि इसे पूरा देखना मुश्किल था, दोबारा देखना तो लगभग असंभव ही.
इस बर्बर घटना की प्रशासनिक जांच अपने तरीक़े से हो रही है, ऐसा उन पूर्व अधिकारी ने बताया. अपने तरीक़े से मतलब, लीपापोती. इसलिए फिलहाल उस पर बात नहीं. इस तरह भीड़ द्वारा लोगों को मार डालने की घटनाएं इन दिनों भारत में बढ़ गई हैं. यह चिंता की बात है ही.
उससे ज़्यादा चिंता की बात यह है कि इस तरह के बर्बर वीडियो क्लिप्स वायरल हो रहे हैं. अब यह हम सबके वाट्सएप पर आ रहे हैं और अधिकांशतः पूरे दोबारा–तिबारा देखे ही नहीं जा रहे हैं, उन्हें आराम से फाॅरवर्ड भी किया जा रहा है.
मतलब यह कि इस तरह की घटनाओं में प्रत्यक्ष–परोक्ष तौर पर समाज का एक बड़ा हिस्सा शामिल हो रहा है लेकिन ऐसी घटनाओं के प्रति उसका रवैया मात्र दर्शक का है. वह सामान्य घटनाओं की तरह इसे ले रहा हैं. वह इस पर दुखित–व्यथित नहीं हो रहा है, यह हो भी रहा है तो बस, थोड़ी ही देर के लिए.
इस तरह धर्म या मत के नाम पर बढ़ रही बर्बर हत्याओं को लेकर मनोवैज्ञानिक काफ़ी चिंतित हैं. इस तरह लोगों की भीड़ के सामने अपने विरोधी की हत्या करने को उन्होंने सिंड्रोम ई मानसिकता का नाम दिया है.
यह एक मनोवैज्ञानिक टर्म है जिसमें ई का मतलब दुष्टता (एविल्स) है. मनोवैज्ञानिक इसे सात लक्षणों के ज़रिए बताते हैंः एक, किसी भी धर्म के प्रति सनकी आस्था; दो, किसी तरह की शक्ति के प्रति अगाध आस्था; तीन, अपने समूह के लोगों को धर्मात्मा मानना; चार, दैनिक गतिविधियों में हिंसा की अनुपस्थिति; पांच, बलपूर्वक दोहराई जाने वाली हिंसा; छह, हिंसा को लेकर असंवेदनशील हद तक चला जाना; और सात, निर्जीव असंवेदनशील चित्त.
मनोवैज्ञानिक इआन एच. राॅबट्र्सन ने अपने एक लेख में बताया है कि इस तरह की बर्बर घटनाएं कहीं तब होने लगती है जब कुछ लोग या कोई समूह मान लेता लेता है कि उनके धर्म या मत की बात नहीं सुनी जा रही है और इसे बलपूर्वक लागू करना ज़रूरी है.
वे खुद को पीड़ित मानने लगते हैं और उसके आवेश में परपीड़क बन जाते हैं. ऐसे लोग या ऐसे समूह के लोगों की व्यक्तिगत चेतना लगभग समाप्त हो जाती है. किसी समूह से कथित तौर पर जुड़े होने के कारण उनमें दुष्टता का भाव बढ़ता जाता है. मानवीयता त्याग देने की वजह यही होती है.
मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि किसी भी तरह का समूह व्यक्ति को एक क़िस्म का आत्मिक बल देता है. किसी भी क़िस्म के समूह से जुड़ने के बाद आदमी अपने को अकेला महसूस नहीं करता. यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. लेकिन मुख्य बात यह है कि कोई किस क़िस्म के समूह से जुड़ा हुआ है. समूह का चुनाव उसकी मानसिकता और उसके काम को प्रभावित करता है.
कोई अगर ग़लत समूह के साथ अपनी पहचान बनाता है तो स्वाभाविक है कि वह उसके अनुरूप व्यवहार करेगा. मनोवैज्ञानिक लाॅरा सिपने का मानना है कि यह ऐसी भावना है जो सकारात्मक और नकारात्मक– दोनों हो सकती हैं. अगर कारण, भावना और लक्ष्य नकारात्मक हो तो यह ज़हर की तरह है.
नकारात्मक भावना से किए जा रहे इस तरह के बर्बर काम का सबसे बुरा और दूरगामी असर बच्चों पर पड़ता है. दुनिया भर में मनोवैज्ञानिकों का एक बड़ा वर्ग इसीलिए सोशल मीडिया के प्रसार को लेकर चिंतित है.
सोशल मीडिया इस तरह की घटना को भी तुरंत सामने ला देता है लेकिन उनसे जुड़ी तात्कालिक या दीर्घकालीन घटनाओं के बारे में कुछ नहीं बताता. किसी एक–डेढ़–दो मिनट के वीडियो क्लिप से न तो पीड़ित के बारे में जानकारी मिलती है, न हत्यारे के बारे में.
इसलिए बाद का सारा विचार–विमर्श सुनी–सुनाई बात पर होता है क्योंकि तफ़्तीश के दौरान सामने आई जानकारी को लेकर भी लोग उत्सुक नहीं होते. ऐसे में ये घटनाएं अपनी सोच के अनुरूप दिमाग में घर करती जाती हैं.
इस तरह के वीडियो क्लिप्स मुख्यतः वाट्सएप के ज़रिए आज घर–घर में घर जमाते जा रहे हैं, इसलिए ये हम सबके लिए चिंता के कारण होने चाहिए.
इन वीडियो क्लिप्स के साथ की जानकारी किसी भी रूप में कितने ही समय बाद किसी के सामने भी प्रस्तुत किए जा सकते हैं. आम लोग इसे वेरिफ़ाई करने की ज़रूरत भी महसूस नहीं करते. ऐसे में सिर्फ़ धारणा उनके सामने आती है जिनका अधिकतर अवसरों पर सच्चाई से दूर–दूर तक रिश्ता नहीं होता.
इसीलिए सोशल मीडिया पर नियंत्रण के तरीक़े सोचने, उपाय करने की जगह इस प्रकार की घटनाओं पर रोक लगाने की ज़रूरत अधिक है.
मनोवैज्ञानिक माइकेल ब्राॅडी मानते भी हैं कि इस तरह के वीडियो क्लिप्स को सीधे–सीधे दोषी नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन स्क्रीन पर दिखने वाली हिंसक घटनाओं का किसी के भी चित्त पर असर तो होता ही है, बच्चों और किशोरों पर सबसे अधिक.
दरअसल, सोशल मीडिया घटना को तो इस तरह तुरंत सामने ला देता है, लेकिन उनसे जुड़ी तात्कालिक या दीर्घकालीन घटनाओं के बारे में कुछ नहीं बताता.
किसी एक–डेढ़– दो मिनट के वीडियो क्लिप से न तो पीड़ित के बारे में जानकारी मिलती है, न हत्यारे के बारे में. इसलिए बाद का सारा विचार–विमर्श सुनी–सुनाई बात पर होता है क्योंकि तफ़्तीश के दौरान सामने आई जानकारी को लेकर भी लोग उत्सुक नहीं होते.
दुखद तो है लेकिन यह भी सच है कि अपने लोकतंत्र पर नाज़ करने वाले भारत में हत्या करने के ये तरीक़े लगभग वही हैं जिस तरह आईएस आतंकी कर रहे हैं.
अगर आप दोनों जगह के वीडियो क्लिप्स को एक साथ देखें तो आपको कोई अंतर नहीं दिखेगा. हम सब जानते हैं कि दोनों ही जगह धर्म को जस्टिफ़ाई करने के नाम पर ये हत्याएं हो रही हैं. अंतर यह है कि आईएस के आतंकी सिर्फ़ एक धर्म के नाम पर हत्या कर रहे हैं, अपने यहां यह हत्या कथित तौर पर दो धर्मों को मानने वाले कर रहे हैं और स्वाभाविक तौर पर बहुसंख्यकों का पलड़ा कहीं भारी है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.)