दिवाकर, TwoCircles.net के लिए
एक ही सप्ताह में तीन घटनाओं की ख़बरें एकसाथ आना चिंता पैदा करने वाली हैं. इनमें से दो सकारात्मक हैं. श्रीनगर में सीआरपीएफ़ कैंप और जम्मू में एक आर्मी कैंप पर आतंकी हमले इसलिए सफल नहीं हो पाए क्योंकि गेट के संतरियों ने ही उन्हें चुनौती दी और पहचान लिए जाने के कारण वे अंदर नहीं घुस पाए. श्रीनगर में बाद में हुई मुठभेड़ में दो आतंकी मार गिराए गए.
ये दोनों सकारात्मक ख़बरें हैं. लेकिन जम्मू के सुंजवां आर्मी कैंप की ख़बरें चिंता पैदा करने वाली हैं. वहां आतंकी अंदर घुस गए थे और संयोगवश ही इसलिए पहचाने गए क्योंकि वे जवानों से इतर तरीक़े से अपने लायक़ मुफ़ीद जगह तलाश करते हुए दौड़-भाग कर रहे थे. जब तक उन्हें पहचाना जाता, उन्होंने अलग-अलग जगह से मोर्चा लेना आरंभ कर दिया था.
किसी सैन्य क्षेत्र की तरफ़ जाने या उधर से गुज़रने का अनुभव हम सबका है. उधर से लोग यथासंभव जल्दी-से-जल्दी निकल जाना चाहते हैं कि न जाने कौन कब आकर पूछताछ करने लगे और बेवजह की मुसीबत झेलनी पड़े.
यह उस क्षेत्र के गेट की स्थिति होती है, जिन्हें अंदर जाने का अवसर मिला है, वे जानते हैं कि आप किसी मक़सद से आमंत्रित किए गए हों या आपके पास अंदर आने की वैध अनुमति हो, तब भी आप उस क्षेत्र में निर्धारित सीमा के पार नहीं जा सकते या बेवजह इधर-उधर घूम-टहल नहीं सकते.
इसमें कहीं शक नहीं है कि अपने देश में सभी आतंकी घटनाओं के पीछे पाकिस्तान का प्रत्यक्ष-परोक्ष हाथ है, लेकिन ऐसे में यह सवाल भी उठना स्वाभाविक है कि आतंकी सैन्य क्षेत्र के दरवाज़े को पारकर इतना अंदर कैसे घुस जा रहे हैं कि वे सेना के परिवार वाली जगह तक पहुंच जा रहे हैं और उन्हें कोई रोक-टोक नहीं रहा.
इस बार जम्मू के सुंजवां आर्मी कैंप में ऐसा ही हुआ. इससे पहले पंजाब के आर्मी कैंप में वे कैंटीन क्षेत्र तक पहुंच गए थे. स्वाभाविक है कि इस हद तक अंदर घुस जाने के बाद उनसे जूझना इसलिए भी मुश्किल होता है क्योंकि वे इतने हथियारों के साथ होते हैं कि सेना से घंटों मुक़ाबला कर सकें.
इस तरह की घटनाएं लगातार आश्चर्य पैदा करने वाली हैं. सेना तो छोड़िए, अर्धसैनिक बलों के क्षेत्र में भी कोई अनजान, अजनबी व्यक्ति इस तरह घुस कैसे सकता है जबकि किसी भी संदिग्ध को सीमा प्रारंभ होते ही देखने पर रोकने और उसके न रुकने पर गोली मार देने का स्थायी आदेश है.
यह गेट से लेकर हर स्तर के संतरी की ड्यूटी है कि भले ही उसकी जान चली जाए, वह किसी संदिग्ध को एक सीमा से अधिक आगे नहीं जाने देगा. जब-तब यहां-वहां से ख़बरें आती भी रहती हैं कि सैन्य क्षेत्र में किसी संदिग्ध को सेना के जवानों ने पकड़ लिया या उसके पैर में गोली मार दी.
ऐसे में, यह सवाल इसलिए पूछना ज़रूरी है कि हमने इस तरह की घटनाओं के बाद होने वाली जांच में कितने जवानों-अफ़सरों पर क्या कार्रवाई की क्योंकि इस तरह के आतंकी हमले वाली घटनाओं में गेट से लेकर जहां तक ये आतंकी पहुंचे, वहां तक की सुरक्षा में लगे संतरी से लेकर हर स्तर तक के जवान-अधिकारी दोषी हैं.
आख़िर, अगर वे कोताही नहीं बरतते या उन्होंने अपनी ड्यूटी ठीक ढंग से की होती, तो कोई आतंकी, और वह भी तीन-चार-पांच की संख्या में, और वह भी इतने ज़ख़ीरे के साथ कैसे पहुंच जाता है.
यह सवाल इसलिए पूछा जाना चाहिए क्योंकि ऐसी घटनाओं से देश के हर नागरिक को अपने देश की सुरक्षा-व्यवस्था को लेकर चिंता होती है. हम आतंकियों को तो मार गिराते हैं, लेकिन उनका मुक़ाबला करते हुए अपनी ही सेना के कई जवानों-अफ़सरों को वीरगति प्राप्त करनी पड़ती है और सबसे अधिक, दुनिया को लगता है कि हमारी सुरक्षा-व्यवस्था में कहीं-न-कहीं लूपहोल हैं.
यह सवाल उठाते हुए कहीं से भी सेना के मूल्य, उसकी नीयत, उसकी महत्ता पर सवाल उठाना नहीं है. मक़सद सिर्फ़ यह है कि हमें सोचना चाहिए कि क्या हमने सेना या अर्धसैनिक बलों या पुलिस बलों की बेसिक ड्यूटी पर ध्यान देना कम कर दिया है. सिर्फ़ आधुनिक हथियारों और नवीनतम, अत्याधुनिक तकनीकी से सुरक्षा नहीं होती. संतरी हमारी सुरक्षा की नींव के पत्थर हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि हमने उनकी रीढ़ ही किसी तरह कमज़ोर कर दी है. अगर वे मज़बूत नहीं हुए तो हमें इस तरह के हमलों से लगातार जूझना पड़ सकता है.
राष्ट्रवाद का शोर बहुत है, फिर भी इस तरह का सवाल उठाना तो बहुत ज़रूरी है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क हो सकता है.)