आस मुहम्मद कैफ़, TwoCircles.net
खतौली : मुज़फ़्फ़रनगर से मेरठ की ओर जाने वाली हाईवे से 4 किमी बुढाना मार्ग पर क़रीब तीन हज़ार की आबादी वाले इस गांव का नाम लोहद्दा है. इस गांव की मक़बूलियत सारे मुज़फ़्फ़रनगर में है और इसकी वजह है कि यह गांव ‘सिम्बल ऑफ वुमेन पावर’ जो बन चुका है.
इस गांव के क़रीब 700 दरवाज़ों पर मकान मालिक का ‘टाइटल’ उस घर की बेटी के नाम से अंकित है.
इस एक बात ने यहां बेटियों का आत्मविश्वास चरम पर पहुंचा दिया है. यहां बेटियां प्रबल आत्मविश्वास से लबरेज़ हैं. इस गांव की हर चौखट अब बेटी के नाम से जानी जाती है.
यहां लड़कियों के पास अपने विज़न हैं और परिवार वाले इनका समर्थन कर रहे हैं. दलित और मुस्लिम बहुल इस गांव में बेटियों में आत्मनिर्भरता देखते ही बनती है.
गांव में दाख़िल होते ही 17 साल की सुंदर किराना की दुकान चलाती दिख जाती हैं. बारहवीं तक की पढ़ाई कर चुकी सुंदर अपने पिता बिजेंद्र की दुकान संभालती हैं.
सुंदर शर्मीली तो हैं, मगर अपने काम का महत्व जानती हैं क्योंकि वो तब तक बात नहीं करती, जब तक सामान खरीदने आया ग्राहक उससे संतुष्ट न हो जाए.
सुन्दर कहती हैं, गांवो की बेटियां भी शहर की लड़कियों से कम नहीं होती. कोई भरोसा दिखाए तो हम भी अच्छे रिजल्ट दे सकते हैं.
इस गांव की हर चौखट पर किस तरह से नाम लिखे हैं इसकी बानगी देख लीजिए. तन्वी पुत्री सोहनपाल, रिया पुत्री संदीप कुमार, याशमीन पुत्री मोहम्मद शमीम, शाहीन पुत्री उमरदीन और आरती पुत्री ओमप्रकाश…
घर के मुख्य दरवाज़े पर यह नाम एक स्लोगन के साथ लिखे गए हैं. यह स्लोगन है —‘मेरे गांव की यही पहचान बेटी को मिला सम्मान’
सामान्य तौर पर हर दरवाज़े पर परिवार के मुखिया का नाम अंकित होता है, मगर इस गांव में बेटी ‘मॉनिटर’ बन गई है.
इस बदलाव की वजह गांव के प्रधान सतेंद्र पाल की मुहिम है. 2015 में यहां प्रधान चुने गए सतेंद्र कहते हैं, मेरी भी दो बेटियां हैं. मुझे लगा इस गांव की पहचान बेटी से होने चाहिए. इसके लिए हमने एक अभियान छेड़ दिया. हर घर की पहचान बेटी से करवाने का हमने वाल पेंटिंग कराई, जिसके लिए 10 हज़ार रूपए सरकार से मिले तो 20 हज़ार मैंने अपने पास से दिए.
वो बताते हैं कि, गांव की लड़कियों की संख्या लड़कों से काफ़ी कम है, जबकि स्कूल जाने वाली लड़कियों का अनुपात लड़कों से ज़्यादा है.
एमएससी कर चुकी हुमा नाज़ हमें बताती हैं कि, यहां लड़कियां बहुत ज़्यादा पढ़ रही हैं. इस गांव में 50 लड़कियां कॉलेज में पढ़ चुकी हैं, जबकि लड़के इसके आधे भी नहीं है. अब लड़कियां नाम कर रही हैं तो पहचान भी तो उनकी ही होगी.
फ़रहा कहती हैं, हमारा मज़हब हमें पढ़ने से नहीं रोकता. हमारे पिता ने हमें हमेशा समर्थन किया. अच्छी बात यह है कि हमारा पूरा गांव बेटियों की तरक़्क़ी का हिमायती है.
एमए इंग्लिश कर चुकी पूजा हमें बताती है कि, घर के बाहर बेटी का उसके पिता के साथ नाम लिखा जाना गौरव से भर देता है. मेरे भाई को भी यह अच्छा लगा. अब ज़रूरी नहीं कि बेटा ही नाम करेगा, बेटी भी घर-परिवार का नाम रोशन कर सकती है.
इस गांव में स्कूल में पढ़ने वाली छोटी बच्चियों पर भी इस महिला उत्थान प्रोग्राम का असर दिखने लगा है. गांव के एकमात्र प्राईमरी स्कूल में पढ़ने वाली 11 साल की अनुष्का तपाक से कहती हैं, मुझे डॉक्टर बनना है.
13 साल की दीपांशी कहती हैं, जिस दिन उनका नाम घर के बाहर लिखा गया तो उनकी मम्मी ने उन्हें ‘मालकिन’ कहकर संबोधित किया.
इसी स्कूल की उमरा (13) अज़ब कहानी सुनाती हैं. वो कहती हैं, उनकी चाची की घर में बहुत इज़्ज़त है. उनकी हर बात ग़ौर से सुनी जाती है. जब कहीं जाना होता उनको ज़रूर लेकर जाते हैं. घर में उनकी खूब चलती है. ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि उन्होंने बीए तक पढ़ाई की है. पढ़ने से ख़ूब इज़्ज़त होती है.
आठ साल की इक़रा अपनी दूसरी क्लास में मॉनिटर हैं. उसके पिता अफ़ज़ल कहते हैं, अजी अब तो वो हमारे घर की भी मॉनिटर है.
गांव की पहचान में बेटियों का नाम आने से यहां के मर्दो में कोई नाराज़गी नही है, बल्कि जिन परिवार में बेटी नहीं है, उन्हें दुःख होता है.
गांव के ओमप्रकाश (56) कहते हैं, अब नाम रोशन बेटा करे या बेटी करे बात तो एक ही है.
बहुत ख़ास बात यह भी है कि इस गांव में बेटी और बेटा में भेदभाव जैसी भी कोई बात सामने नहीं आई है और बहुओं के साथ भी बर्ताव बहुत अच्छा है. महिला शक्ति का अदभूत नज़ारा यह है कि 95 साल की संतोषी देवी भी यहां सब्ज़ी की दुकान चलाती है.
गांव के प्रधान सतेंद्र पाल हमें बताते हैं, इस मुहिम से प्रेरणा पाकर पास के गांव के कुछ मित्र प्रधानों ने भी गांव-गांव यह मुहिम चलाई है, जिससे बेटियों के सम्मान में बढ़ोतरी हो रही है. पास के गांव सतेढ़ी, सिकंदरपुर और बड़सू में भी अब चौखट पर बेटियों का नाम खुद रहा है.
खतौली के एसडीएम धर्मेन्द्र कुमार इसे एक शानदार काम बताते हैं.