आसमोहम्मद कैफ़ । Twocircles.Net
उनके दुनिया से रुख़सत हो जाने की ख़बर इतिहासकार इरफ़ान हबीब ने दी थी। इरफ़ान हबीब ने अपने टिवीटर पर लिखा था “दिल्ली की एक जानी मानी हस्ती,एक ख़ास दोस्त और एक शानदार इंसान सादिया देहलवी के निधन की ख़बर सुनकर दुःख हुआ”। 5 अगस्त को सादिया देहलवी की कैंसर से लंबी लड़ाई ख़त्म हो गई। 63 साल की सादिया देहलवी हार गई। उनकी दोस्त शबनम हाशमी कहती है” नही वो हार नही सकती,यहां से वापसी का रास्ता नही है वरना सादिया बाजी यहां से भी लौट आती,उन्हें हार से चिढ़ थी। जिंदगी की हर मुश्किल का उन्होंने आगे से सामना किया है। जिद्दी थी वो। 63 साल भी कोई उम्र होती है दुनिया से चले जाने की।”
लेखक, शायर, साहित्यकार,आलोचक,फ़िल्म मेकर, अभिनेत्री और समाजसेवी एक्टिविस्ट सादिया देहलवी मुस्लिम समाज मे पैदा हुई एक ऐसी औरत थी जिसने हजारों लड़कियों को लिखने पढ़ने और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। लोग कहते हैं कि वो इल्म का दरिया थी और उनकी जानकारी का कोई सानी नही था। उन्हें क्लिनिंग की नॉलेज बहुत थी। विद्वानों में भी उनसे बहस करने में हिचक होती थी। सादिया बाद में सूफ़िज़म से खासा मुत्तासिर हो गई और उन्होंने बहुत सी किताबें लिखी। उनके पिता यूसुफ देहलवी ‘शमा’ मैगजीन चलाते थे।सादिया इसमे लिखती थी। यह परिवार 17 शताब्दी में दिल्ली आया था। सादिया देहलवी की लोकप्रियता का आलम यह था कि 90 के दशक में जब वो सहारनपुर आई थी तो लड़कियों में उनसे मिलने की भारी होड़ लग गई थी। सहारनपुर की सायरा बानों (49) कहती है कि “हमारी चाची शमा मैगजीन पढ़ती थी। यह बहुत अधिक लोकप्रिय थी। इसमे सादिया के मज़मून छपते थे। वो आईडल थी। कॉलेज में पढ़ने वाली हर एक लड़की उनसे मुत्तासिर थी।खुद मैं भी सादिया देहलवी की फैन थी वो अक्सर सहारनपुर आती थी। वो जो लिखती थी। उससे भी अच्छा बोलती थी। जब वो बोलती थी तो बहुत संजीदगी से उनकी बात सुनी जाती थी। वो लड़कियों को आगे बढ़ने के लिए हिम्मत देती थी”।
इसके बाद सादिया का झुकाव सूफ़ीज़म की तरफ हो गया और उन्होंने ‘द सूफी कोर्टयार्ड’ सूफ़ीज़म :द हार्ट ऑफ इस्लाम, जैसमीन एंड जीन्स -मेमोरीज एंड रेसिपीज ऑफ माई दिल्ली’ जैसी किताबें लिखी। दिल्ली के सूफी इतिहास पर उनकी रिसर्च ने सूफी विचारधारा को बहुत ताक़त दी।सादिया ने जोहरा सहगल के साथ “अम्मा एंड फैमली’ और खुशवंत सिंह की किताब पर “नॉट ए नाइस मैन टू नॉ’ जैसे टीवी सीरियल बनाया। सादिया अपनी तहज़ीब के दिल्ली में मशहूर थी। वो बोर्डिंग में पढ़ी। एक अच्छे मशहूर खानदान से थी। उनपर बंदिशें नही थी। अपने फैसला खुद लेना का दम था। यही वज़ह थी कि 1990 में उन्होंने एक पाकिस्तानी को अपना शौहर चुनने की हिम्मत की। राना सफ़वी, रख़्सन्दा ज़लील जैसी इल्मी सलाहियत वाली ख़्वातीनो के साथ उनका नाम भी अदब से लिया जाता रहा।
सादिया को दिल्ली कल्चर की एम्बेसेडर कहा जाता था। क़द का अंदाजा आप लगा लीजिये। वो पंजाबी थी। सदर बाज़ार में रहती थी। बुधवार को उनका इंतेकाल हुआ मगर ख़ामोशी का मंजर अब तक है। दिल्ली के लोगों में उनके बनाएं हुए खाने की लज्ज़त की तारीफ़ अक्सर होती रही है। वो बेहतरीन खाना बनाती थी। तीन साल पहले उन्होंने चाणक्यपूरी इलाके में उन्होंने एक रेस्तरां भी खोला था। सादिया पर इतनी बात इसलिए हो रही है क्योंकि वो एक खानदानी तहज़ीब वाली एक ऐसी मॉडर्न लड़की थी जिसने हिम्मत करके चुनोतियाँ स्वीकार की और उदाहरण स्थापित किए। साहसी,बोल्ड और आज़ाद ख़्याल। मगर बाद में उन्हें सूफ़िज़म ने बदल दिया।
सादिया दिल्ली में जश्ने-बहार ट्रस्ट की कामना प्रसाद और खुशवंत सिंह के साथ साहित्य जगत में छाई रहती थी।खुशवंत सिंह ने तो अपनी क़िताब “नॉट न नाइस मैन टू नॉ हर” सादिया को ही समर्पित कर दी थी। पंजाब की इस बेटी ने दिल्ली से ऐसा नाता जोड़ा की उसके नाम मे ही देहलवी जुड़ गया। सादिया का ‘शमा घर’ अक्सर इल्म वालों का केंद्र था। यहां शायरी किस्से कहानी,मुशायरे खूब होते थे और तमाम कलाकार यहां आते थे। अब यह घर बसपा सुप्रीमो मायावती ने ख़रीद लिया है। सादिया केंसर से लड़ रही थी।
बुधवार को वो हार गई। शायर सुमैय्या राणा कहती है” इतनी बड़ी दिल्ली में दूसरी सादिया पैदा नही हो सकेगी। वो अपनी तरह की एक थी, बागी, अपनी मर्ज़ी की मालकिन,बेख़ौफ़ और जिंदादिल। “