नो स्कूल नो फ़ीस : हंगामा है क्यों बरपा !

“नो स्कूल नो फ़ीस’ देश मे एक मुद्दा बन गया है। अभिभावक और स्कूल मालिक आमने सामने आ गए हैं। अभिभावक महामारी के दौरान आर्थिक हालात के कमज़ोर होने की बात कहते हैं तो स्कूल मालिक भारी खर्चों का रोना रो रहे हैं। निजी स्कूलों में सरकारी उदासीनता और इस आपसी टकराव के चलते लाखों छात्रों का भविष्य अंधकारमय हो गया है। यह रिपोर्ट पढिये…

आसमोहम्मद कैफ़  । Twocircles.net


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फरहाद गाड़ा (40) सहारनपुर में पिछले 38 दिनों से सहारनपुर के कलेक्ट्रेट कम्पाउंड में ‘नो स्कूल नो फ़ीस’ के3 मुद्दे के साथ धरने पर बैठे थे। वो अकेले तो नही थे मगर धरने पर वैसी भीड़ भी नही थी, जैसा शोर था। एक राजनीतिक पार्टी से जुड़े फरहाद के लिए यह धरना राजनीतिक कारणों से बिल्कुल नही था। उनके साथ जुटे उनके साथियों सहित किसी को भी उनके राजनीतिक आका ने उन्हें ऐसा करने के निर्देश नही दिए थे। फरहाद बताते है कि उन्होंने खुद से ही यह किया इसे अंतरात्मा की आवाज़ कह सकते हैं । 3 बेटी और एक बेटे के पिता फरहाद गाड़ा सहारनपुर के एक संपन्न परिवार से है और स्कूल फ़ीस दे पाना उनके लिए मुश्किल नही है।

मगर इस सबके बावजूद वो 38 दिनों तक डटे रहे। कोरोना के खतरे से बेख़बर। फरहाद को इस दौरान सहारनपुर के लोगो का जबरदस्त समर्थन मिला। महामारी के चलते लोग धरने पर तो नही पहुंचे मगर तकनीकी तौर पर जुड़े रहे। यह धरना महामारी के दौरान स्कूलों द्वारा मांगी जा रही फीस के  विरोध में चल रहा था। फरहाद गाड़ा और उनके साथियों का कहना था कि जब स्कूल ही नही चल रहे हैं तो फीस का कोई मतलब नही बनता है ! इस मुहिम को ‘नो स्कूल नो फीस’ का नाम दिया गया। 38 दिन बाद स्थानीय सांसद और जिलाधिकारी के प्रयासों से यह धरना तो ख़त्म हो गया मगर मुद्दे की आंच ठंडी नही हुई।

फरहाद बताते हैं कि वो पिछले दो महीनों से अपने साथियों के साथ अभिभावकों का मन टटोल रहे हैं। महामारी के दौरान लोगों का रोज़गार बंद हो गया है। नौकरिया ख़त्म हो गई है। स्कूलों ने अपने स्टाफ़ की तनख़्वाह आधी कर दी है। ट्रांसपोर्ट बंद है। बच्चें मोबाइल खरीदने की ज़िद कर रहे हैं।

ऑनलाइन पढ़ाई राहत नही बल्कि ज़हमत(मुश्किल) बन कर आई है। अब 6 महीने से ज्यादा बीत चुके है। स्कूल फ़ीस बहुत महंगी है। स्कूल अपना चार्ज कम करने के लिए तैयार नही है।वो ट्रांसफर सर्टिफिकेट नही दे रहे हैं। छोटे बच्चों को स्कूल इसलिए भेजते हैं ताकि वो वहां पढ़ना सीख सके। स्कूलों ने उत्पीड़न के नए-नए तरीके खोजें है। वो सामूहिक रूप अपमानित करते हुए व्हाट्सएप ग्रुप से रिमूव कर देते हैं। पासवर्ड बदल देते हैं। इस समय इस मुसीबत में स्कूलों के इस पेशेवर नजरिये से अभिभावक बेहद दुःखी है।

फरहाद कहते हैं 38 दिन तक सड़क पर रहने और स्थानीय सांसद और  जिलाधिकारी के हस्तक्षेप के बाद कम से कम सहारनपुर के स्कूल मनमानी नही कर पाएंगे। हमारी लड़ाई के बाद से अभिभावकों का आत्मविश्वास भी बढ़ गया है और वो भी अपने साथ हो रहे ग़लत व्यवहार का प्रतिरोध करेंगे।हम किसी भी स्कूल के विरोधी नही है बल्कि हमारा अनुरोध है कि बीच का रास्ता खोज लिया जाएं।

भारत मे कोरोनाकाल मे शिक्षा बहुत बड़ी समस्या बन कर उभरी है। यहां इंटरनेट तो सस्ता है मगर शैक्षिक रूप से व्यवहारिक नही हैं। इंटरनेट का मुख्य उपयोग व्हाट्सएप और यू ट्यूब चलाने में खर्च हो रहा है। यही कारण है कि बच्चें ऑनलाइन पढ़ाई में भी खुद को कम्फर्ट फील नही कर रहे हैं। इस दौरान स्कूल कॉलेज बंद होने के बाद ऑनलाइन तालीम की व्यवस्था खुद में एक समस्या बनती जा रही है। देश भर ‘नो स्कूल नो फीस’ की आवाज़ बुलंद हो रही है। राजस्थान, झारखंड ,महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश,हरियाणा और पंजाब जैसे राज्यों में भी विरोध के भारी स्वर सुनाई दिए हैं। राजस्थान में 450 संस्थाओं ने इस मुहिम को समर्थन किया है। सोशल मीडिया पर 5 लाख से ज्यादा अभिभावक इसकी आवाज़ उठा रहे हैं। कई राज्यों की सरकारों ने बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की है। मगर बच्चों का भविष्य अंधकार की तरफ है और उनमें एक साल पिछड़ने का खतरा पैदा हो गया है।

झारखंड के बोकारो में स्कूल के बाहर ‘नो स्कूल नो फ़ीस’ का बैनर लेकर पहुंचे अभिभावक हो या उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में मकानों पर ‘नो स्कूल नो फ़ीस’ लगाने वाले अभिभावक सबका एक ही बात कहते। दिल्ली की आल इंडिया पेरेंट्स एशोसियसन के अध्यक्ष भूषण कुमार कहते हैं कि वो लॉकडाऊन की अवधि के दौरान फीस माफ़ी को लेकर मई से ऑनलाइन धरना दे रहे थे और अब दिल्ली सचिवालय के सामने भी आ गए हैं। स्कूल अभिभावकों पर मनमानी कर रहे हैं। वो अभिभावकों पर दबाव बना रहे हैं।ख़ासकर लॉकडाऊन के दौरान शुरुवाती तीन महीने की ट्यूशन फीस का तो कोई मतलब बनता ही नहीं है। इस समय अभिभावक पेट भरने की समस्या से जूझ रहे हैं और स्कूल वाले निर्दयी बने हुए हैं। वो अभिभावकों से बात करने की बजाय अपने राजनीतिक आकाओं की मदद से सरकार पर दबाव बनाने में जुटे हैं।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक स्कूल के प्रधानाचार्य दीपक धीमान कहते हैं “दर्द तो हमारा भी सुनना पड़ेगा, लाखों रुपये की तनख़्वाह कहाँ से दे ! अब आगंतुकों को चाय के साथ बिस्कुट भी नही खिला पा रहे हैं। सरकारी किंतु परन्तु में बहुत कन्फ्यूजन पैदा हुआ है। हम बच्चों और अभिभावकों के दुश्मन नही है। पेशेवर शिक्षा में व्यवस्था बनाने के लिए सभी के सहयोग की आवश्यकता होती है,हम खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं। “

बिजनोर के अभिभावक कपिल शर्मा बताते हैं कि वो नोएडा में एक संस्थान में नौकरी कर रहे थे। लॉक डाऊन के दौरान उन्हें वर्क फ्रॉम होम करना पड़ रहा है। तनख़्वाह आधी कर दी है। पिछले 3 महीने से वो भी नही मिली है। मेरा बेटा एक स्थानीय स्कूल में पढ़ता है। बेटी भी वहीं पढ़ती है। पहली बार फ़ीस 3 महीने नही दे पाया,स्कूल ने तुरंत ऑनलाइन ग्रुप से निकाल दिया। मैं ही बता सकता हूँ मुझपर क्या गुजरी !

एक स्कूल के मालिक  सुशील शर्मा बताते हैं कि सरकार ,स्कूल और अभिभावकों को मिलकर इसका समाधान निकालना चाहिए। हर समस्या का समाधान होता है मगर अफ़सोस यह है कि सरकारी तंत्र से इसकी गंभीरता को नही समझा गया है। अफसरों को अभिभावकों और स्कूलों में बैठकर समन्यवय कराना चाहिए क्योंकि इसमें बच्चों का ही नुक़सान है। एक बात यह भी है कि कुछ अभिभावक तो बिल्कुल सही कह रहे हैं उनकी हालात वाकई ख़राब है,उनसे बात की जा सकती है। मगर कुछ संपन्न अभिभावक लॉकडाऊन की आड़ में फीस नही देना चाहते हैं, इसे भी स्वीकार्य नही माना जा सकता है।

समस्या एक और जगह भी है,आम आदमी पार्टी के नेता प्रोफेसर अरविंद कुमार सिंह बताते हैं कि आज ही उन्हें जानकारी मिली कि ग्रेटर नोएडा के जी एल बजाज इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी ने आधे से ज्यादा शिक्षकों को टर्मिनेट कर दिया और शेष की तनख़्वाह आधी कर दी। अब यह तय ही मान ली लीजिये कि बच्चों को इस साल नुक़सान होगा उसकी कभी भरपाई नही हो पाएगी ! यह सरकारी कन्फ्यूजन और मिस मैनेजमेंट की कहानी है।

अरविंद बताते हैं कि उत्तर प्रदेश का एक मंत्री कहता था फीस देनी है और दूसरा कहता था नही देनी है। इसी कन्फ्यूजन ने अभिभावकों को स्कूल मालिकों के सामने खड़ा कर दिया जबकि सरकार दूसरा विकल्प खोज सकती थी।

उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री दिनेश कुमार शर्मा कहते है कि भिभावकों को फ़ीस देनी चाहिए,जबकि एक मंत्री अशोक कटारिया के अनुसार इसका कोई विकल्प नही है। अभिभावक है कि वो अड़ गए हैं। आफ़ताब आलम कहते हैं “लाखों रुपये पाने वाले सरकारी अध्यापकों की तनख़्वाह का एक हिस्सा निजी स्कूलों के शिक्षकों को दे दें। सरकार ऐसा कर देती है तो समाधान हो जाएगा।”

सहारनपुर के फहाद सलीम के अनुसार ‘नो इन्कम, नो स्कूल ,नो फ़ीस ‘कोई जिद नही है बल्कि जरुरत है। अब आप देखिए जब विद्वान लोग मिलकर ऑनलाइन अदालत नही चला पा रहे तो बच्चें तो अभी मासूम है। ऐसा लग रहा है कि न सरकार और न स्कूल मालिक कोई समाधान चाहते हैं और अभिभावक नाहक पिस रहे हैं।

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