नेहाल अहमद । Twocircles.net
पत्रकारिता हमारे जीवन का एक अहम हिस्सा है. इस डिजिटल युग में ही नहीं बल्कि काफ़ी पुराने समय से ही पत्रकारिता हमारे दैनिक क्रियाकलाप के एक अंग के रूप में अपनी जगह बनाता रहा है जिसका काम सत्ता की ‘ख़बर लेना’ (कड़े सवाल करना) और ख़बर देना होता रहा. हम पत्रकारिता केवल संस्थागत रूप में उन ख़बरों के वितरण के रूप में ही नहीं कर रहे होते हैं बल्कि मेरी समझ से एक पाठक और दर्शक के रूप में भी पत्रकारिता कर रहे होते हैं क्योंकि उस ख़बर को प्रकाशित करने या दिखाने का कारण यह ज़रूर होता है कि आपने उस ख़बर को अपने लिए चुन लिया है. आप उन्हें जाने-अनजाने देखते पढ़ते हैं तभी वो ख़बर, ख़बर के बाज़ार में ख़बर या प्रोपैगैंडा बनकर बिक रही होती है. एक दर्शक या पाठक की ज़िम्मेदारी इससे बढ़ जाती है क्योंकि तभी पत्रकारिता के कई नये मानक बन रहे होते हैं या मूलभूत मानक ध्वस्त हो रहे होते हैं.
पत्रकारिता में स्वतंत्रता एक बड़ी चुनौती है. इस क्षेत्र में चुनौतियों का सिलसिला कोई नया नहीं है. कॉरपोरेट और सरकारी दबाव के बीच नैतिक पत्रकारिता करना आज के राजनैतिक परिवेश के संदर्भ में बड़ी समस्या बन कर उभरा है जिससे कई ख़बरे या तो दब जाती है या फ़िर कई ख़बरों को दबा दिया जाता हैं. कई ख़बरों को दूसरे दृष्टिकोण से परोसा जाता है तो कई ख़बरें कुछ एकाध जगह इस तरह दिखाई जाती है जिससे सब अपनी-अपनी मतलब की बात निकाल कर उसे ‘न्यूट्रल’ मीडिया समझ सकें और साथ ही सच्ची पत्रकारिता का उदाहरण भी उसे ही बना सकें. उसी बचे हुए खम्भों को हम लोकतंत्र का चौथा स्तंम्भ कहने लगते हैं जबकि वो वास्तव में है या नहीं. यह सिद्ध करने में उसे वक़्त लगेगा क्योंकि बिक चुकी ज़मीन पर कुछ और स्तंम्भ खड़े कर दिए गए हैं जो अपने आप को चौथा स्तंम्भ या खम्भा बताते हैं. कई खम्बे एक ही रंग से पोत दिए गए हैं तो बड़ी कन्फ्यूज़न हो गई है. इसलिए ‘जागरूक’ जनता उसे ही चौथा खम्बा समझने लगती है जिसका रंग थोड़ा अलग है. विचित्र है कि कई लोगों को अभी भी उस रंग की समझ नहीं है इसलिए उसी एक रंग में रंगी मीडिया को देख वो किसी को ‘हरे’ रंग में देखते ही ‘लाल-पिला’ हो जाता है.
भारत ही नहीं बल्कि दुनियाँ भर में कई पत्रकारों को पत्रकारिता के लिए कई बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ता है. कई संस्था मीडिया की आज़ादी को मापने के कई पैमाने बनाकर उसकी रैंकिंग जारी करती है जिससे कि यह पता चल सके कि किस देश में मीडिया की आज़ादी और उसकी सुरक्षा पर कितना ध्यान दिया जाता है. भारत के एक प्रसिद्ध पत्रकार का कथन है कि ” किसी देश की सरकार कैसा काम कर रही है यह देखने के लिए हमें उस देश की मीडिया की हालत देखनी चाहिए कि उसे कितनी स्वतंत्रता दी गई है.”
पिछले साल दिसंबर में एक न्यूज़ साइट में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक ” बीते पांच सालों में भारत में पत्रकारों पर 200 से अधिक गंभीर हमले हुए हैं. एक नए अध्ययन में यह बात सामने आई है. ‘गेटिंग अवे विद मर्डर’ नाम के अध्ययन के मुताबिक 2014 से 2019 के बीच भारत में 40 पत्रकारों की मौत हुई, जिनमें से 21 पत्रकारों की हत्या की वजह उनके काम से जुड़ी थी”.
अध्ययन के मुताबिक 2014 के बाद से अब तक भारत में पत्रकारों पर हमले के मामले में एक भी आरोपी को दोषी नहीं ठहराया गया है.
अब आप ही देखिये कि लंबे समय तक ‘कश्मीर टाइम्स’ और ‘द हिन्दू’ जैसे बड़े और स्थापित अखबारों के लिए काम करने के बाद शुजात ने मार्च, सन् 2008 में ‘राइजिंग कश्मीर’ नाम से नये अखबार का प्रकाशन शुरू किया था. उस शुजात बुख़ारी की हत्या उनके दफ़्तर के पास दो साल पहले 14 जून 2018 को कर दी गई. इससे पहले 5 सितम्बर 2017 को गौरी लंकेश की हत्या होती है. दरअसल एक प्रक्रिया के तहत ये सब होता चला गया और दोषियों पर क्या कार्रवाई हूई है यह आप खुद समझ सकते हैं कि यह केस कहाँ खड़ा है.
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक पिछले साल नागरिकता संशोधन कानून को लेकर हुए विरोध प्रदर्शनों के बीच 11 दिसंबर से 21 दिसंबर तक 14 पत्रकारों पर हमले हुए. पत्रकारों को डराया, धमकाया, उत्पीड़न किया गया जिसमें बड़ी संख्या मुस्लिम समुदाय से सम्बंधित थे.
यूनेस्को की माने तो उसके मुताबिक 2006-2018 तक दुनियाँ भर में 1109 पत्रकारों की हत्याओं के लिए ज़िम्मेदार लोगों में से करीब 90% को दोषी करार नहीं दिया गया. साथ ही इसके मुताबिक इन्हीं वर्षों के बीच 55% पत्रकारों की मौत संघर्ष रहित क्षेत्रों में राजनीति, अपराध और भ्र्ष्टाचार पर रिपोर्टिंग के लिए हूई.
फ्रांस की पेरिस स्थित ग़ैर सरकारी संस्था ‘रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स’ हर साल मीडिया की आज़ादी, अभिव्यक्ति और पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर एक सूचकांक तैयार करती है जिसमें वो फिलहाल 180 देशों को शामिल करती है. इस सूचकांक के मुताबिक भारत हर वर्ष मीडिया की आज़ादी, अभिव्यक्ति एवं सुरक्षा के मापदंडों को लेकर पीछे जा रहा है. इस वर्ष 2020 के सूचकांक के मुताबिक 180 देशों की तुलना में भारत का स्थान 142वां है. यह साल 2019 में 140वां और 2018 के सूचकांक में 138वां स्थान था.
कोई संस्था के किसी रिपोर्ट को भले ही पूरी तरह कोई माने या न माने लेकिन इसके पैमानों पर ग़ौर कर हमें मोटे तौर पर यह पता चलता है कि हमारे देश के साथ- साथ दुनियाभर के देशों में मीडिया की क्या स्थिति है और उन चुनौतियों से लड़ने में हमें किन बातों पर ध्यान देने की ज़रूरत है. इस आलेख को भी अंतिम न माना जाए. इन सब से संबंधित और भी कई पहलुओं को देखे समझे जाने की ज़रूरत है.