ग़ाज़ियाबाद में शेरशाह सूरी के बनवाएं हुए ग्रेंड ट्रंक रोड (जीटी रोड) पर स्थित शम्भुदयाल कॉलेज के लिए खेलते हुए नौशाद 12 साल की उम्र में पहली बार मिर्ज़ापुर खेलने गया। 2015 में ग़ाज़ियाबाद में स्टेट चैंपियनशिप में वो गोल्ड मैडल हासिल करने वाली टीम का हिस्सा था। अब इसी कॉलेज के बाहर वो एक ठेली पर सजाई हुई दुकान पर पंक्चर लगाता है। सिर्फ 20 साल की उम्र में उसका ख़्वाब मर चुका है। उसके पास न पढ़ने के पैसे है और न खेलने के, यह एक सपने के मर जाने की कहानी है…
आसमोहम्मद कैफ़ । Twocircles.net
“जिस स्कूल में बच्चा पढ़ता है, उसका अध्यापक भी अगर स्कूल से बाहर कहीं मिल जाएं तो बच्चें शर्म महसूस करते हैं। बच्चें अपने पिता का काम करते हुए मिल जाएं तो आपस मे शर्मिंदा हो जाते हैं। ख़ासकर वो काम मजदूरी, रिक्शा चलाना, वेल्डिंग जैसा कुछ भी हो तो ! क्योंकि क्लास में तो कोई अमीर ग़रीब नही होता ! सड़क और गलियारे में होता है ! मेरा निजी अनुभव कहता है कि ऐसे संघर्षशील पिता के बच्चें अपनी जिंदगी के उस पक्ष को कभी स्कूल में नही लाते। मगर वो तो उसी स्कूल के बाहर पंक्चर की दुकान खोलकर बैठ गया। उसी स्कूल में जिसमें वो पढ़ता था। जहां उसके लिए तालियां बजती थी। जहां उसके प्रशसंक थे। उसके दोस्त थे। वहीं जहां वो हीरो था।
वो बिल्कुल नही शरमाया। एक ही कपड़े पहनकर रोज़ टूटी हुई साईकिल को ठीक करता रहा साईकिल और अपनी जिंदगी दोनों के पंक्चर जोड़ता रहा। मैं इस लड़के का जिगरा देख कर हैरान था। मैंने खुद इसे पढ़ाया था। उसका नाम नौशाद था। वो हमारे कॉलेज का स्टार था। हॉकी का जबरदस्त प्लयेर लेफ्ट आउट का उभरता हुआ टैलेंट । उसके बारे हर कोई कहता था यह लड़का बहुत आगे जाएगा। अब वो स्कूल के आगे वाली दुकान पर ही पंचर जोड़ रहा था”।
गाजियाबाद में खेल शिक्षक परवेज़ अली हमें यह सब बताते है। वो एक ऐसे नोजवान नौशाद के बारे में बता रहे हैं जिसे उन्होंने 3 साल पहले हॉकी खेलते देखकर यह कहा था कि इस लड़के को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलने से कोई रोक नही पाएगा । तब नौशाद स्टेट चैंपियनशिप में खेल रहा था। वो शम्भुदयाल इंटरकॉलेज का छात्र था और महामाया स्टेडियम गाजियाबाद में प्रैक्टिस करता था। शम्भुदयाल कॉलेज इसी नौशाद पर गर्व करता था और वो एक सितारा बन चुका था।
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मगर इन तीन सालों में नौशाद की दुनिया बदल गई। उसके पिता को अल्लाह में बुला लिया और कोच को ‘भगवान‘ ने। बाप के चले जाने के बाद नौशाद को अपने पिता की पंक्चर की दुकान चलानी पड़ी और कोच के चले जाने के बाद हॉकी छोड़नी पड़ी।
20 साल का नौशाद मेवाती ग़ाज़ियाबाद के मौहल्ले इस्लामनगर में एक 60 गज के मक़ान अपनी मां के साथ रहता है। साल 2015 में अपने पिता को खोने के पहले उसकी जिंदगी में हॉकी की बड़ी अहमियत थी। सिर्फ छठी कक्षा से हॉकी खेलना शुरू करने वाले नौशाद के सपने की उम्र सिर्फ 2015 तक थी जब उसने अपने पिता की पंक्चर की दुकान संभाल ली जो उसके ही कॉलेज के बाहर थी।हिम्मत तो तब भी बहुत टूटी मगर कोच के सहारे से हॉकी खेलना उसने इसके बाद भी जारी रखा मगर 2018 में उसके हॉकी के ‘पिता‘ कोच रामनिवास त्यागी की मौत के साथ ही उसका सपना टूट गया और उसने हॉकी से तौबा कर ली।
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ग़ाज़ियाबाद में शेरशाह सूरी के बनवाएं हुए ग्रांट ट्रक रोड (जीटी रोड) पर स्थित शम्भुदयाल कॉलेज के लिए खेलते हुए नौशाद 12 साल की उम्र में पहली बार मिर्ज़ापुर खेलने गया। 2015 में ग़ाज़ियाबाद में स्टेट चैंपियनशिप में वो गोल्ड मैडल हासिल करने वाली टीम का हिस्सा था। अब इसी कॉलेज के बाहर वो एक ठेली पर सजाई हुई दुकान पर पंक्चर लगाता है।
नौशाद बताते हैं “मेरे खेल में परिवार में किसी की कोई रुचि नही थी। मैं एक सीनियर खिलाड़ी विनोद से प्रभावित हुआ था। कॉलेज में खेल होता था मुझे लगा मैं खेल सकता हूँ तो खेलने लगा। लड़के बताते थे कि नेशनल खेलने पर सरकारी नौकरी मिल जाएगी। इसलिए मैं सरकारी नौकरी पाना चाहता था इससे मेरे परिवार की ग़रीबी दूर हो सकती थी। जब भी स्टिक से बॉल मारता था तो मुझे लगता था कि मैं अपनी ग़रीबी को दूर फेंक रहा हूँ। मगर मेरी बॉल तो दूर चली गई मगर मेरी ग़रीबी वापस आ गई। अब्बू को नही जाना चाहिए था वो वक़्त से बहुत पहले चले गए । अम्मी को खेल से क्या मतलब ! एक बहन की शादी भी करनी थी। एक बडे भाई है वो वेल्डिंग का काम करते हैं।हमारी पूरी कोशिश यह रहती है कि घर की जरूरतें पूरी हो।हॉकी ऐसा कर सकती थी मगर मैं पंक्चर जोड़ना नही छोड़ सकता था उससे मेरे घर मे आटा आता है। हॉकी से क्या मिलता है ! मेरी अम्मी की समझ मे तो यही आया ! अब हॉकी क्रिकेट तो नही है न !दो साल पहले छोड़ दी थी स्टिक ! अब पंक्चर जोड़ कर 300 ₹ हर दिन कमा लेता हूँ ।”
जुडो कोच परवेज़ अली बताते हैं कि अब वो नौशाद के लिए कुछ करना चाहते हैं और इसके लिए समर्थन जुटा रहे हैं,दरअसल वो कभी नहीं चाहते है पैसे के अभाव के कोई प्रतिभा दम तोड़ जाएं। वो जुडो के कोच है मगर नौशाद का निर्देशन करेंगे। उसे मैदान पर लौटना होगा। सिर्फ 10-12 हजार महीना रुपये न होने पर कोई प्रतिभा मरने नही दी जाएगी।
जिंदगी के थपेड़ों के बीच खेल को लेकर नौशाद का उत्साह अब कमज़ोर पड़ चुका है। उससे बातचीत में साफ़ लगता है कि अब उसे कोई उम्मीद नही है। हॉकी भारत का राष्ट्रीय खेल हैं। मगर उदीयमान प्रतिभाओं को संजो कर रखने का कोई सरकारी प्लान दिखाई नही देता है। इसलिए नौशाद जैसा सूरज निकलने से पहले ही अस्त हो जाता है। नौशाद की अम्मी नसीमा कहती है”मैं कुछ नही कह सकती”।
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