कांधों पर दर्द की गठरी लादे मेहनतकशों के लिए दर्दमंदी की चादर लेकर निकले कुछ जियाले

  • मुसलसल चलने वालों के लिए भोपाल में मुसलसल जारी है ख़िदमत का दौर
  • हाईवे पर दिन-रात मौजूद रहते हैं ख़िदमतगार
  • खाना, पानी, दूध, बिस्किट, ओआरएस, चप्पल, नक़दी जिससे जो बन पड़ रहा, दे रहा है
  • ‘हमारे पास से जो भी गुज़रा होगा, यक़ीन है अब वह कभी मॉब लिंचिंग में हिस्सा नहीं लेगा’

जावेद आलम

आंखों में सूखे आंसू, पैरों से रिसते छाले, कांधों पर दर्द की गठरी लादे मेहनतकश, कोरोना-वोरोना सब कुछ भूलभाल जब सड़कों पर निकले तो दर्दमंदी की चादर लेकर कुछ जियाले भी निकल पड़े। यहां-वहां, जहां-तहां जिससे जैसा, जितना बन पड़ा, उस चादर को फैलाने की कोशिश करने लगे, ताकि ख़िदमत के साए में दर्द का यह सफ़र कुछ आसान हो जाए। भोपाल में की जा रही कोशिशों में से ऐसी ही एक कोशिश के कुछ हिस्से…


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भोपाल के क़रीब स्थित मुबारकपुर चौराहा बाइपास पर टोल टैक्स के नज़दीक इन दिनों चौबीस घंटे गहमागहमी का समां रहता है। मेहनतकशों के क़ाफिले यहां से गुज़र रहे हैं। बसों, ट्रकों, कारों, मध्यम व छोटी लोडिंग गाड़ियों में। और वे मजबूर जो इतने मजबूर भी नहीं थे, जिनकी इंसानियत को शर्मसार कर देने,  दर्दमंद दिलों को विचलित कर देने वाली तस्वीरें आप को अब जगह-जगह दिखने लगी हैं। वे ‘मजबूर’ आज पैदल या साइकिलों पर हज़ारों किलोमीटर का फ़ासला तय कर अपने घर के लिए निकल पड़े हैं। अब घर पहुंचने लगे इन मेहनतकशों का शुरू में कोई पुरसाने-हाल नहीं था। फिर इंसान का इंसान से दर्दभरा प्राकृतिक रिश्ता जागा। इस कोरोना-काल में भी कुछ लोग इनकी ख़िदमत के लिए निकल पड़े।

जमाअते-इस्लामी हिंद की भोपाल इकाई इस ख़िदमत में सक्रिय भूमिका निभा रही है। गोकि मिल्ली काउंसिल, बीबीएम, तब्लीग़ी जमाअत और अन्य कई संस्थाएं भी अपनी सतह पर काम कर रही हैं। खाने के पैकेट और पानी से हुई शुरुआत जूते-चप्पल, फल, ओआरएस, बच्चों के लिए दूध व बिस्किट के साथ सेनेटरी पैड तक पहुंच गई। बेहद जरूरतमंदों के लिए दवाओं का इंतजाम, तो बिगड़ रही गाड़ियों के लिए मेकेनिक व स्पेयर पार्ट्स की व्यवस्था भी की जा रही है। जमाअते-इस्लामी से जुड़े मुहम्मद मूनिस के मुताबिक़ यह सब अचानक से नहीं हुआ है। दुखियारों की मदद का मंसूबा पहले से था, विपरीत परिस्थितियों में यूं बेयारो-मददगार निकल पड़े मेहनतकशों के लिए बस हाईवे तक आना पड़ा।

उनके साथी, कोहे-फिज़ा मस्जिद के सदर सुहैल ख़ान बताते हैं कोरोना और लॉक डाउन का सुन कर गरीबों की मदद करने के लिए 22 मार्च की दोपहर सभी संगठनों की मीटिंग मस्जिद कोहे-फिज़ा में बुलाई गई थी। मगर दोपहर की वजह से कम लोग पहुंचे। मीटिंग आगे बढ़ाने पर विचार के बीच किसी ने कहा कि लॉक डाउन में अगली मीटिंग का मौका नहीं मिलेगा। सो उसी रात मीटिंग की गई और तय किया गया कि लॉक डाउन के दौरान गरीबों, मुसाफिरों, विद्यार्थियों के लिए खाने का इंतजाम किया जाएगा। अंदाजा लगाया गया था कि तकरीबन 12 से 15 हजार लोगों का खाना रोज़ बनाना होगा। इसके लिए गोलघर, कोटरा सुल्तानाबाद, नई बस्ती गांधी नगर, ऐश बाग स्थित मस्जिदों के साथ क्रिसेंट स्कूल जहांगीराबाद, हनीफ शादी हॉल करोद में किचन सेंटर बनाए गए और ज़रूरतमंदों को खाना पहुंचाने का काम शुरू हुआ।

मुहम्मद मूनिस के मुताबिक़ इन लोगों की ख़िदमत का काम जारी था कि 3 मई को फोन आया, एक ट्रक में 90 लोग बॉम्बे से चले हैं और बस्ती (यूपी) जाना है। उनके लिए खाने का इंतजाम हो सकता है?  सलामतपुर के साथियों से बात की और वहां खाना तैयार होने लगा। ट्रक आने की ख़बर मिली तो दोस्त अंसार ख़ान को लेकर रवाना हुआ। साथ में पानी के पाउच व बिस्किट के 60 पैकेट भी ले लिए थे। हाईवे पर पहुंच तो गए, लेकिन डर भी था कि पुलिस ने पकड़ लिया तो क्या बनेगा? उधर ट्रक वाला बाहर का था, वह सही लोकेशन नहीं बता पा रहा था। 30 किमी. घूम कर उसे ढूंढा, मगर वह रुकने को तैयार नहीं था। लोग किसी भी तरह निकल जाने को बेताब थे। बमुश्किल तमाम रोक कर उन्हें बिस्किट के पैकेट्स व पानी के पाउच दिए। वहीं देखा कि ऐसे बहुत से ट्रक गुजर रहे हैं, जो कवर्ड हैं और उनके अंदर लोग भरे हैं।

अगले दिन 4 मई से तो पैदल या साइकल से आने वालों का तांता लग गया। ये वो लोग थे, जो सप्ताह भर पहले निकले थे। उस दिन खाने के 3 हजार पैकेट व पाउच आधे घंटे में खत्म हो गए। उनके लिए तो यह खाना नाम मात्र का था, बस खजूर जैसा। फिर एक दिन में खाने के 15 हजार पैकेट तक बंटने लगे। 450 पैकेट दूध के तथा 2500 पैकेट बिस्किट के बंटते हैं। इस काम के लिए जमाअत को जानने वाले लोगों के अलावा दीगर लोग यहां तक कि हिंदू हज़रात भी मदद कर रहे हैं। शाहपुरा स्थित स्वचरा नामक एनजीओ से जुड़े डॉ. रमाणी व डॉ. रवि ऐसे ही लोग हैं। वे ओआरएस, सेनेटरी पेड्स व स्लीपर्स मुहैया करा रहे हैं। जमाअत के साथी फरहान कहते हैं कि उन दोनों हजरात में वे तमाम खूबियां जैसे निस्वार्थ सेवा, हमदर्दी व ईमानदारी हैं, जो एक मोमिन यानी सच्चे मुसलमान में होती हैं। वे खूब मदद करते हैं।

इसी तरह मुंगावली गांव वालों ने दो किस्तों में 60 क्विंटल गेहूं इस काम के लिए दिया। वहां जमाअत बरसों से ज़रूरतमंदों के लिए राशन किट भेज रही है। उनसे जरा सा कहा था कि ऐसे काम में मदद की जरूरत है, उन्होंने दिल खोल कर दिया। कुल मिला कर मुख़्तलिफ़ जगहों से 200 क्विंटल गेहूं इस टीम को मिल चुका है। इंसानियत से हमदर्दी रखने वाले रुपए-पैसे से भरपूर मदद तो कर ही रहे हैं। जमात के ज़िम्मेदार बताते हैं, चंद दिन पहले लेखा-जोखा देखा तो 65 लाख रुपए खर्च हो चुके हैं। लगता है तीन माह यह संकट और चलेगा। 1 करोड़ रुपए और खर्च होने का अंदाजा है। मुहम्मद मूनिस शिकायत करते हैं अलबत्ता सरकार व अख़बार कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं। अधिकारी सरकारी गाड़ियों से आते हैं, मुंह फेर के निकल जाते हैं।

सोशल वर्कर व थिएटर आर्टिस्ट शावेज सिकंदर बताते हैं कि सारी तंज़ीमों के लोगों को मिला कर कभी-कभी तो वहां 200 तक ख़िदमतगार जमा हो जाते हैं। जज़्बे का यह आलम कि साथी ज़रा में मदद करने उमड़ पड़ते हैं। हाल ही इटारसी से फोन आया कि बैंग्लुरु से आ रही ट्रेन में 70 लोग रोज़े से हैं। उन्हें खाना नहीं दे पाए। भोपाल में इंतजाम करा दीजिए। यह मैसेज हमने जैसे ही व्हाट्स एप ग्रुप में डाला, धड़ाधड़ खबरें आने लगीं कि इतने पैकेट हमारे पास हैं, इतने हमारे पास। कुछ देर बाद ही मना करना पड़ा कि इधर ज़रूरत पूरी हो गई है। यही बात मुहम्मद मूनिस भी कहते हैं कि खाने की इफ़रात देखते हुए कुछ किचंस को कुछ दिन के लिए आराम दिया है।

मेहनतकशों की परेशानियां देख जो भी यहां आता है, घंटा-आध घंटा तो ज़ारो-क़तार रोता रहता है। यह बताते हुए मुहम्मद मूनिस कहते हैं, मंजर 1947 जैसा लगता है कि यह क्या हो गया, कैसे हो गया? इंसान इतना बेयारो-मददगार…! जो कुछ भी है बहुत हैरत अंगेज़ है। मुंबई से चले दो लोग। इलाहाबाद जाना है। सूरत से 800 रुपए में साइकल खरीदी। 75 किलो की गठरी साथ ले के कैसे जा पा रहे होंगे? मगर जा रहे हैं। एक शख्स जो मुंबई से साइकल ले कर चला, ‘पता है आपको उसकी मंज़िल क्या है…? नेपाल!’ मगर रहमदिल लोगों ने भी बला की दरियादिली दिखाई। बड़े पैमाने पर मदद की। अल्लाह उन्हें इसका सिला दे। एक जोड़ा आया तो पचास हजार रुपए लाया कि इनमें बांट देना। जिसे भी नक़द पैसे दिए, उनकी आंखें भर आती थीं। हमने भी कोई कमी नहीं की। दिल खोल के रख दिया कि देखो हम ऐसे हैं। ‘हमारे पास से जो भी गुज़रा होगा, यक़ीन है अब वह कभी मॉब लिंचिंग में हिस्सा नहीं लेगा।’

लोग समझ रहे हैं कि हम बेलौस ख़िदमत कर रहे हैं!

मुहम्मद मूनिस हों, सुहैल खान या जमाअत के ज़िम्मेदार शकील खान एक सुर में कहते हैं,  ‘हमने पैगंबरे-इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलयहि व सल्लम के तरीक़े पर चलते हुए सिर्फ़ सवाब (पुण्य) कमाने की ग़रज से यह काम किया है। मुसलमानों के ख़िलाफ़ फैलाई जा रही नफ़रत धोने के मक़सद से ‘साज़िशन’ यह काम नहीं किया। ऐसा करेंगे तो रब के यहां जो इनाम मिलने वाला है, उससे महरूम (वंचित) रह जाएंगे। लोग समझ रहे हैं कि हम बेलौस यानी निस्वार्थ सेवा कर रहे हैं। बस, इ

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