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बिहार चुनाव ग्राऊंड रिपोर्ट : “कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी की भी सरकार आए, लेकिन हम नहीं चाहते कि नीतीश कुमार वापस आएं ” कहते हैं बिहार के पसमांदा मुसलमान

बिहार से मीना कोतवाल की Twocircles.net के लिए ग्राऊंड रिपोर्ट 

बिहार विधानसभा चुनाव का आज आख़िरी चरण है। बिहार में आज यानि 7 नवंबर को तीसरे और आख़िरी चरण के लिए वोटिंग शुरू हो गई है। 16 ज़िलों के 78 सीटों पर आज मतदान हो रहे हैं। सभी पार्टी अपने राजनीतिक समीकरण साधने में लगी हुई है, जिसमें जातीय समीकरण अहम रहता है, हालांकि इसका ज़िक्र वे अपने चुनावी मुद्दों में नहीं करते. लेकिन ये पहले से तय रहता है कि कौन सी जाति का वोट उन्हें मिलने जा रहा है और उसके लिए उन्हें कौन से वादे करने हैं। हिंदू धर्म में जातीय भेदभाव किसी से छिपा नहीं है। लेकिन यहाँ बिहारी मुसलमानों में भी जातीय व्यवस्था दिखाई देती हैं !

आख़िरी चरण में मतदान सीमांचल और मिथिलांचल के इलाकों में होने हैं जहां मुसलमानों की आबादी अच्छी-खासी है। भारतीय जनता पार्टी के अलावा यहां सभी पार्टियों ने मुसलमान उम्मीदवारों को जगह दी है। कहा जाता है कि बिहार की रग-रग में राजनीति बसी है. यहां देश के अन्य राज्यों के मुकाबले सबसे ज्यादा राजनीतिक पार्टियां भी सक्रिय दिखाई दे जाएंगी । इस बार की करवट लेती राजनीति में भी पसमांदा वोट अति महत्वपूर्ण माना जा रहा है लेकिन भाजपा इसकी परवाह नहीं कर रहा और उनका एजेंडा साफ है और वो केवल हिंदू वोट पर ही फोकस किए हुए हैं। लेकिन जातीय समीकरण में पसमांदा मुसलमानों की भागीदारी बाकि पार्टियों में अमूमन ना के बराबर देखने को मिलती है।

सिंगरहिया गांव के सदरे आलम भाट जाति से आते हैं. वे शादियों, छठ पूजा, दुर्गा पूजा आदि खुशी वाले माहौल में गाने-बजाने का काम करते हैं। वे और उनकी टीम के पास बस एक यही जरिया है अपनी रोज़ी-रोटी का। लेकिन पिछले 7 महीने से खाली बैठे हैं क्योंकि कोरोना वायरस के चलते शादी-ब्याह और दुर्गा पूजा जैसे त्योहार पर असर पड़ा है और उन्हें काम नहीं मिला है।

सदरे बताते हैं, “मुसलमान में हमें छोटी जाति का माना जाता है। बड़ी जाति वाले यानि हमें और हमारे काम को पसंद नहीं करते। उन में अधिकतर लोग मानते हैं कि गाना गाना-बजाना इस्लाम में हराम होता है और वे हमें अपने यहां किसी भी महोत्सव या शादी में भी नहीं बुलाते। वे ( मुसलमान में ऊंची जाति के लोग) हमको कहते हैं कि ये काम धीरे-धीरे छोड़ दीजिए, कोई और काम कीजिए और परिवर्तन लाइए। ”

इसी टीम में खुर्शेद राय भी हैं जो गाने बजाने का काम करते हैं। वे बताते हैं कि हमारे धर्म में बड़का जात के लोग हमसे नफ़रत करते हैं क्योंकि हम गाने-बजाने का काम करते हैं। हमारे यहां शादी नहीं करते हैं। हमारे साथ उठना-बैठना करते हैं लेकिन शादी करना पसंद नहीं। हमें अपने शादी-ब्याह में भी गाने के लिए नहीं बुलाते हैं लेकिन मुसलमानों की छोटी जातियों के यहां हम गाने बजाने जाते हैं।  सिंगरहिया गांव में ही एक महिला धान साफ कर रही है।  वे बढ़ई जाति से हैं। वे बताती हैं कि वोट मांगने सब नेता आते हैं लेकिन करता कोई कुछ नहीं। इसलिए हम अपने वोट देते वक्त देखते हैं कि किसने हमारे लोगों को जगह दी है।

पूर्वी चंपारण के हरदिया गांव में अधिकतर आबादी सब्जीफरोश जाति की है, जिन्हें कई लोग कबाड़ी के नाम से जानते हैं. हालांकि ये लोग कबाड़ी कहलवाना पसंद नहीं करते हैं। वे बताते हैं कि वैसे तो हमें कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी की भी सरकार आए, लेकिन हम नहीं चाहते कि नीतीश कुमार वापस आएं। तेजस्वी यादव वादा किए हैं कि वे रोजगार देंगे और इस समय बे-रोजगारी बिहार की अहम समस्या है. वहीं मौजूद एक महिला एक डंडे के सहारे आती हैं और बताती हैं कि उनके पति उन्हें शराब पीकर बहुत मारा, जिसकी वजह से उनका पैर टूट गया है. जब हमने पूछा कि शराब तो बिहार में बंद है तो वे गुस्से में बताती हैं कि कोई शराब बंद नहीं है. बल्कि अब शराब मिलना और आसान हो गया है, जगह-जगह शराब मिलती है। पहले से मंहगी मिलती हैं. साथ ही वे ये भी बताती हैं कि अब महिलाओं की दिक्कतें और ज्यादा बढ़ गई है. घर में अगर उन्हें दारू के लिए पैसे नहीं देते तो वे हमें मारते हैं। वे कहती हैं कि झूठ-मूठ की सरकार दारू बंद की है जबकि दारू तो सब जगह मिलती है।

वहीं अपने घर के बाहर एक महिला खूशबू बेगम खड़ी हैं। वे बताती हैं कि सरकार ने सिर्फ वादे किए हैं लेकिन काम नहीं। हमारे घर में पांच लोग हैं वहीं कमाने वाला सिर्फ एक। लेकिन लॉकडाउन में वो भी घर बैठ गए हैं। हमारी दिक्कतें इतनी बढ़ गई हैं कि अब खाने-पीने की भी दिक्कत शुरू हो गई हैं। कोई सरकार का आदमी हमारा हाल पूछने नहीं आता है। उनका घर फूंस का बना हुआ हैं,  उनसे शौचालय और एलपीजी सिलेंडर के बारे पूछा तो उन्होंने बताया कि शौच के लिए बाहर जाते हैं। दिन में बहुत दिक्कत होती है, सिर्फ रात के अंधरे में ही शौच करने जा पाते हैं। सिलेंडर का कनेक्शन भी हम खुद से ही लिए लेकिन उसमें भी सिलेंडर खरीदने के पैसे नहीं होते। चूल्हें पर खाना बनाते हैं. और इन सब के लिए हमें कोई पैसा भी नहीं मिला। महिलाओं का अकेले में निकलना मुश्किल है, ऐसे में शौच के लिए बाहर जाना भी एक डर के साथ जीने जैसा है।

मोहम्मद इकराम मुंबई में एक कारखाने में काम करते हैं, जहां चमड़े के बैग बनाने का काम होता है। वे लॉकडाउन के समय दो महीने वहीं फंसे रहे, जहां उनके पास खाना तो दूर पीने के लिए साफ पानी तक नहीं था। वे बताते हैं जब दो महीने बात स्पेशल ट्रेन चलना शुरू हुई तो उसमें हम जैसे तैसे आए। 72 घंटे में यहां पहुंचे और तब तक कुछ खाए भी नहीं थे. ऊपर से काम-धंधा बंद हो गया था हमारे पास पैसे भी नहीं थे। किसी तरह परिवार वालों को कहा कि वे कुछ पैसा भेज दे ताकि हम घर आ सके तो उन्होंने घर की जमीन बेची और हमारे पास पैसे भेजे. तब जाकर हम घर आ पाए। वे बताते हैं कि हमारा खुद का मन नहीं होता घर छोड़कर जाने का लेकिन यहां रोजगार है नहीं तो मजबूरी में घर से दूर रहना पड़ता है।  ये दौर ऐसा है जहां सरकार आज बड़े-बड़े वादे कर रही है लेकिन इसी सरकार ने हमें वापस बुलाने से भी मना कर दिया था। ऐसे में क्या सोचकर इन्हें वोट दें।

इस्लाम में कोई जातिवाद नहीं है लेकिन यहां के लोगों ने जातिवाद फैला रखा है. हमारे लोग तो हमें कहीं दिखते ही नहीं। हमारे साथ बड़ी जाति यानि शेख, सैयद, पठान लोग शादी करना पसंद नहीं करते। वे रिश्ता अपनी ही जाति के लोगों में करना चाहते हैं।  हमें नीचा समझते हैं और हमारे काम को भी पसंद नहीं करते। वे ये भी बताते हैं कि नेता लोग भी हमें नहीं पूछते हम उनके लिए बस एक वोट हैं जाति और उसके दुख से उन्हें मतलब नहीं।  नेता लोग भी वोट मुसलमान के नाम पर लेता है लेकिन जातीय भेदभाव पर बात नहीं करता। सरकार की तरफ से आरक्षण नहीं मिलता है जबकि हमारे साथ जातीय भेदभाव होता है।

साल 2011 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार बिहार में लगभग 17 प्रतिशत मुसलमान है और एक अनुमान के अनुसार  80  प्रतिशत इनमें पसमांदा मुसलमान हैं। लेकिन इनका प्रतिनिधित्व जल्दी से कहीं दिखाई नहीं देता, चाहे वो शासन-प्रशासन हो, बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी हो, न्यायपालिका हो या राजनीति ही क्यों ना हो. बिहार में पिछले 15 साल नीतीश कुमार के हाथ में सत्ता रही तो उससे पहले के 15 साल लालू प्रसाद यादव ने बिहार की कमान संभाली हुई थी। लालू प्रसाद यादव को हिंदुओं में दलित-ओबीसी का दुख तो दिखाई दिया लेकिन किसी भी सरकार को पसमांदा मुसलमान नहीं दिखाई दिए। जिसकी वजह से ये समुदाय पिछड़े तो और पिछड़ता चला गया। गौरतलब है कि बिहार चुनाव का परिणाम दस नवम्बर को आना है, तब ही पूरी तरह से साफ हो पाएगा कि किसी सरकार बनेगी. क्या 15  साल का कार्यकाल पूरा होने के बाद अब तख़्ता पलट जाएगा या एक बार फिर बिहार की जनता पिछली सरकार को ही चुनेगी !