वसीम अकरम त्यागी Twocircles.net के लिए
नॉर्थ ईस्ट दिल्ली में साल भर पहले हुए सांप्रदायिक दंगों को एक साल हो गया है। ये दंगे 23 फरवरी 2020 को शुरु हुए और 26 फरवरी तक चले थे। इन दंगों में 53 लोगों ने अपनी ज़िंदगी गंवाई है। साल भर बाद भी इस हिंसा के जख्म भर नहीं पाए हैं। इन दंगों में किसी ने अपनों को खोया तो कोई अपाहिज़ बना दिया गया। दिल्ली के कर्दमपुरी के एक दडबेनुमा मकान में 13 वर्षीय फैज़ान अपनी दादी के साथ रहता है। जिस रोज़ दंगे हुए शुरु हुए उस रोज़ फैज़ान सुबह नाश्ते का सामान लेने के लिये गया हुआ था, इसी दौरान हिंसा शुरु हो गई जिसकी चपेट में फैज़ान भी आ गया। फैज़ान की पीठ में गोली लगी और वह ज़मीन पर गिर गया।
फैज़ान के मुताबिक़ जब उसे होश आया तो उसने खुद को अस्पताल में पाया। फैज़ान को होश आते ही उसके परिजनों ने राहत की सांस तो ली लेकिन फैज़ान के साथ जो हुआ उससे उसकी दुनिया ही बदल गई। पीठ में गोली लगने की वजह से फैज़ान चल नहीं सकता। क्योंकि गोली लगने की वजह से उसकी रीड की हड्डी प्रभावित हुई जिसकी वजह से फैज़ान का एक पैर काम नहीं करता। इस हादसे ने फैज़ान को तोड़कर रख दिया। फैज़ान उत्तर प्रदेश के रामपुर का रहने वाला है। सांप्रदायिक नफरत में डूबकर हिंसक हुए समाज के साथ साथ उसे क़ुदरत की भी मार झेलनी पड़ी है। दरअस्ल फैज़ान के जन्म के वक्त ही उसकी मां का निधन हो गया था, जिसके बाद उसके पिता ने दूसरी शादी कर ली। फैज़ान और उसके बड़े भाई का पालन पोषण उनकी दादी आमना ने किया है। लेकिन इस हादसे के बाद से उन्हें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। हालांकि दिल्ली सरकार द्वारा फैज़ान के परिवार को दो लाख रुपये का मुआवज़ा दिया गया है, लेकिन यह रक़म फैज़ान को मिले दर्द पर मरहम रखने में नाकाफी है।
फैज़ान की दादी आमना बतातीं हैं कि, उनके पास परिवार चलाने के लिये फैज़ान भी सहारा था, वह मेरे साथ घर पर ही जींस के धागे काटता था। फैज़ान का 19 वर्षीय बड़ा भाई मेहनत मजदूरी करता है, जिसकी बदौलत अब घर का खर्चा चल रहा है। आमना के मुताबिक़ कुछ समाजिक संस्थाओं द्वारा उन्हें आर्थिक मदद जरूर दी गई है, लेकिन फैज़ान का इलाज, ऊपर से उसके पैर की हालत को लेकर उनके माथे पर चिंता की लकीरें साफ नज़र आतीं हैं। फैज़ान के परिवार को मुआवज़ा दिलाने के लिये क़ानूनी लड़ाई लड़ने वाले सोशल एक्टिविस्ट यश कुंभट बताते हैं कि हमारी संस्था ने फैज़ान को मुआवज़ा दिलाने के लिये मुकदमा लड़ा था, उन्हें दो लाख रुपये मुआवज़ा मिल चुका है, लेकिन फैज़ान के परिवार की हालत को देखते हुए यह रक़म काफी नहीं है। यश बताते हैं कि फैज़ान के परिवार की ओर से अपराधिक मामला दर्ज नहीं किया गया था, हमारी प्राथमिकता पीड़ित परिवार को मुआवज़ा दिलाने की थी, जिसे हम पूरा कर चुके हैं।
कर्दमपुरी का एक और फैज़ान
कर्दमपुरी में ही एक और फैज़ान का मकान है। इस मकान में फैज़ान की बूढ़ी मां रहती है। फैज़ान की मां का नाम किस्मतून है, किस्मतून का अर्थ होता है भाग्यशाली, लेकिन किस्मतून की किस्मत अपने नाम के बिल्कुल विपरीत है। जवान बेटे की मौत ने किस्मतून के ऊपर ग़मों का पहाड़ तोड़ा है। 23 वर्षीय फैज़ान बीते वर्ष हुए दंगे में पुलिस की हिंसा का शिकार हुआ था। फैज़ान की मौत का आरोप दिल्ली पुलिस पर है। फैज़ान समेत कई युवाओं को दिल्ली पुलिस की एक टीम ने बेरहमी से पीटा था, जब वे दर्द से कराह रहे थे तो उनके पास खड़े पुलिसकर्मी उन्हें ‘आज़ादी’ के नाम पर तानाकशी कर रहे थे। इस घटना वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था, जिसमें पुलिसकर्मी दर्द से कराह रहे घायल युवाओं से राष्ट्रगान भी गवाते हुए नज़र आ रहे थे। फैज़ान की अभागी मां बताती हैं कि उस रोज़ वह दोपहर का खाना खाना के लिये घर आया था, वह खाना खाकर आराम कर रहा था, इसी दौरान मौहल्ले में लोगों के चिल्लाने की आवाज़ें आईं, तो फैज़ान उन्हें देखने के लिये घर से बाहर गया। वे बताती हैं कि उनकी आंखों के सामने वह वीडियो आज भी है, जब पुलिसकर्मी फैज़ान से कह रहे थे कि इसका तो काम हो गया। किस्मतून का आरोप है कि मेरे बच्चे की पुलिस ने बेरहमी से हत्या की है, अगर दोषी पुलिसकर्मियों को यहां इंसाफ नहीं मिलता है, तो ऊपर वाले की अदालत में मुझे इंसाफ जरूर मिलेगा।
कर्दमपुरी की एक छोटे से मकान में रहने वाली फैज़ान की बूढ़ी मां अपने साथ अक्सर अपने बेटे की तस्वीर रखतीं हैं। वे अक्सर घर की दहलीज़ पर बैठकर अपने बेटे के लौट आने का इंतज़ार करतीं हैं। हालांकि उन्हें मालूम है कि उनका बेटा अब इस दुनिया में नहीं हैं, इसीलिये ग़मज़दा होकर वे कहती हैं कि काश! फैज़ान की जगह मुझे ही मौत आ गई होती।
मेरी आंखें चली गईं, लेकिन सरकार के पास तो हैं
हिंसाग्रस्त परिवारों की दर्दभरी दास्तान इंसान के हैवान बनने का जीता जागता उदाहरण हैं। हिंसाग्रस्त शिव विहार में वकील का परिवार रहता है। यह परिवार इसी महीने की 14 तारीख़ को जमीयत उलमा-ए-हिंद द्वारा पुनिर्माण कराए गए अपने मकान में वापस आकर बसा है। दंगे में इस परिवार के मुखिया ने जो भुगता है वह इंसानियत का सर शर्म से झुका देता है। बीते वर्ष हुए दंगे में मोहम्मद वकील की आंखों की रोशनी चली गई। लेकिन उनका सवाल मानवीय संवेदनाओं को झकझोर देने के साथ-साथ सरकार की ज़िम्मेदारी को भी आईना दिखाता है। दंगे में अपनी दोनों आंख गंवा चुके मोहम्मद वकील कहते हैं कि मेरी आंखें नहीं हैं, लेकिन सरकार के पास तो आंखें हैं।
मोहम्मद वकील की ज़िंदगी में अंधेरा लेकर आई दंगे की उस रात को याद करते हुए वे बताते हैं कि 25 फरवरी की रात जब दंगा भड़का तो वह अपने पूरे परिवार समेत शिव विहार को छोड़कर जाने की तैयारी कर रहे थे। वकील बताते हैं कि कॉलोनी के हिंदुओं ने वादा किया था कि किसी भी बाहरी भीड़ को कॉलोनी में घुसने नहीं दिया जाएगा, लेकिन ऐन वक़्त पर सब अपनी-अपनी जान बचाने में लग गए। वकील बताते हैं कि कॉलोनी की लाईट कटी हुई थी, चारों ओर से मारो-मारो की आवाजें आ रही थीं। डरावनी आवाजें सुन कर वह घर की दूसरी मंजिल की बालकनी से झांकने लगे। इसी दौरान अंधेरे में उनके सिर पर कुछ आ कर लगा। उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि किसी ने उन्हें ईंट मारी है। इसके बाद वह सिर पकड़ कर बैठ गए। उनकी आंखों के आगे अंधेरा छा गया था। सिर से खून निकलने लगा तो उनकी बेटी ने सिर पर अपना दुपट्टा बांध दिया। इसके बाद जब लोगों के मकान जलने लगे तो मोहम्मद वकील ने पूरे परिवार के साथ रात के वक्त पास की मस्जिद की छत पर आकर पनाह ली। यहां किसी को यह पता ना चले कि कोई परिवार रुका है, इसकी वजह से उन्होंने डर के वजह से नल चला कर अपनी आंखें तक नहीं धोईं।
वकील बताते हैं कि सुबह क़रीब चार बजे के जब उन्हें पता चला कि मस्जिद में जान नहीं बचेगी तो वे यहां से अपने परिवार के साथ मस्जिद से निकल कर चमन पार्क पहुंचे। वहां, उन्होंने अपनी आखें धोईं, लेकिन उन्हें दिखाई कुछ नहीं दे रहा था। तेजाब से पूरा चेहरा जल चुका था। इसके बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। इस दंगे में वकील की आंखों की रौशनी हमेशा के लिये चली गई, दिल्ली सरकार ने उन्हें दो लाख रूपये का मुआवज़ा जरूर दिया है,और जमीयत उलमा-ए-हिंद ने उनके मकान फिर से बनवा भी दिया है, लेकिन इकलौते कमाने वाले मोहम्मद वकील का पूरा परिवार उनकी आंखों की रोशनी चले जाने के बाद तबाह हो गया। अब उनकी ज़िंदगी में अंधेरा है लेकिन यह चेहरा दंगाईयों को क्रूरता हैवानियत को बयां करने के लिये काफी है।