मौलाना वहीदुद्दीन खान को पदम विभूषण,मौलाना कल्बे सादिक़ को भूषण अवार्ड

स्टाफ़ रिपोर्टर।Twocircles.net

केंद्र सरकार ने गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर 2021 के पद्म अवार्ड का एलान कर दिया है। सरकार की तरफ से जारी की गई सूची के अनुसार सात लोगों को पद्म विभूषण देने की घोषणा की गई है। जिनमें  एक नाम मौलाना वहीदुद्दीन खान का भी हैं। मौलाना वहीदुद्दीन खान को आध्यात्म  के क्षेत्र में यह सम्मान मिला है। उन्हें दुनिया के 500 सबसे ज्यादा प्रभावी मुस्लिमों की सूची में भी शामिल किया जा चुका है। इसके अलावा पदम पुरस्कारो की घोषणा में  दूसरा बड़ा नाम मौलाना कल्बे सादिक़ का है,उनका पिछले महीने ही इंतेक़ाल हुआ है। इन्हें  पदम भूषण अवार्ड(मरणोपरांत) दिया जाएगा । इससे पहले मौलाना वहीदुद्दीन खान को साल 2000 में पदम भूषण मिल चुका है। यह पुरस्कार भारत के शीर्ष स्तर के पुरस्कार है। 


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मौलाना वहीदुद्दीन खान । पदम विभूषण 

विख्यात इस्लामिक विद्वान और शांति कार्यकर्ता  दिल्ली में रहने वाले मौलाना वहीदुद्दीन खान का जन्म एक जनवरी 1925 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के बधारिया गांव में हुआ था। वे प्रसिद्ध इस्लामिक विद्वान और शांतिवादी कार्यकर्ता हैं। इस्लामिक स्कॉलर के रूप में मौलाना वहीदुद्दीन खान की पूरी दुनिया में अपनी अलग पहचान बनाई है। मौलाना की प्रारंभिक शिक्षा मदरसे में हुई थी। अपने प्रारंभिक वर्षों से, उन्हें आधुनिक ज्ञान में रूचि थी।। शुरू से ही वह इस्लामी शिक्षा और आधुनिक विषयों दोनों में लीन रहें। उनके व्यापक शोध ने उन्हें यह निष्कर्ष निकालने के लिए प्रेरित किया कि वैज्ञानिक युग के बाद की शैली और भाषा में इस्लामी शिक्षाओं को प्रस्तुत करना समय की आवश्यकता है।

कम उम्र में अपने पिता फ़रीदुद्दीन खान को खोने के बाद, उनकी माता ज़ायबुन्निसा खातून और उनके चाचा सूफ़ी अब्दुल हमीद खान ने उनकी शिक्षा का प्रबंध किया। मौलाना वाहिदुद्दीन खान कहते हैं कि ‘कम उम्र में अनाथ होने से उन्होंने सीखा है कि, जीवन में सफल होने के लिए, आपको ऐसी परिस्थितियों को चुनौती के रूप में लेना होगा और समस्या के रूप में नहीं’। उनका परिवार भारत के स्वतंत्रता संग्राम में शुरू से ही शामिल रहा था, एक बहुत ही कम उम्र में वे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान एक गांधीवादी मूल्यों के साथ एक कट्टर राष्ट्रवादी बन गए, और वह आज तक भी ऐसा ही है। उनके भाई और उनके परिवार के अन्य सदस्यों को पश्चिमी शैली के स्कूलों में भेजा गया था, वहीं वाहिदुद्दीन को आजमगढ़ में एक इस्लामी मदरसा में दाखिला दिया गया था। धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए 1938 में आजमगढ़ शहर आ गए। यहां उन्होंने छह साल बिताए  और 1944 में स्नातक किया। बचपन से ही वह प्रकृति में रहना पसंद करते थे।  मदरसा के दिनों में उन्होंने सीखा कि कुरान मनुष्य को प्रकृति का पालन करना सिखाता हैं। बचपन से ही ईश्वर की रचना के सिद्धांत को उन्होंने अपने जीवन में उतारा। उन्होंने बाद में आधुनिक, अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा प्राप्त की ।वे शोध कार्य में लिप्त रहने लगे। अपनी खोज और शोध के परिणामस्वरूप, वह शास्त्रीय इस्लामी शिक्षा और आधुनिक विज्ञान दोनों में माहिर हो गए। उन्होंने तब आधुनिक शैली और भाषा में इस्लामी शिक्षाओं को प्रस्तुत करने की आवश्यकता महसूस की। वहीदुद्दीन ख़ान की प्राथमिक कोशिश इस्लाम को आधुनिक युग के लिए पूरी तरह से आधुनिक विचारधारा के रूप में पेश करना रहा।

शोध कार्य के बाद 1955 में  उन्होंने अपनी पहली पुस्तक, ‘ऑन द थ्रेशोल्ड ऑफ़ ए न्यू एरा ’प्रकाशित की। यह पुस्तक, उनके संपूर्ण अध्ययन का परिणाम है, जिसे उनके अगले कार्य  इस्लाम एंड मॉडर्न चैलेंज ’में विस्तार से बताया गया है, जिसे बाद में  गॉड अराइज’ के रूप में प्रकाशित किया गया था। उन्होंने 200 से अधिक पुस्तकें लिखी हैं। मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान बर्रे सगीर के मशहूर आलिमे दीन हैं। मौलाना की पहचान शांति के लिए काम करने वाली बड़ी हस्तियों में भी की जाती है। उन्होंने कुरान को आसान अंग्रेजी में ट्रांस्लेट किया और कुरान पर एक टिप्पणी भी लिखी। इसके अलावा वहीदुद्दीन ख़ान ने कई टेलीविजन चैनलों पर व्याख्यान देते रहते हैं। ईटीवी उर्दू, ज़ी सलाम, ब्रिज टीवी, आईटीवी, एआरआई डिजिटल, क्यू टीवी, आज टीवी आदि पर व्याख्यान देते रहते हैं। मौलाना वहीदुद्दीन के प्रवचन और आलेख इस बात पर खास जोर देते हैं कि समाज को जोड़ा जाए। इसीलिए वे सर्वसमाज में अत्यंत आदरणीय हैं। उन्होंने तज़क्किरुल कुरान के रूप में एक टिप्पणी के साथ कुरान का उर्दू में अनुवाद किया हैं।

सन् 1992 में बाबरी विध्वंस के समय मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान ने देश में शांति और अमन बनाए रखने के लिए शांति यात्रा भी की थी जिसमें उनके साथ आचार्य मुनि सुशील कुमार और स्वामी चिदानंद भी रहें। यह शांति यात्रा महाराष्ट्र में मुंबई से नागपुर तक थी। इस यात्रा के बाद से मौलाना को शांति का दूत की उपाधि दी गई थी।

विश्व भर में मानव जाति को आध्यात्मिक ज्ञान फैलाने के लिए मौलाना वहीदुद्दीन खान ने जनवरी 2001 में शांति और आध्यात्मिकता केंद्र की स्थापना की। संगठन का उद्देश्य मन के माध्यम से शांति की संस्कृति को बढ़ावा देना और सुदृढ़ करना है। मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान आध्यात्मिक ज्ञान से प्रेरित होकर, केंद्र की गतिविधियाँ शांति प्रयासों और अंतर-विश्वास प्रयासों से लोगों को शांति के महत्व को समझने में मदद मिलती है। इसके जरिए  मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान लोगों को कट्टरवादी सोच के बंधन से मुक्त कर उसे मानवीय मूल्यों के करीब लाने की कोशिशों में जुटे रहे और इस्लाम मतावलंबियों को दर्शन का पाठ पढ़ाया।

मुसलमानों में मौलाना को बहुत मकबूलियत हासिल है। मौलाना वहीदुद्दीन को दुनिया के 500 सबसे ज्यादा प्रभावी मुस्लिमों की सूची में भी शामिल किया जा चुका है। डेमिग्रुस पीस इंटरनेशनल अवार्ड से सम्मानित किए जा चुके वहीदुद्दीन ‘इस्लाम में महिलाओं के अधिकार’, ‘कांसेप्ट ऑफ जिहाद’, ‘विमान अपहरण-एक अपराध’ जैसे अपने लेखों के लिए बेहद चर्चित रहे हैं। मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान के बेटे जफरूल इस्लाम ख़ान दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष हैं, साथ ही उनकी पहचान एक जाने माने लेखक और पत्रकार के तौर पर भी हैं।

अहिंसा के समर्थक गांधीवादी मौलाना वहीदुद्दीन को साल 2000 में पद्म भूषण से भी नवाज़ा जा चुका है। इसके 2009 में मदर टेरेसा और राजीव गांधी राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार,  2015 में अबूज़हबी में सैयदियाना इमाम अल हसन इब्न अली शांति अवार्ड से उन्हें सम्मानित किया जा चुका है। उन्हें सोवियत संघ के दौर में राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव ने डेमिर्गुस पीस इंटरनेशनल अवॉर्ड से सम्मानित किया था।अब उन्हें केंद्र सरकार द्वारा 2021 का पद्म विभूषण देने की भी घोषणा करी गई है।

मौलाना कल्बे सादिक़ । पदम भूषण 

ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड के उपाध्यक्ष रहे  मुसलमानों के समाज सुधारक, लखनऊ में शैक्षिक क्रांति लाने वाले मौलाना कल्बे सादिक़ को उनके इंतेक़ाल के बाद पदम भूषण से नवाजा गया है। पिछले महीने उनका लखनऊ में देहांत हो गया था । मौलाना कल्बे सादिक़ का कद बहुत ऊंचा था और उन्हें उनके मानवीय प्रयासों के लिए जाने जाते हैं। उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि उनके देहांत के बाद उनकी दो नमाज़े-जनाज़ा हुई थी जिसे एक बार शिया और दूसरी बार सुन्नी मुसलमानों ने अदा किया। इस दिन बाज़ार पूरी तरह बंद हो गए थे। लाखों लोगों में दुःख की लहर दौड़ गई थी। हजारों लोग सड़कों के किनारे खड़े हो गए। शिया -सुन्नी कंधे से कंधे मिलाकर मौलाना को आखिरी कंधा देने के लिए डेढ़ किमो तक खड़े रहे। इस दीवानगी की सबसे बड़ी वज़ह यह थी कि मौलाना कल्बे सादिक़ ऐसे शिया मौलाना थे जो सुन्नियों के दिलों में बसते थे। वो सुन्नियों में सुन्नी थे और शियाओं में शिया।

लखनऊ के उर्दू साहित्यकार सुहैल वहीद ने उनको प्रदान किए गए पदम भूषण का स्वागत किया है और वो कहते हैं कि “वो मुसलमानों के वास्तविक समाज सुधारक थे। उनके यहां कभी किसी के साथ कोई भेदभाव नही हुआ। उन्होंने शिया और सुन्नियों के बीच दूरियां मिटाने का काम किया। वो पहले शिया मौलाना थे जिन्होंने ऐलानिया सुन्नी मुसलमानों के साथ नमाज़ पढ़ी,सुन्नी इमाम के पीछे भी नमाज़ पढ़ी और सुन्नी मुसलमानों की इमामत भी की। उनके इंतेक़ाल के बाद शिया और सुन्नी मुसलमानों ने एक साथ कंधे से कंधे मिलाकर उनकी नमाज़ जनाज़ा पढ़ी। सुन्नियों से अलग भी इनके लिए नमाज़ अदा की। भारत मे एक भी मौलाना  ऐसा नही बताया जा सकता जिनके लिए शिया और सुन्नी मुसलमानों का इतना प्यार एक साथ मिला हो, सिर्फ इनसे पहले इनके भाई मौलाना कल्बे आबिद की नमाज़ ए जनाजा में शिया और सुन्नी दोनों फिरकों के मौलानाओं ने शिरकत की थी ” !

83 साल के मौलाना कल्बे सादिक़ निमोनिया से जूझ रहे थे। वो कैंसर से भी पीड़ित थे। उनके क़रीबी बताते हैं कि शिया सुन्नी एकता के लिए उन्हें सिस्तानी साहब (अयातुल्लाह सिस्तानी) ने कहा था। वो एक बार इराक गए थे और तबसे भारत मे शिया- सुन्नी मोहब्बत मजबूत करने के लिए उन्होंने तहरीक चलाई। मौलाना कल्बे सादिक़ ने शिया और सुन्नियों के बीच ‘शोल्डर बाय शोल्डर तहरीक चलाई। वो अक्सर सुन्नी मुसलमानों के साथ रोजा इफ़्तार करते थे। उनकी हर तक़लीफ़ में साझा करते थे। मौलाना कल्बे सादिक़ के प्रयासों की पाकीज़गी का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि लखनऊ के टीले वाली मस्जिद के इमाम मौलाना फजरूलरहमान के इंतेक़ाल के बाद 50 हजार से ज्यादा सुन्नी मुसलमानों ने उनकी क़यादत में नमाज अदा की थी।

मौलाना कल्बे सादिक़ बताते थे कि लोग अक्सर उनसे उनके शिया और सुन्नी होने की बात पूछते थे इस पर वो अकबर इलाहाबादी का एक शेर सुना देते थे ” अकबर का क़ैस – ओ- मसलक क्या पूछती हो मुन्नी  शिया के लिए शिया और सुन्नी के लिए सुन्नी। जानसठ के सादात – बाराह के सय्यद दानिश अली खान कहते हैं कि मौलाना कल्बे सादिक़ साहब ने शिया और सुन्नी मुसलमानों के बीच डायलॉग पैदा किया। वो सिस्तानी साहब के संदेश को लेकर आए थे। मौलाना कल्बे सादिक़ ने 2015 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में आयोजित कार्यक्रम में इस बारे में बताया था उन्होंने कहा था कि इराक़ में मेरे दौरे के दौरान सिस्तानी साहब ने मुझे अपने घर बुलाया था और मुझसे कहा था कि हिंदुस्तान में जाकर सब शियाओं से कह दो कि सुन्नी सिर्फ उनके भाई ही नही है बल्कि रूह और जान है। इसके बाद मौलाना कल्बे सादिक़ ने अपनी जिंदगी शिया सुन्नी एकता के लिए समर्पित कर दी।

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