जिब्रानउद्दीन। Twocircles.net
उत्तर बिहार में पिछले एक महीने से बाढ़ की भयावह स्थिति बनी हुई है। जिसके प्रभाव में आकर लाखों लोगों का जीवन दिन प्रतिदिन दयनीय होता जा रहा है। डूबते घरों को छोड़ लोग ऊंची जगहों और सड़कों पर रहने के लिए मजबूर हो चुके हैं। सरकार से उनके लिए जो मदद निकलती भी है, वो भ्रष्ट प्रणाली के बदौलत उन तक पहुंच ही नहीं पाती। बागमती नदी के समीप बसे दरभंगा शहर का हाल भी दूसरे पीड़ित शहरों जैसा ही है। जीवन व्यापन की बुनियादी जरूरतों के लिए भी यहां लोग तरस जा रहे हैं। न तो खाने का ठिकाना है और न ही रहने का।
बिहार राज्य भारत का सबसे अधिक बाढ़ प्रवण राज्य है। उत्तर बिहार में लगभग 76 प्रतिशत आबादी प्रत्येक वर्ष बाढ़ के चपेट में आ जाती है। भारत में बाढ़ से होने वाले प्रभावित लोगों की जनसंख्या का 22.2 प्रतिशत भाग अकेले बिहार में रहता है। बिहार के भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 73.06%, यानी 94,160 वर्ग किलोमीटर में से 68,800 वर्ग किलोमीटर बाढ़ प्रभावित है। 1979 में सरकार द्वारा आंकड़े प्रकाशित करने शुरू किए गए थें, जिसके आधार पर 2019 तक बिहार में 9,500 लोगों की जानें जा चुकी हैं। और न जाने कितने करोड़ों की संपत्तियां बह चुकी हैं।
TwoCircles.Net की टीम दरभंगा के बाढ़ग्रस्त इलाकों का हाल जानने पहुंची तो हमें बहुत से अजीब नज़ारे देखने को मिले। कहीं 100 बच्चों की क्षमता वाले जर्जर सरकारी स्कूल में 500 से ज्यादा बेबस लोग एक साथ रहते हुए दिखें तो कहीं सड़कों पर सैकड़ों लोग कटे-फटे तंबुओं में सर छिपाते दिख गए। 74 वर्षीय रामचंद्र पासवान का परिवार भी किसी स्कूल में रह रहा है। हालांकि खुद रामचंद्र 2 वक्त की रोटी जुटाने के लिए उनसे दूर वार्ड नंबर 9 के अंतर्गत आने वाले एक बांध पर छोटा सा तंबू बनाकर रहते हैं। उन्होंने बताया कि वो अपने जीवन में कई बाढ़ देख चुके हैं लेकिन “आजतक कोई बदलाव नहीं हुआ, पहले भी गरीब मरता था और आज भी मर रहा है।” रामचंद्र ने जानकारी दी के बाढ़ के पानी का जलस्तर अभी बढ़ता ही जा रहा है और शायद हालात ज़्यादा बिगड़ने वाले हैं।
वार्ड नंबर 9 का ये बांध इलाके में सैकड़ों लोगों के लिए जीवन रेखा साबित हो रहा है। आसपास के गांवो से ऊंचा होने के कारण ये सैलाब के पानी से बचा हुआ है। जिन परिवारों को स्कूलों या राहत शिविरों में जगह न मिल पाती है वो इसी तरह के बांध या ऊंचाई पर अस्थाई तंबू लगाकर रह रहे हैं। “गरीब लोग हैं तो क्या मरने दीजिएगा?” पारो देवी, एक 65 वर्षीय बूढ़ी औरत जिसका घर बुरी तरह डूब चुका है, ने रोते हुए दुखड़ा सुनाया, “कुछ सालों पहले सरकार ने हमें घर आवंटित किया था। और अबतक 3 सालों में 15 हजार रूपए घुस दे चुके हैं, लेकिन न तो हमारे हाथ घर ही आया और न ही कोई मदद मिली।” अपने छोटे से पुराने और टूटे हुए घर की तरफ पारो इशारा करते हुए कहती हैं, “इसमें कहां से जिंदा रह पाएंगे हम? क्या सरकारें हमें पूरी तरह से भूल चुकी है?” पारो देवी के आंगन में बना इकलौता मिट्टी का चूल्हा पानी में समाया हुआ जान पड़ रहा था।
कुछ ऐसा ही हाल बरहौल चौराहे पर सड़क के किनारे रहने वाले किशुन यादव का भी है। जिन्होंने पिछले साल एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना में अपनी 11 माह की नवजात पुत्री और साथ ही अपना झोपड़ा गंवा दिया था। बीते साल जून में तेज आंधियों की वजह से उनके झोपड़े पर बिजली का तार गिरने के कारण भीषण आग लग गई थी। किशुन बताते हैं की उसी समय प्रशासन ने मदद का वादा किया था, लेकिन आज एक साल गुजर जाने के बावजूद मुआवजा तो दूर की बात है, रहने के लिए एक टूटी झोपड़ी तक नसीब नही हुई। “हम आपके पैर पकड़ते हैं, कृपया करके हमें झोपड़ा दिलवा दें” ये शब्द कहते हुए किशुन यादव हमारे कदमों की तरफ लपक पड़े। काफी मुश्किल से समझाने के बाद उन्होंने अपने आंसुओ को पोछा जो अलग ही बाढ़ की शक्ल में बदलते जा रहे थें। किशुन यादव ने जानकारी दिया के उन्हें सरकार की तरफ से मिलने वाला राशन तक प्राप्त नहीं हो पाता है। रास्ते पर चलने वाले मुसाफिर जो उन्हे दे देते हैं, उन्हे उसमे ही गुज़ारा करना पड़ता है।
जब मीडियाकर्मियों को बरहोल चौराहे पर बाढ़ का मुआयना करते श्रमण यादव और सुक्खल ठाकुर ने देखा तो उनसे रहा नही गया और उन्होंने हमें चौराहे के पार दक्षिण में चलने को कहा। दक्षिण में कोई सड़क नहीं थी। सब पानी में डूबकर बराबर हो चुका था। मजदूरी करके गुजारा करने वाले श्रमण यादव ने बताया “हमारे गांव को शहर से जोड़ने वाली ये इकलौती सड़क थी जो अभी पूरी तरह से गायब हो चुकी है। कम से कम 6 फुट के श्रमण हमें यकीन दिलाने की खातिर पानी में उतर गए। वहां श्रवण के सीने से ऊपर पानी बह रहा था। अभी वो कुछ कह पाते इससे पहले ही एक हवा के झोकें के साथ आई लहर ने उनका संतुलन बिगाड़ दिया। हालांकि उन्हें तैरने में महारत हासिल थी इसलिए वो थोड़ी सी मुशक्कत के बाद बाहर आ गए।
श्रवण ने जानकारी दी के “इस भयानक सड़क से रोजाना उनलोगों को गुजरना पड़ता है। निजी नाव वाले 40 रूपया सिर्फ आने और जाने में ले लेते हैं। अब हमारे पास इतना पैसा तो है नही।” पास खड़े सुक्खल ठाकुर ने बताया कि वो सारे गांव वाले कितने सालों से सिर्फ एक 20 फुट के पुल की मांग कर रहे हैं लेकिन कोई सुनवाई नहीं होती है। “पिछले साल हमने जिला प्रशासन के सामने विरोध प्रदर्शन भी किया था लेकिन डंडों से मारकर हमें भगा दिया गया। वहां खड़े कुछ और लोगों ने इस बात की पुष्टि की के पिछले ही साल एक व्यक्ति की इस सड़क को पार करते समय डूबकर मौत हो गई थी। सुक्खल ठाकुर और श्रवण यादव ने कहा कि न तो उन्हें रोजगार चाहिए और न ही कुछ और, बस ये पुल बन जाए।
हम सुक्खल और श्रवण के साथ दूसरे पार जाने के लिए नाव का इंतजार करने लगे इतने में काफी देर तक घूरते रहने के बाद एक बूढ़ी औरत हमारे पास आई और कहा, “बेटा तुम लोगों को सरकार ने भेजा है क्या?” हमने जब अपना परिचय दिया तो उन्हें थोड़ी निराश हुई, उन्होंने मिश्रित मैथिली और हिंदी भाषा में कहा, “इंहा दस साल से हम बाढ़ देखें छी, हर बार फोटो खींच के ले जा है उई लोग और कुछ नही किया है।” वो आगे बताती हैं, “दरभंगा डूब रेहल कोनो देखे वाला नही है, पयिसे वाले को देखता है गरीब आदमी मरतो रहेगा तो कोई देखने नही आता है।”
बूढ़ी औरत ने अपना नाम मीना देवी बताया। मीना के अनुसार जब चुनाव का समय आता है तो नेतागण वोट मांगने आया करते हैं और वादा करते हैं की उनकी मुश्किलें खत्म हो जाएंगी लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता है। मीना सीधा सरकार से बात करना चाहती थी इसलिए वो हमारे पास पूछती हुई आई थी के क्या हमें सरकार ने भेजा है। “सरकार तो और कहे छिए की हमरा वोट देबू तो राजा बन जाई, और गरीब के कोई नई देखे वाला है।” मीना के अनुसार उनका मिट्टी का घर बाढ़ में बह गया है, जब पानी कम होगा तो फिर से उन्हें फिर से एक झोपड़ा तैयार करना होगा फिलहाल वो भी बांध पर तंबू बनाकर रहती हैं।
जल संसाधन विभाग के अनुसार फिलहाल बागमती, कमला बालन, कोसी, गंडक, बूढ़ी गंडक और अधवारा समूह की नदियों के साथ-साथ स्थानीय नदियों का जल स्तर उफान पर है। जिसकी वजह से अभी कम से कम 11 जिले बाढ़ के खतरे का सामना कर रहे हैं। खुद बाढ़ प्रभावित पश्चिमी चंपारण जिले की रहने वाली उपमुख्यमंत्री रेणु देवी द्वारा संभावित बाढ़ प्रभावित लोगों को 6,000 रुपये की सहायता राशि हस्तांतरित करने को लेकर समीक्षा की है और जल्द ही ये राशि जरूरतमंदों को बांटी जाएगी। हालांकि कई ग्रामीणों के अनुसार पिछले साल सिर्फ 50% लोगों के खातों तक ही राशि पहुंच सकी थी और बाकी लोग आजतक इंतजार कर रहे हैं।
भौगोलिक दृष्टि से पड़ोसी नेपाल एक पर्वतीय क्षेत्र है। जब मध्य और पूर्वी नेपाल के पहाड़ों में भारी बारिश होती है तो पानी नारायणी, बागमती और कोशी नदियों के प्रमुख नालों में बहने लगती है। जैसे ही ये नदियाँ भारत में प्रवेश करती हैं, वे बिहार के मैदानों और तराई में फैल जाती है और किनारों को तोड़ देती हैं। इसके इलावा भारतीय इंजीनियरो द्वारा कोशी नदी बांध और कोशी बैराज पूल के तटबंधों की रक्षा के लिए नेपाल में बांध के द्वार भी खोल दिए जाते हैं जिससे बिहार में बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है।