By जावेद अनीस,
भारत एक धर्मान्ध देश है, यहाँ धार्मिक जीवन को बहुत गंभीरता से स्वीकार किया जाता है लेकिन भारतीय समाज की सबसे बड़ी खासियत विविधतापूर्ण एकता है. यह ज़मीन अलग-अलग सामाजिक समूहों, संस्कृतियों और सभ्यताओं की संगम-स्थली रही है और यही इस देश की ताकत भी रही है. आज़ादी और बंटवारे के ज़ख्म के बाद इन विविधताओं को साधने के लिए सेकुलरिज्म को एक ऐसे जीवन शैली के रूप में स्वीकार किया गया जहाँ विभिन्न पंथों के लोग समानता, स्वतंत्रता, सहिष्णुता और सहअस्तित्व जैसे मूल्यों के आधार पर एक साथ रह सकें.
हमारे संविधान के अनुसार राष्ट्र का कोई धर्म नहीं है, हम राज्य को कुछ हद तक धर्मनिरपेक्ष बनाने में कामयाब तो हो गये थे लेकिन एक ऐसा पंथनिरपेक्ष समाज बनाने में असफल साबित हुए हैं जहाँ निजी स्तर पर भले ही कोई किसी भी मजहब को मानता हो लेकिन सावर्जनिक जीवन में सभी एक समान नागरिक हों. समाज में असहिष्णुता दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है, मजहब और उससे जुड़े मसलों पर क्रिटिकल होकर बात करना मुश्किल होता जा रहा है. चिंता की बात है इधर हमारे राष्ट्र का चरित्र भी बहुसंख्यकवादी होता जा रहा है. कला, साहित्य, खान-पान पर पाबंदियां थोपी जा रही हैं.
पिछले वर्षों में धर्म जैसे संवेदनशील विषय पर ‘ओह माय गॉड’ और ‘पीके’ जैसी फिल्में आई हैं और कामयाब भी रही हैं. हालिया फ़िल्म ‘धर्म संकट में’ भी उसी मिजाज़ की फिल्म है, हालांकि इन दोनों फिल्मों की तरह यह फिल्म उतनी प्रभावशाली नहीं बन पड़ी है लेकिन फिल्म का विषय बहुत ही संवेदनशील विषय पर आधारित है. यही वजह है कि रिलीज होने से पहले ही इसे विवादों का सामना करना पड़ा था. पहले तो इस फिल्म के एक पोस्टर को लेकर विवाद हुआ था और विवाद के बाद इस पोस्टर को बदल दिया गया.
इसके बाद खबरें आयीं कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सेंसर बोर्ड) द्वारा फिल्म के सर्टिफिकेशन के लिए होने वाली स्क्रीनिंग के दौरान हिंदू व मुस्लिम धर्मगुरुओं को बाक़ायदा आमंत्रित किया गया और उनकी सलाह के आधार पर फिल्म में कांट छांट भी की गई. उल्लेखनीय है सेंसर बोर्ड द्वारा किसी फिल्म को मंजूरी देने से पहले धर्मगुरुओं की सलाह लेने का अपनी तरह का यह पहला मामला है. यह घटना बताती है कि कैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बंदिशें गहरी होती जा रही हैं, देश की संवैधानिक संस्थाएं कानून से ज़्यादा लोगों की भावनाओं को तरजीह देने लगी हैं.
फिल्म ‘धर्म संकट में’ 2010 में आयी ब्रिटिश कामेडी फिल्म ‘द इन्फिडेल’ का ऑफिशियल हिन्दी वर्जन है. ‘द इन्फिडेल’ एक ब्रिटिश मुस्लिम महमूद नासिर की कहानी थी जिसे बाद में पता चलता है कि दरअसल वह एक यहूदी परिवार में पैदा हुआ था. उसे दो सप्ताह के उम्र में एक मुस्लिम दम्पति द्वारा गोद ले लिया गया था. दिलचस्प तथ्य यह है कि इस फिल्म को ईरान सहित कई मुस्लिम देशों में रिलीज किया गया था लेकिन इजरायल में इसे नहीं दिखाया गया.
फिल्म ‘धर्म संकट में’ का बैकग्राउंड अहमदाबाद शहर है, जहाँ बारह साल पहले मजहब के नाम पर भयंकर मार-काट हुयी थी. कहानी कैटरिंग का धंधा करने वाले धर्मपाल त्रिवेदी (परेश रावल) के इर्द-गिर्द घूमती है, जो अपनी पत्नी और एक बेटे व बेटी के साथ रह रहा है. वह ज़्यादा धार्मिक नहीं है और धार्मिक कर्मकांडों अंधविश्वास का विरोध करता रहता है लेकिन आम मध्यवर्ग की तरह मुसलमानों के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह से ग्रस्त रहता है. अपनी मां की मौत के बाद उसे पता चलता है कि असल में वह एक मुस्लिम मां-बाप का बेटा है जिसे एक हिन्दू परिवार द्वारा गोद लिया गया है. उसका असल पिता अभी भी ज़िंदा है और सेनेटोरियम में है. पूरी फिल्म इस बात के इर्द-गिर्द घूमती है कि कैसे एक बेटे को उसके पिता से मिलने के बीच मज़हब दीवार बनकर खड़ी हो जाती है. उसपर अपने बेटे की शादी उसकी पसंद की लड़की से करवाने के लिए एक पाखंडी धर्मगुरु नीलानंद बाबा (नसीरुद्दीन शाह) का दबाव रहता है. पूरी फिल्म में धर्मपाल इसी धर्मसंकट में फंस खुद को कभी एक तो कभी दूसरे पाले में साबित करने की कोशिश में लगा रहता है.
अपने पहले घंटे में फिल्म बांधती है. इसके बाद फिल्म अपने ट्रैक से भटक जाती है. कई मुद्दों को एक साथ समेटने की हड़बड़ी साफ़ दिखती है. जैसे फिल्म में धार्मिक आधार पर अलग बसाहटों, दो समुदायों के बीच परस्पर अविश्वास, धार्मिक अलगाव के मसले को छूकर निकल जाती है और अंत में उपदेशात्मक क्लाईमेक्स बहुत निराश करती है.
इन सब के बावजूद कुछ ऐसी बातें है जो फिल्म को ख़ास बनाती हैं. मसलन धर्मपाल त्रिवेदी जब अपने मुस्लिम पड़ोसी (अन्नू कपूर) से इस्लाम के बारे में सीखता है तो फिल्म के नॉन-मुस्लिम दर्शक भी ऐसी बातें सीखते हैं जिससे इस्लाम के बारे में उनकी गलतफहमियां कुछ हद तक दूर हो सकती है. जिस तरह से इस बहुधर्मी देश में लोगों को एक दूसरे के धर्मों और संस्कृतियों के बारे में जानकारियाँ सीमित होती जा रही हैं, उससे यह जरूरी हो जाता है कि इस नुस्खे को आजमाया जाए कि कैसे मनोरंजक तरीके से दर्शकों को दूसरों के बारे में जानकारियां बढें और गलतफहमियाँ दूर हों.
विचार के स्तर पर फिल्मस ‘धर्म संकट में’ अच्छी है. यह मुस्लिम समाज में बैठी असुरक्षा की भावना तथा हिन्दू समाज के इस्लामोफोबिया और उससे उपजे अविश्वास को सामने लाती है. सिनेमा की अपनी भाषा होती है. एक मुश्किल विषय को पूरी तरह से सिनेमा की भाषा में रूपांतरित न कर पाना इस फिल्म की सीमा है, लेकिन यह कहना भी गलत नहीं होगा कि हमें इस तरह की मुख्यधारा की फिल्मों की ज़रूरत है और इन्हें प्रोत्साहित किया जाना चाहिए जिससे इनकी आवाज़ें ज़्यादा कानों तक पहुंच सकें.
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(लेखक भोपाल में रहते हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.)