TwoCircles.net Staff Reporter
पटना : पटना यूनिवर्सिटी स्थापना दिवस के शताब्दी वर्ष पर आज यूनिवर्सिटी के छात्रों द्वारा एक मानव श्रृंखला का आयोजन किया गया.
इस मानव शृंखला के आयोजन का मक़सद इस यूनिवर्सिटी की स्थापना में जिन महानुभावों का योगदान रहा, उनको याद किया जाना और उनके कार्यों से पटना-वासियों को अवगत कराना था.
यह मानव श्रृंखला यूनिवर्सिटी कैम्पस के बाहर आयोजित किया गया था. इस मौक़े से बड़ी तादाद में पर्चा बांटकर इसके इतिहास से लोगों को रूबरू कराया गया.
इस कार्यक्रम के आयोजकों में शामिल उमर अशरफ़ ने TwoCircles.net के साथ बातचीत में बताया कि, 1896 तक बिहार में मेडिकल, इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए कोई भी संस्थान नहीं था. कलकत्ता के मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज में बिहार के छात्रों को स्कॉलरशिप भी दी नहीं दी जाती थी. यही नहीं, सरकारी नौकरियों में भी बिहार के लोगों के साथ बहुत नाइंसाफ़ी की जाती थी. इसी से तंग आकर महेश नारायण, अनुग्रह नारायण सिंह, नंद किशोर लाल, राय बहादुर, कृष्ण सहाय, गुरु प्रसाद सेन, सच्चिदानंद सिन्हा, मुहम्मद फ़ख़्रुद्दीन, अली ईमाम, मज़हरुल हक़ और हसन ईमाम ‘बिहार’ को बंगाल से अलग कराने के काम में लग गए. जिसके बाद 22 मार्च 1912 को बिहार अपने वजूद में आया.
वो बताते हैं कि, आज के कार्यक्रम में नौजवान छात्रों का उत्साह देखने लायक था. ये इस बात की गवाही है कि वर्तमान को जीने वाला आज का नौजवान इतिहास को भी संजोकर रखना चाहता है और पीढ़ी दर पीढ़ी को इससे अवगत कराना चाहता है.
वहीं इंतेख़ाब आलम का कहना है कि, मौजूदा और इससे पहले की सरकार का जो रवय्या है, उसे देखकर तो ये अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि कभी वो इस यूनिवर्सिटी के संस्थापकों को सच्ची ऋद्धांजली देंगे.
उन्होंने आगे बताया कि, इस यूनिवर्सिटी का बिहार व भारत के राजनीत में एक अहम रोल रहा है और इससे कई जाने माने लोगों ने शिक्षा प्राप्त की है, जिनमें बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव, तत्कालीन उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी, तत्कालीन भारत सरकार के संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रवि शंकर प्रसाद, बिहार विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा इत्यादि. लेकिन इन सबने कभी भी इसके संस्थापकों को याद नहीं किया. इसके इतिहास को सहेजने की कोई कोशिश नहीं की.
बताते चलें कि बिहार और उड़ीसा के लिए युनिवर्सिटी की सबसे पहली मांग मौलाना मज़हरुल हक़ ने 1912 में की थी. उनका मानना था कि बिहार और उड़ीसा का अपना एक अलग युनिवर्सिटी होना चाहिए. उनके इस बात का समर्थन सच्चिदानंद सिन्हा ने भी किया.
‘पटना युनिवर्सिटी बिल’ को लेकर 1916 के 1917 के बीच लम्बी जद्दोजहद हुई. 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में ‘पटना युनिवर्सिटी बिल’ को लेकर बात हुई. इंपीरियल विधान परिषद में 5 सितम्बर 1917 को इस बिल को पेश किया गया. 12 सितम्बर 1917 को इस बिल पर चर्चा हुई और मौलाना मज़हरुल हक़ द्वारा दिए गए समर्थन के कारण 13 सितम्बर 1917 को इस बिल को पास कर दिया गया. 1 अक्तुबर 1917 को पटना युनिवर्सिटी की बुनियाद रख दी गई.
गौरतलब रहे कि राजेंद्र प्रासाद चाहते थे कि पटना में क्षेत्रिय युनिवर्सिटी बने, जहां स्थानीय भाषा में पढ़ाई हो. लेकिन सैय्यद सुल्तान अहमद पटना के इस युनिवर्सिटी को विश्वस्तरीय बनवाना चाहते थे. और बात सुल्तान अहमद की ही मानी गई. किसी ज़माने में इसे ‘बिहार का ऑक्सफोर्ड’ माना जाता रहा है.
इस यूनिवर्सिटी में भारतीय मूल के पहले वाईस चांसलर सैय्यद सुल्तान अहमद बने. वो 15 अक्तुबर 1923 से लेकर 11 नवम्बर 1930 तक इस पद पर बने रहें. उनके दौर में ही पटना यूनिवर्सिटी में पटना साइंस कॉलेज, पटना मेडिकल कॉलेज और बिहार इंजीनियरिंग कॉलेज वजूद में आया.
ख़्वाजा मुहम्मद नूर भारतीय मूल के दूसरे वाईस चांसलर थे, जो 23 अगस्त 1933 से 22 अगस्त 1936 तक इस पद पर बने रहें. वहीं सच्चिदानंद सिन्हा 23 अगस्त 1936 से 31 दिसम्बर 1944 तक इसके वाईस चांसलर रहे. उनके बाद सीपीएन सिंह 1 जनवरी 1945 को इस युनिवर्सिटी के वाईस चांसलर बने और भारत की आज़ादी के बाद 20 जुन 1949 तक इस पद पर बने रहे. सीपीएन सिंह ने ही यहां पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स की शुरुआत की.
इस बीच इस यूनिवर्सिटी में एक अहम रोल मुहम्मद फ़ख़्रुद्दीन ने भी निभाया. आप 1921 से 1933 तक बिहार के शिक्षा मंत्री रहते हुए इस यूनिवर्सिटी के कई बिलडिंग और हॉस्टल का निर्मान करवाया. चाहे वो बीएन कॉलेज की नई ईमारत हो या फिर उसका तीन मंज़िला हॉस्टल. साईंस कॉलेज की नई ईमारत हो या फिर उसका दो मंज़िला हॉस्टल. इक़बाल हॉस्टल भी आप ही की देन है. रानी घाट के पास मौजूद पोस्ट ग्रेजुएट हॉस्टल भी आप ही ने बनवाया. पटना ट्रेनिंग कॉलेज की ईमारत भी आप ही की देन है.