नासिरूद्दीन, TwoCircles.net के लिए
दिल्ली, 12 जनवरी 1948 —70 साल पुरानी बात है. चारों तरफ़ नफ़रत और हिंसा की बू है. गांधी जी रोज़ाना की तरह प्रार्थना-सभा में अपनी बात कह रहे हैं. बात की शुरुआत उपवास के ज़िक्र से होती है. लोग उपवास क्यों करते हैं. उपवास के बारे में अलग-अलग, क्या नज़रिया है.
और चंद मिनट बाद महात्मा कुछ ऐसा कहते हैं, ‘मेरे अंदर से आवाज़ तो कई दिनों से आ रही थी, मगर मैं अपने कान बंद कर रहा था. मुझे लगता था कि कहीं यह शैतान की यानी मेरी कमज़ोरी की आवाज़ तो नहीं है. मैं कभी लाचारी महसूस करना पसंद नहीं करता. किसी सत्याग्रही को नहीं करना चाहिए. उपवास तो उसका आख़िरी हथियार है जो उसकी या दूसरों की तलवार की जगह लेता है. जो मुसलमान भाई मुझ से मिलते रहते हैं, उनके इस सवाल का कि ‘वे अब क्या करें’ मेरे पास कोई जवाब नहीं. कुछ समय से मेरी यह लाचारी मुझे खाए जा रही है. उपवास शुरू होते ही यह मिट जाएगी. मैं पिछले तीन दिन से इस बारे में विचार कर रहा हूं. आख़िरी निर्णय बिजली की तरह मेरे सामने चमका और मैं खुश हूं. कोई भी इंसान जो पवित्र है, अपनी जान से ज़्यादा कुछ क़ुर्बान नहीं कर सकता. मैं आशा रखता हूं और प्रार्थना करता हूं कि मुझ में उपवास करने के लायक पवित्रता हो… उपवास कल सुबह पहले खाने के बाद शुरू होगा. उपवास का अरसा अनिश्चित है और जब मुझे यक़ीन हो जाएगा कि सब क़ौमों के दिल मिल गए हैं, और वह बाहर के दबाव के कारण नहीं, मगर अपना अपना धर्म समझने के कारण, तब मेरा उपवास छूटेगा.’
उस वक़्त तक उन्होंने किसी सहयोगी को यहां तक कि वल्लभ भाई पटेल और जवाहरलाल नेहरू को भी इस उपवास के बारे में जानकारी नहीं दी थी. हां, लगता है कि मनुबेन को इसका आभास कुछ दिनों से हो रहा था. ज़ाहिर है, इस ऐलान ने सबको चौंका दिया. ध्यान रहे, गांधी जी की उम्र उस वक़्त 78 साल से ज़्यादा थी.
करना है या मरना है
तो गांधी जी के इस 17वें उपवास का पसमंज़र क्या था? इसी प्रार्थना-सभा में वे बताते हैं —‘जब 9 सितम्बर को मैं कलकत्ते से दिल्ली आया था, तब मैं पश्चिमी पंजाब जा रहा था. मगर वहां जाना नसीब में नहीं था. ख़ूबसूरत रौनक से भरी दिल्ली उस दिन मुर्दों के शहर सी दिखती थी. जैसे ही मैं ट्रेन से उतरा, मैंने देखा कि हर एक के चेहरे पर उदासी थी. सरदार जो हमेशा हंसी-मज़ाक़ करके खुश रहते हैं, वे उस उदासी से बचे नहीं थे. मुझे उस समय इसका कारण मालूम नहीं था. वे स्टेशन पर मुझे लेने के लिए आए थे. उन्होंने सबसे पहली ख़बर मुझे यह दी कि यूनियन की राजधानी में झगड़ा फूट निकला है. मैं फौरन समझ गया कि मुझे दिल्ली में ही करना या मरना होगा. आज दिल्ली में ऊपर से शांति है, मगर दिल के भीतर तूफ़ान उमड़ रहा है. वह किसी भी समय फूट कर बाहर आ सकता है… मुझे बचाने के लिए पुलिस और मिलिट्री के द्वारा रखी हुई शांति ही पर्याप्त नहीं. मैं हिन्दू, सिख और मुसलमानों में दिली दोस्ती देखने के लिए तरस रहा हूं. कल तो ऐसी दोस्ती थी. आज उसका अस्तित्व नहीं…’
आज़ादी, बंटवारा और आपस में लड़ते-मरते
मुल्क को आज़ाद हुए चंद महीने ही हुए थे. आज़ादी, देश के बंटवारे के साथ मिली थी. इसके कुछ साल पहले से और उसके बाद, कई इलाक़ों में ज़बरदस्त साम्प्रदायिक हिंसा हो रही थी. जो सम्प्रदाय, जहां मज़बूत हालत में था और जिसकी संख्या जहां ज़्यादा थी, वह दूसरे को मार रहा था. भगा रहा था. लाखों लोग दर-बदर हो रहे थे. पनाह के लिए भागते फिर रहे थे. इन सबके बीच 1947 के सितम्बर में कलकत्ते की हिंसा से निपटने के बाद गांधी जी दिल्ली पहुंचते हैं. यहां जो देखते हैं तो फिर यहीं जुट जाते हैं. वे मान रह थे कि अगर दिल्ली में अमन नहीं हुआ तो कहीं और की हिंसा को रोकना और मुश्किल होगा. मगर चार महीने बाद भी उनकी कोशिशों का वह नतीजा सामने नहीं आ रहा था, जिसकी आस में वे थे. यह उपवास दिल्ली में चल रही इसी भयानक साम्प्रदायिक हिंसा के बीच शुरू होता है. यह ध्यान रखना ज़रूरी है.
मगर सवाल है, उपवास ही क्यों? और अभी ही क्यों? बक़ौल गांधी जी, ‘…ऐसा मौक़ा आता है जब अहिंसा का पुजारी समाज के किसी अन्याय के सामने विरोध प्रकट करने के लिए उपवास करने पर मजबूर हो जाता है. वह ऐसा तभी करता है जब अहिंसा के पुजारी की हैसियत से उसके सामने दूसरा कोई रास्ता खुला नहीं रह जाता. ऐसा मौक़ा मेरे लिए आ गया है.’
उपवास का अटल फ़ैसला
गांधी जी को बख़ूबी अंदाज़ा था कि उनके कई क़रीबी साथी, उनके ऐसे तरीक़ों से रज़ामंदी नहीं रखते हैं. बिना उनका नाम लिए वे कहते हैं, ‘…कई ऐसे मित्र हैं जो मनुष्य हृदय को सुधारने के लिए उपवास का तरीक़ा ठीक नहीं समझते. वे मुझे बर्दाश्त करेंगे और जो आज़ादी अपने लिए चाहते हैं, वह मुझे भी देंगे. मेरा एकमात्र सलाहकार ईश्वर है… मेरी प्रार्थना है कि मेरे साथ इस बारे में दलील न की जाए और जिस निर्णय को बदला नहीं जा सकता, उसमें मेरा साथ दिया जाए. अगर सारे हिन्दुस्तान पर या कम से कम दिल्ली पर कोई असर हुआ तो उपवास जल्दी भी छूट सकता है. मगर जल्दी छूटे, या कभी भी न छूटे, ऐसे नाज़ुक मौक़े पर किसी को कमज़ोरी नहीं दिखानी चाहिए.’
उपवास लोगों की आत्मा जाग्रत के लिए
गांधी जी लोगों से गुज़ारिश करते हैं, शांत चित्त से इस उपवास के प्रयोजन पर विचार करें और यदि मुझे मरना ही है तो मुझे शांति से मरने दें… और अगर इस फ़ाक़े से उठते मुद्दों पर लोगों ने तवज्जो नहीं दिया तो बापू अपनी मौत की इच्छा तक कर देते हैं. क्यों? क्योंकि, ‘हिन्दुस्तान का, हिंदू-धर्म, सिख धर्म और इस्लाम का बेबस बनकर नाश होते देखने की निस्बत मृत्यु मेरे लिए सुंदर रिहाई होगी.’
मगर इसके साथ ही चेतावनी भी दे डालते हैं. वह चेतावनी, जिसकी गूंज आज ज़्यादा शिद्दत से सुनी जा सकती है, ‘अगर पाकिस्तान में दुनिया के सब धर्मों के लोगों को समान हक़ न मिला, उनकी जान और माल सुरक्षित न रहे और यूनियन ने भी पाकिस्तान की नक़ल की तो दोनों का नाश निश्चित है…’
इसलिए वे ऐलान करते हैं, ‘मेरा उपवास लोगों की आत्मा को जाग्रत करने के लिए है.’ हमें ध्यान रहे, बापू किसी ख़ास धर्म के मानने वालों की नहीं ‘लोगों की आत्मा’ की बात कर रहे हैं. क्या हमारी आत्मा 70 साल बाद जाग्रत है? (जारी…)
(नासिरूद्दीन वरिष्ठ पत्रकार हैं. शोधपरक कामों के लिए जाने जाते हैं. कई कामों के बीच, वे झूठ, नफ़रत और हिंसा के ख़िलाफ़ गांधी के विचारों को आम बनाने की कोशिश में जुटे हैं. इसी के इर्द-गिर्द इन्होंने, गांधी जी के विचारों की एक बड़ी प्रदर्शनी भी तैयार की है.)