मशकूर उस्मानी, TwoCircles.net
डॉक्टर बी आर अंबेडकर ने संविधान सभा के समापन भाषण में कहा था, “मैं समझता हूँ कि कोई संविधान चाहें जितना अच्छा हो, वह बुरा साबित हो सकता है, यदि उसका अनुसरण करने वाले लोग बुरे हों। एक संविधान चाहें जितना बुरा हो, वह अच्छा साबित हो सकता है, यदि उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हों।”
हमें लगता है कि बाबा साहब के इन शब्दों को बार बार पढ़ने और समझने की ज़रूरत आज सबसे ज़्यादा है। लोकतंत्र क्या है? उसको किस तरह देखा जाना चाहिए?लोकतंत्र का बेहद आसान और सीधा सा मतलब है लोगों का शासन पर अगर इसी लोकतंत्र में लोक के विचारों की वैचारिक असहमतियों की हत्या लगातार की जा रही हो और केवल शासन शासन ही रह जाये तो क्या उसे लोकतंत्र समझा जाएगा?
पिछले दिनों भारत में सीएए, एनआरसी के विरुद्ध खड़े हुए एक बहुत बड़े और ऐतिहारिक आंदोलन की साक्षी पूरी दुनिया रही है जिसकी गर्मी अभी तक शांत नहीं हुई। नागरिकता क़ानून को लेकर छिड़ी इस बहस ने पूरी दुनिया के लोगों को समानता, लोकतंत्र, न्याय, समता में विश्वास रखने वाली भारत की आवाज़ों के प्रति आकर्षित किया।अगर हम भारत के संदर्भ में नागरिकता की बात करें तो भारतीय संविधान के आर्टिकल 5 से लेकर आर्टिकल 11 तक में नागरिकता को लेकर क़ानून बनाये गए हैं, आर्टिकल 5 से 10 नागरिकता की पात्रता को परिभाषित करते हैं और आर्टिकल 11 नागरिकता के मामलों में संसद को कानून बनाने का अधिकार प्रदान करता है।
इसी अधिकार का इस्तेमाल करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता में अपनी दूसरी पारी की शुरुआत करते ही नागरिकता संशोधन कानून को पारित किया, नया क़ानून पड़ोसी मुल्को पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश के लोगों को भारत की नागरिकता देने के लिए बनाया गया। पर इस क़ानून को विवादित बनाया गया। इसके दायरे से मुसलमानों को अलग रख कर, मतलब पड़ोसी देश के सभी धर्मों के लोग अगर चाहें तो भारत की नागरिकता प्राप्त कर सकते हैं अगर वो मुस्लिम न हों तो, साफ़ है कि इस तरह सीधे तौर पर यह क़ानून भारत के धर्मनिरपेक्ष ढांचे पर हमला है, यह समानता के अधिकार का खुला हनन है। सरकार ने इस क़ानून के साथ विवादित एनआरसी को भी लाने का ऐलान करके मुस्लिम समुदाय के मन मे न केवल दोयम दर्जे का नगरिक होने की भावना को बढ़ावा दिया बल्कि समुदाय विशेष के मन में अपने भविष्य को लेकर डर भी पैदा किया कि अगर एनआरसी से वो बाहर हो गए तो उनको देश से निकाल डिटेंशन सेंटर में डाल दिया जाएगा।
इसी “अगर” ने भारत मे सीएए के विरुद्ध इतने बड़े आंदोलन की भूमि तैयार की पर निश्चित तौर पर यह आंदोलन केवल समुदाय विशेष के ख़ौफ़ से नहीं उपजा बल्कि समानता, न्याय, बंधुत्व में विश्वास रखने वाले और संविधान में घोर आस्था रखने वालों की आवाज़ों ने इसे और मज़बूत किया। यह संविधान को बचाने की लड़ाई थी जहां नागरिकता संशोधन कानून के द्वारा समानता के अधिकार को छीन, संविधान को लहूलुहान किया जा रहा है।
इस आंदोलन में शाहीन बाग़, दिल्ली की औरतें विरोध की ताक़तवर आवाज़ बनीं। देखते ही देखते शाहीन बाग़ की ही तर्ज पर देश मे जगह-जगह शाहीन बाग़ बन गए जहां विरोध का, क्रांति का झंडा मुस्लिम महिलाओं ने अपने हाथ मेंं लिया। यह मुस्लिम महिलाओं द्वारा उठायी गयी वो आवाज़ थी जिसकी गूंज पूरी दुनिया मे सुनाई दी और मोदी सरकार के इस भेदभाव भरे क़ानूूून की वजह से पूरी दुनिया मे भारत की इमेज को बहुत बड़ा धक्का पहुंचा। साथ पड़ोसी मुल्कों की निंदा का निशाना भी भारत को बनना पड़ा।
यह ऐतिहासिक आंदोलन औरतों की वो सशक्त आवाज़ बन कर उभरा की पूरी दुनिया मे समानता और लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले लोगो ने अपना समर्थंन भारत के आन्दोलन कारियों को दिया। लेकीन यह दुर्भाग्य रहा कि कोरोना महामारी ने इस आंदोलन की उठती आवाज़ों को मजबूरन थाम दिया और पूरी दुनिया की तरह ही भारत ने भी इस आपदा से निबटने के लिए घरबन्दी का सहारा लिया। नतीजा 3 महीने तक तमाम पुलिसिया दमन, सरकारी दमन को झेलते आए ज़ोर शोर से चले सीएए आंदोलन की ज्वलंत आवाज़ ठंडी हो गयी।
याद रहे कि हमारी सरकार आपदा को अवसर में तब्दील रखने का हुनर रखती है। इसी हुनर को आज़माते हुए सरकार ने महामारी से निबटने के बजाए बेहद शर्मनाक तरीक़े से सीएए आंदोलन में सक्रिय रहे ऐक्टिविस्टों को एक एक करके गिरफ्तार करना शुरू कर दिया। विशेष रूप से मुस्लिम ऐक्टिविस्टों को, सरकार ने अमानवीयता की सारी हदें पार करते हुए दिल्ली जामिया की एमफिल स्टूडेंट सफूरा ज़रगार को भी आरोपी बना कर गिरफ्तार कर लिया। ज्ञात हो कि सफूरा 6 माह की गर्भवती हैं, इस क्रम में केवल सफूरा ही नहीं बल्कि सीएए आंदोलन में सक्रिय डॉक्टर कफ़ील, शरजील इमाम, ख़ालिद सैफ़ी, मीरान हैदर, आसिफ तन्हा, गुलफ्शां, एएमयूएसयू केबिनेट मेम्बर फ़रहान ज़ुबैरी, पूर्व एएमयू छात्र आमिर मिंटो आदि को भी तरह तरह के चार्ज लगा कर गिरफ्तार किया गया।
ये तमाम लोग भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि की रक्षा के लिए लड़ रहे थे। ये तमाम लोग संविधान के लिए लड़ रहे थे। लोकतंत्र के लिए लड़ रहे थे। एक स्वस्थ लोकतंत्र में होना तो यह चहिये था कि वैचारिक असहमतियांं रखने वाले और अन्याय के ख़िलाफ़ जमकर लड़ने वाले लोगों का सम्मान किया जाना चाहिए था। पर हुआ यह कि अपराधियों कि तरह सरकारी तंत्र ने इनका शिकार किया और विरोध की आवाज़ों को कुचल कर लोकतंत्र की हत्या की। होना तो यह चाहिए था कि आपदा के इस समय सरकार को महामारी से निबटने पर पूरा ध्यान देना चाहिए था और सीएए जैसे कानून को ख़ारिज करना चाहिए था या इसके तहत अल्पसंख्यकों का विश्वास जीत उनको न्याय देना चाहिए था। लेेेकिन हुआ इसका एकदम उल्टा।
इन तमाम परिस्थितियों में क्या हम सफूरा ज़रगार के आने वाले बच्चे का सामना कर पाएंगे? क्या हम सफूरा के बच्चे के साथ ही आने वाली पीढ़ी को यह समझा पाएंगे कि लोकतंत्र क्या होता है और उसका असल मतलब क्या होता है? क्या हमारी सरकार ने विरोध की आवाज़ों को क्रूरता के साथ कुचल, लोकतंत्र का भरपूर मज़ाक़ उड़ा कर हमे इस लायक छोड़ा भी है? हमारी आने वाली पीढ़ी को देने के लिए लोकतंत्र के स्वस्थ उदाहरण हम कहाँ से लाएंगे या हम उन्हें उन जेलों की सैर कराएंगे जहां इन तमाम ऐक्टिविस्टों को सड़ाया जा रहा है?
आज के समय में एक बार फिर बी आर अंबेडकर के शब्दों को याद कीजिए और इन सवालों के जवाब खोजिए इससे पहले कि बहुत देर हो जाए।
(डॉक्टर मशकूर अहमद उस्मानी एएमयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष और पोलिटिकल ऐक्टिविस्ट हैं । प्रस्तुत विचार लेखक के निजी विचार हैं। डॉक्टर मशकूर से [email protected], Twitter.com/MaskoorUsmani?s=