आसमोहम्मद कैफ। Twocircles.net
72 साल के जमील अहमद बीते हुए कल को याद करते हुए गहरी सांस लेते हैं और कुर्सी से टेक लगाकर आंखे बंद कर लेते हैं, तब उनका चेहरा एक गहरे सुकून की गवाही देता है। जमील फिर उठते हैं और कहते हैं “ख़्वाब पूरा हो गया मेरा ,मेरे दो बेटे है, बड़े बेटे ने घर चलाने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली और छोटे बेटे के लिए पढ़ाई का माहौल बना दिया। आज कुछ ऐसा लगता है कि जो भी मैंने ख़्वाब देखा था वो पूरा हुआ हैं। आज मेरा बेटा इतना बड़ा अफसर है कि जितना हमारे आसपास के पचास गांव से कोई पहले नही बना है। बड़े -बड़े लोग हमारे साथ इज्जत से पेश आते है”।
मेरठ से बिजनौर जाते समय मीरापुर थाना क्षेत्र के केथोड़ा गांव में दिल्ली -पौड़ी राजमार्ग पर शादियो में रौनक बनने वाले कई बैंड बाजों की दुकान दिखाई देती है। मुसलमानों में बैंड बाजों के इस काम को अच्छा नहीं समझा जाता है। यही सड़क के किनारे सबसे मशहूर बैंड पापुलर बैंड हैं। इस बैंड की मुख्य पहचान महबूब आलम से हैं। महबूब आलम की पत्नी इस गांव की निवर्तमान प्रधान है। यह गांव मुजफ्फरनगर जनपद के सबसे बड़े गांव में से है जबकि जानसठ तहसील का सबसे बड़ा गांव है। घर के बाहर ‘मसूद आलम आईईएस’ लिखा है। यह पद कितना अधिक महत्वपूर्ण है कि आसपास के दर्जनों गांवों में ऐसा पहली बार हुआ है। गांव के प्रधान पति महबूब आलम के छोटे भाई मसूद आलम इस समय भारतीय रेलवे में एडीआरएम है।
जमील अहमद कहते हैं कि अब वो खूब इज्जत पाते हैं। अब कोई बाजा वाला नही कहता ! मैंने पहला ख़्वाब देखा था मेरा बेटा अफसर बने। दूसरा ख़्वाब देखा था गांव की प्रधानी का,दोनों पूरे हुए, एक समय लोगों ने बहुत अपमान की नजर से देखा था, अल्लाह ने बहुत अधिक सम्मान दे दिया।
यह सब कैसे हुआ ! जमील अहमद बताते है ” मैं हिंदी पढ़ लेता हूँ, मैं बड़े लोगों की खुशियों में बैंड बजाने जाता था वहां से दिल मे हिलोरें उठती थी। हमने कई अफसरों की शादियो में भी बैंड बजाया। मैं इज्जत चाहता था और मैंने देखा कि समाज सबसे ज्यादा इज्जत खूब पढ़े लिखे अफसरों की करता है। मुझे समझ मे आया कि मेरे बेटे को अफ़सर बनना चाहिए। अब यह बहुत मुश्किल काम था। मैं तो कुछ भी नही कर सकता था। इसके लिए बड़ी पढ़ाई और पैसे की जरूरत थी। मेरे पास कोई मार्गदर्शन नही था बस एक सोच थी कि मेरे बेटे को बड़ा अफसर बनना है। मैंने देखा था कि तमाम नेता और पैसे वाले लोग अफसरों के सम्मान में लगे रहते हैं। इधर उधर सुनकर जो बात मेरी समझ मे आई वो यह थी कि इसके लिए कोचिंग करनी होगी ! अब कोचिंग का खर्च संभालना बहुत मुश्किल था। इतना पैसा नही था। तब मेरे बड़े बेटे महबूब आलम ने कुर्बानी दी उसने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और घर चलाने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली, उसने अपने भाई के लिए सबसे बड़ी पढ़ाई पढ़ाने का माहौल बनाया बाकी उसके बाद छोटे बेटे मसूद आलम ने निराश नही किया ,वो बहुत दिल लगाकर पढ़ा और उसने इंजीनियरिंग की देश की मुख्य परीक्षा पास कर ली वो अब एडीआरएम है, उसका सरकारी बंगला बहुत बड़ा है और बहुत सारे नौकर भी है।
जमील अहमद कहते हैं कि उनके अंदर एक आग थी कि अपनी इज्जत के लिए लड़ना है। मेरी बीवी एक बेहद नेक औरत थी,उन्होंने बच्चों की बहुत कायदे से परवरिश की ,बच्चे बुरी आदतों से दूर रहे यह तब ही हो पाया। आज सब कुछ बदल गया है। मैं बहुत खुश हूँ।
जमील अहमद की तरह भारत मे पिछले कुछ वर्षों में मुस्लिम वर्ग के पिछड़े तबकों में एक सुखद बदलाव देखने मे आया है। खासकर गरीब मुसलमानों ने अपना पिछडापन दूर करने के लिए खूब मेहनत और अच्छी पढ़ाई का रास्ता चुना है। यही कारण है कि ग्रामीण इलाकों से बड़ी संख्या में डॉक्टर ,इंजीनियर और ब्यूरोक्रेट सामने आये हैं। खासकर लड़कियों में न्यायिक सेवा को लेकर जबरदस्त रुझान देखने मे आया है। हाल के दिनों में हर प्रकार से पिछड़े मुस्लिम तबके में रोशनी की इस किरण ने एक बड़ी उम्मीद को जन्म दे दिया है।
इसे समझने के लिए हाल ही में उत्तराखंड राज्य के न्यायिक सेवा के परिणाम को देख सकते हैं जहां तीन मुस्लिम लड़कियां आयशा फरहीन, जहाँआरा अंसारी और गुलसिताँ अंजुम जज बनी है। ये लड़कियां ग्रामीण पृष्ठभूमि से आती है और संयोग यह है कि तीनों के ही माता पिता ने उच्च शिक्षा हासिल नही की है। आयशा फरहीन के पिता शराफत ही सिर्फ आठवी तक पढ़े लिखे हैं,जबकि मां तो कभी स्कूल ही नही गईं है । इससे पहले राजस्थान,हरियाणा,बिहार और उत्तर प्रदेश में ऐसी ही कहानियां सामने आई है,जहां ऐसे नोजवानो ने विभिन्न प्रतियोगिताओं में कामयाबी हासिल की है,जिनके परिवार में शैक्षिक माहौल नही रहा है।
ऐसा क्यों हो रहा है ! इसे इन दिनों अमरोहा में बतौर सिविल जज काम कर रही मेरठ की मेहनाज राव के पिता बाबू से समझते हैं। बाबू और उनकी पत्नी बानो कभी स्कूल नही गए। बाबू की पत्नी सिर्फ कुरान पढ़ सकती है। मेरठ के पल्हेड़ा गांव के बाबू बिल्कुल पढ़े लिखे नही है मगर उनका एक बेटा डॉक्टर है, एक दूसरा बेटा आईआईटीएन है,एक बेटी जज बन गई और दूसरी बेटी माइक्रोबायलॉजी जैसे विषय मे पीएचडी कर रही है। 65 साल के बेहद शरीफ इंसान बाबू बताते हैं कि उनका परिवार मूलतः किसान है मगर वो ठेकेदारी का काम करते हैं। वो बताते हैं कि “उन्होंने गांव से बाहर निकलकर बड़ी दुनिया देखी और दूसरों बच्चों को बड़े बड़े स्कूलों में जाते देखा और यहीं से उन्हें महसूस हुआ कि इन बड़े स्कूलों में उनके बच्चे क्यों नही पढ़ सकते हैं ! हमारे पास पैसा था ! गांव में कुछ और लोगो के पास भी पैसा था मगर वो बड़ा घर बनाने और गाड़ी खरीदने में खर्च कर रहे थे। यही स्टेटस सिंबल था। मुझे यहां से लगा कि मुझे अपने कमाए हुए पैसे को अपने बच्चों को पढ़ाने में लगाना चाहिए। अगर मैं ऐसा नही कर सका तो मैं कर्ज लूंगा ! मैंने यही किया। मैं खुद पढ़ा लिखा नही था न ही मेरी बीवी ,बस मैंने अपने पढ़े-लिखे परिचितों की सलाह ली और अपनी सारी कमाई बच्चों को पढ़ाने में लगा दी। आज मुझे पूरा सुकून है मैंने सही फैसला लिया। ‘
एक और कहानी है और यह मुजफ्फरनगर के निराना गांव की है। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के निराना गांव में संयोग से एक भी डॉक्टर नही है। मुजफ्फरनगर जिला 2013 के दंगों के कारण काफी चर्चित हुआ है ! गांव आबादी 2000 के आसपास है। इस गांव के लड़के मोहम्मद ताबिश की देश के सबसे उच्च मैडिकल क्षमता वाले ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट (एम्स) में तीसरी रेंक हासिल की है। वो इस 30 लाख की आबादी वाले जनपद मुजफ्फरनगर के पहले गेस्ट्रोलॉजिस्ट होंगे। इससे पहले मोहम्मद ताबिश लखनऊ के केजीएमसी कॉलेज को 91 साल में एमबीबीएस में टॉप करने वाले मुस्लिम छात्र बने थे।
ताबिश के पिता भी बस स्कूल ही गए हैं जिसकी यादें उन्हें अब याद नही है। उनकी अम्मी सिर्फ कुरान पढ़ सकती है। 6 भाइयों में से एक ताबिश डॉक्टर है जबकि अन्य पांच इंजीनियर है। डॉक्टर ताबिश के पिता मोहम्मद मोहतासिम शुद्ध ग्रामीण पृष्ठभूमि के है और खेती करते हैं। वो बताते हैं कि सिर्फ़ मेहनत ही हमारी तक़दीर बदल सकती है और हमने ये बहुत पहले समझ लिया था। एक समय ऐसा था जब मेरे सभी बच्चे एक साथ स्कूल जाते थे तब मेरी बीवी ने बहुत मेहनत की।
सबसे प्राचीन सड़क जीटी रोड पर देहरादून से दिल्ली मार्ग पर आने वाले खतौली कस्बे में शकील अहमद (66) की बड़ी बेटी जीनत परवीन जज बन गई तो यह कौतूहल का विषय बन गया। तबलीग़ जमात से जुड़े शकील अहमद एक किराने की दुकान चलाते हैं। वो जिस माहौल से आते हैं वहां लड़कियों की पढ़ाई को लेकर नकारात्मक माहौल बनाने की कोशिश की गई। शकील बताते हैं कि उन्होंने बेटियों को अपनी बेटों से भी अधिक पढ़ाई के लिए आज़ादी दी है। जज बनने से पहले वो एक कॉलेज में बतौर लेक्चरर पढ़ा भी चुकी है। यह उनका हक है और आज उन्होंने हमारा नाम रोशन किया है। मैं जानता था कि अच्छी पढ़ाई उनका हक है, मेरी दूसरी बेटी भी एमएससी कर रही है,एक और बेटी ने बीएड किया है। हम दुनिया देख रहे हैं और अच्छी तरह समझते हैं और काबिलियत के बिना कोई खड़ा नही रह पाएगा ! हमारे पास बहुत अधिक मेहनत और क़ाबिल होने के अलावा और कोई रास्ता नही है।
सामाजिक चिंतक खालिद अनीस अंसारी मुसलमानों में आए इस परिवर्तन पर कहते हैं कि 90 के दशक के बाद मुसलमानों की सोच में बहुत बदलाव आया है। पहले तो उसे ऐसा लगा है कि पारंपरिक कारोबार और वो सुरक्षित भविष्य नही रखते है। उन्हें काम करने के लिए पढ़ना होगा अब कारीगिरी के लिए भी डिप्लोमा की जरूरत पड़ेगी। जीना है तो पढ़ना होगा ! दूसरा हिंदुत्व के बढ़ते प्रभाव की प्रतिक्रिया में भी मुसलमानों ने शिक्षा की और ज्यादा ध्यान देना शुरू किया है। अब वो सिस्टम में आना चाहते हैं ताकि खुद को मुख्यधारा में शामिल कर सकें। मुसलमानों में खुद को साबित करने का दबाव है। वो सर्वश्रेष्ठ क़ाबलियत क्षमता विकसित करना चाहते हैं,वो ऐसा कर रहे हैं और उनकी मेहनत दिखती है। मुसलमानों की करोड़ो की आबादी में यह जो परिणाम आये हैं वो अच्छे है और इनकी सराहना होनी चाहिए मगर काफी नही है। अभी यह संख्या से 3 से 5 फीसद है जिसे कम से कम 20 फीसद होना चाहिए। जिन लोगों ने साहस किया है और ज्ञान को प्रगति का मार्ग चुना है वो तारीफ के हकदार है। इन्होंने सीमेंट के बीच से पीपल पैदा करने का काम किया है।