फहमिना हुसैन, TwoCirclers.net
भाजपा सरकार अपनी ही बनायी नीतियों में उलझती जा रही है, वहीं कांग्रेस अपनी स्थापना और देश की स्वतंत्रता के बाद सबसे बुरा वक्त देख रही है. एक ओर जहां केंद्र सरकार अपनी नीतियों के तहत निर्णय करने में असफल साबित हो रही है, तो वहीं कांग्रेस अभी नेतृत्त्व की लड़ाई से जूझ रही है.
सरकार अपने दो साल पूरे कर चुकी है. इस दिशा में सरकार एक जश्न के मूड में भी है. लेकिन जिस तरीके से सामाजिक मुद्दों से सरकार की भटकती मंशा देखने को मिल रही है, उससे यह साफ़ होता है कि सरकार सामाजिक मुद्दों पर कोई पहल नहीं करना चाहती है.
जवाहरलाल नेहरू की आर्थिक नीतियों की देन पंचवर्षीय योजना को मोदी सरकर जल्द ही इतिहास बनने की तैयारी में जुटी हुई है. योजना आयोग को बंद करने के बाद मोदी सरकार नेहरू युग की एक और व्यवस्था को खत्म करने जा रही है. केंद्र सरकार ने पंचवर्षीय योजनाओं को समाप्त करने का फैसला किया है, अब इनकी जगह नरेंद्र मोदी की ‘सप्तवर्षीय’ योजना चल सकती है.
पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1951 में की थी. उन्होंने 1950 में योजना आयोग की स्थापना कर उसे पंचवर्षीय योजनाएं तैयार करने का जिम्मा सौंपा था.
मोदी सरकार योजना आयोग को पहले ही नीति आयोग में तब्दील कर चुकी है. इससे पहले 15वीं लोकसभा के दौरान वित्त मामलों संबंधी संसद की स्थायी समिति भी पंचवर्षीय योजनाओं की व्यवस्था को खत्म करने की सिफारिश कर चुकी है.
इतना ही नहीं मोदी सरकार ने दो साल पहले सत्ता संभालने के बाद योजना आयोग को समाप्त कर इसे नीति आयोग से बदल दिया और अब यह आयोग प्लानिंग के लिए फंड मुहैया कराने की प्रक्रिया में शामिल नहीं है. इतना ही नहीं पिछले बजट में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने प्लानिंग और नॉन प्लानिंग फंडिंग में अंतर न रखने की भी बात कही थी.
वही कुछ दिन पहले राजस्थान में अाठवीं कक्षा की सामाजिक विज्ञान की किताबों में से पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का नाम निकाल दिया गया है. इन किताबों में भीमराव अम्बेडकर के परिचय को भी समेट दिया गया है. किताब में इस बात का जिक्र ही नहीं है कि भारत के पहले प्रधानमंत्री कौन थे? इसे मामले को लेकर भाजपा सरकार को काफी निंदा का सामना करना पड़ा था.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े भाजपा जैसे संगठन महात्मा गांधी और भीमराव अम्बेडकर की प्रशंसा करने का चाहे जितना ढोंग क्यों न करें, अब तक का समय यह साफ़ करता है कि इन दोनों से देश के दक्षिणपंथी समुदाय की नफरत किस हद तक जा चुकी थी. यह आकस्मिक नहीं है कि एक ओर उनका नाम पाठ्यपुस्तकों से हटाया जा रहा है और दूसरी ओर उनके नाम पर बने विश्वविद्यालय को नष्ट करने की कोशिशें की जा रही है.
भाजपा के दो सालों में भले ही आर्थिक स्तर पर नीतियां मजबूत हुई हों, लेकिन इन नीतियों का असर आम आदमी पर पड़ता नहीं दिखाई दे रहा है. सामाजिक मुद्दों पर भाजपा की चुप्पी और आर्थिक मुद्दों पर भाजपा का जश्न भाजपा की ‘विकास’ नीति पर बहुत सारे सवाल खड़े करता है.